Monday, 31 October 2016

खेल -खेल में सीखें थीं 
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आज याद जब भी आती है ,बचपन की दुनिया अपनी 
रोम -रोम में थिरकन होती, ख़्वाबों में खो जाती हूँ ,
कितनी छोटी, सहज ,सुरीली ,दुनियाँ थी वो बचपन की
ख़ुशी आस -पास तिरती थी ,छोटी छोटी बातों में ,
पल -पल जोश ,उमंग भरा था ,खेल -खेल में सीखें थीं ,
महंगे -महंगे खेल खिलौने ,इनकी हमको चाह न थी .
ढूंढ़ -ढांड कर गिट्टू आंगन से  ,आंगन में ही   खेल जमा
उछाल हवा में पाँचों गिट्टू इक्की दुक्की ,झपकू ,पंजा
बुद्धि  नजर हाथ  का  संतुलन शायद हम  यहीं पे सीखे |
पत्थर के टुकड़ों को चुन कर ,पिट्ठू -गरम बना लेते थे 

गेंद   नही  तो  क्या , कपड़ा  ऊन  सुई धागा लेकर 
सब बच्चों ने मिलजुल कर ,सतरंगी इक गेंद बना ली 
जुगाड़  और  काम चलाना ,कम  खर्च बाला नशीं 
फुर्ती ,शक्ति और  संतुलन ,कितनी  सीखें  थी  इस सब  में |
आइस -पाइस छुपम छुपाई ,आस -पास ही भागम -भगाई
विष अमृत , -टिप्पी टॉप खेलते ,रंगों में हम रंग जाते थे

आसपास  की  हर हरकत  पे ; ध्यान  लगाना  ;चौकन्ना  रहना ,
शायद  जासूसी  के कुछ  गुर  अवश्य  ही  इन खेलों  से  आये |
एक पहिया साइकिल का ,एक डाल से लकड़ी तोड़ी ,
सड़कों पे पहिया चल पड़ता ,वो पल गर्वीली ख़ुशी के होते

पहिये  के  नीचे  तार  या लकड़ी  ,और सडक  पर  भागम-  भाग 
क्या  अनोखा संतुलन ,नजर  न  भटके  सीखी  बात
जीवन की गाड़ी के पहिए आज भी यूँ ही चलते -

आधार  आज  भी जीवन  को  अनुभव  के  तारों  से  देते  |
चिड़िया उड़ ,तोता उड़ ,रोटी उड़  पे कौन उड़ बोला !
ताली बजी आउट हुआ ,ध्येय पे ध्यान ये हमने सीखा

अर्जुन सी  हो  नजर ध्यान  लक्ष्य पे रहे हमेशा 
कभी नही फिर वाणी  फिसलेगी ,बुद्धि ध्येय पे ही टिकेगी |
टप -टप टप ,स्टेपू पे यादों के बादल बरस रहे हैं ,
संतुलन हम यही से सीखे  ! एक टांग से टपना  हो या 

दोनों से   लेनी  हों   छलांग ,लाइन  पे  न  पड़े पैर ,
एक से सात  घरों  को टपना और अपना अधिकार  बनाना 
मेहनत  से  कुछ  मिलने  की  ख़ुशी को ,सबसे पहले यहीं पे जाना | 
और चौपड़ की बिसात पे ,बड़ों को भी खेलते देखा ,
कौड़ी -कौड़ी माया जोड़ी ,कौड़ी का भी मोल है समझा
ऊँची कूद भी हाथ पाँव को जोड़-जाड के कूद गये 

पाला  --लगे लम्बी  व्  ऊँची कूद  ,बस नजर लक्ष्य पर रखनी होगी 
अपनी परीक्षा  आप  ही  लेके  ,बारम्बार कोशिशे करनी
कभी गिरे कभी कूद गए पर सीखेंगे ये जिद न छोड़ी |
कभी न मांगे हमने माँ से, महंगे -महंगे खेल खिलौने ,
अलमस्त बचपन में हम सब ,सखियों संग ,झूला झूले
पढ़ना ,लिखना ,सीना बुनना और पिरोना, पाक कला औ -
अतिथि स्वागत , खेल खेल में  पढ़ गये जीवन के  ये पाठ  सुहाने |
संवेदनाएं जीवनकी ,समरसता में जीना क्या है?
साथ निभाना संकल्पित होना ,बाधाओं में डट कर टिकना ,
खेलों में हमने सीखा ,हार जीत पे संतुलित होना 

सबको साथ  लेके चलना ,प्रीत  प्यार  से हिलमिल  रहना |
समय  घड़ी  की  रेत रिस  रही  , समय लगा के पंख उस चला ,
पर  आज  उलट  इस  समय  घड़ी  को ,मैं  फिर  बचपन में घूमी , 
ख़्वाबों  के  जंगल  में  बचपन संग , फिर से सारे खेली खेल
बचपन की गलबहियां डाले  -अपने -पाले  तेरे पाले 

कविता  के  दर्पण  में  आज   हुआ  फिर , बचपन  से  मेल |
अब बचपन पूरा बदल गया है ,बच्चों को तो बैट बॉल चाहिए ,
बैड -मिन्टन ,फुटबॉल ,बेस और बास्केट बाल चाहिए ,
मोबाइल ,और लैपटॉप ,साथ में कम्पयूटर गेम्स चाहियें ,
रफ़्तार यदि सीखनी हो तो ,सायकिल-स्कूटर बाइक चाहिए .
और भागने दौड़ने को ,ट्रेड -मिल या रन फार एनी कॉज चाहिए ,
यह सब मिल जाने पर भी ,अब बचपन उतना शांत नहीं है .
भोला और निष्पाप नहीं है ,सुविधाओं में गुम गया कहीं है
अपने को साबित करने के बोझ तले , गुम गया आज  बचपन कहीं पे |
बचपन को फिर से गढ़ना  ,संवेदनशील बनाना  ,
बचपन को बचपन देना  ,भोला और सरल बनाना
खोगया कहीं जो हाई -टेक होकर ,,मोबाइल गेम्स से वापस लाकर ,
प्रकृति से मिलवाना  , क्या हो  सकता  है  ये  फिर  से ?

यक्ष प्रश्न  ये  पर !
कुछ तो जुगत भिडाना होगा ,बचपन को बचपन से मिलवाना होगा
तब ही शायद लौटेगा  सच्चा  बचपन भोला बचपन-|||आभा||------------------टिप्पणी----बचपन के खेल भूले नही जाते ,समय की रेत पे निशां वो भी पक्के वाले छोड़ जाते हैं ,जरासा पन्ना पलटो जीवंत हो उठती हैं स्मृतियाँ-----

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