''स्वयंसिद्धा ''
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==='' प्रेम '' ! प्रेम का बिरवा धरती ,खाद ,पानी ,सही मौसम की प्रतीक्षा कहाँ करता है ; प्रेम! कुदरत का उपहार ; आज उस प्रेम की बतकही जो हर तरह के प्रेम का मूल है -मनु और शतरूपा का प्रेम ,आदम और हव्वा का प्रेम । प्रेम ! सरल और सहज भावना किसी को देख जोर से दिल धड़का -और-''गिरा अनयन नयन बिनु बानी '' वाला समा हो गया , उसे बार-बार देखने का मन होने लगा ,'''सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ''और'' भये बिलोचन चारु अचंचल '' वाली स्थिति हो गयी । पास जाने की , बात करने की तीव्र इच्छा पर सामना होते ही होठों पे टेप लग गया हो ज्यूँ ; चमकीला वाला लाल टेप ,इतना चमकीला और लाल कि उसकी रश्मियों से वो भी समझ गया तुम कुछ कहना चाहते हो पर कह नही पा रहे। आँखों -आँखों में हो गयी बात ,तुम उससे प्रेम में हो उसे मालूम हो गया और आश्चर्य तुम्हें भी अहसास हो गया ''दोनों ओर प्रेम पलता है ''।
=== बचपन से साथ पले ,बढ़े ,खेले कूदे। धौल -धप्पा ,किंगोड़ ,हिंसर बेडू ,तोड़ते ,कच्चे अखरोट के छिलके से साफ़ करे दांत और लाल होंठों पे ताली पीटते ,मालू के पत्तों के दोनों में ढेर से जंगली गुलाब ले गंगा में बहाते -बहाते न जाने कब अनु मुझसे कतराने लगी पता ही न चला । अभी कुछ दिन ही तो हुये जब मैंने अनु के कानों के छेदों में जंगली गुलाब के गुच्छे पहनाये थे ,उसके लिए गजरा बनाया था, कितनी सुंदर लग रही थी अनु पहन के। पर अचानक ये क्या हो गया , वो शर्माने लगी , कौन सा अहसास है ; क्या प्रेम का अंकुर पनप रहा है ? पर अब तक कहाँ था ये निगोड़ा प्रेम ? हम बड़े ही क्यूँ हुए ! तब हर पल का साथ था और अब देखने के लिये भी समय चुराना पड़ता है। बस कनखियों में ही बात हो पाती है।
=== अनुभा साधारण से संस्कारी घर की इकलौती लाड़ली बिटिया। धूप सी सफेद -हाथ लगाओ तो मैली हो जाये ,छुई-मुई सी नाजुक ,निगाहें मिलीं कि सिमट गयी। किशोर वय का खुमार -अनूप के चेतन -अवचेतन में हर पल अनु ही घूमने लगी। ये लडकियाँ किशोर अवस्था आते ही अपने में क्यूँ सिमट जाती हैं। क्यूँ मिलने पे पलकें झुका लेती है। वो कनखियों से मुझे देखती है ,क्यूँ मेरे पास मंडराती है पर कुछ कहूँ तो भाग जाती है।
=== अनूप अनु से बात करने को बेताब था। उसके पिता का स्थानान्तरण हो गया था। एक सप्ताह में ही उन्हें चले जाना था। सब लोग बड़े खुश थे ,गाँव से बड़े शहर जा रहे थे ,अनूप का सपना था वकालत पढने का वो भी पूरा हो जाएगा। पर न जाने क्यूँ अनूप बहुत उदास था ,वो नही जाना चाहता था गाँव छोड़ के ; पर क्यूँ ? शायद अनु के कारण ! अनु से बिछड़ने की कल्पना से ही उसका मुहं हलक पे आ गया था। एक बार कैसे भी मिल ले और देखा अनु गंगाजी में पानी भरने जा रही है। सारे काम छोड़ अनूप दौड़ा और सुनसान देख अनु का हाथ पकड़ उसे खींच लिया , कस के हाथ पकड़ अनूप ने हौले से अनु के कान में कहा - ''मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ '' । अनु तो सफेद ही पड़ गयी , जिन शब्दों की ,जिस अहसास की कल्पना भी उसे रोमांचित करती थी आज वही सुनने पे उसका दिल जोर जोर से धड़कने लगा ,पहाड़ के उस छोटे से कस्बाई गाँव की छोरी ,डाल में लगे पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी ,पूरा शरीर लरजने लगा ,आँखों से आंसू झरने लगे ,रंग पीला पड़ गया ,मन कर रहा था ये लम्हा कभी खत्म न हो पर शर्म से हाथ छुड़ा के भाग गयी। अनूप को होश आया तो उसे लगा वो लज्जा से गड़ ही जायेगा , ये उसने क्या कर दिया ,गर अनु ने किसी से कह दिया तो ,ये कैसी चाहत -छूने की चाहत को कहीं प्यार कहते हैं --पर प्यार ? वो क्या करे प्यार तो वो करता है अनु से ,अनूप को लगा उसका प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही मर गया। हताश निराश वो चल दिया जीवन की राह पे।
स्नेहिल मित्रों ,ये मेरी पहली कहानी है ,मैंने लेख, संस्मरण ,आप बीती ,जग बीती ,कविता ,व्यंग -सभी लिखे पर खालिस कहानी कभी नहीं लिखी। इस मंच पे ये विधा भी सीखूं यही प्रयास रहेगा ,बोर भी हों पर पढियेगा अवश्य , मुझे पता है कहानी की शुरुआत लम्बी हो गई है और अंत समेटना पड़ा है -पर आगे से ध्यान रखूंगी। शुभकामनायें सभी साहित्य प्रेमियों को ,और विशेष धन्यवाद प्रतिबिम्ब को , कहानी लिखने का माहौल देने के लिए --
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==='' प्रेम '' ! प्रेम का बिरवा धरती ,खाद ,पानी ,सही मौसम की प्रतीक्षा कहाँ करता है ; प्रेम! कुदरत का उपहार ; आज उस प्रेम की बतकही जो हर तरह के प्रेम का मूल है -मनु और शतरूपा का प्रेम ,आदम और हव्वा का प्रेम । प्रेम ! सरल और सहज भावना किसी को देख जोर से दिल धड़का -और-''गिरा अनयन नयन बिनु बानी '' वाला समा हो गया , उसे बार-बार देखने का मन होने लगा ,'''सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ''और'' भये बिलोचन चारु अचंचल '' वाली स्थिति हो गयी । पास जाने की , बात करने की तीव्र इच्छा पर सामना होते ही होठों पे टेप लग गया हो ज्यूँ ; चमकीला वाला लाल टेप ,इतना चमकीला और लाल कि उसकी रश्मियों से वो भी समझ गया तुम कुछ कहना चाहते हो पर कह नही पा रहे। आँखों -आँखों में हो गयी बात ,तुम उससे प्रेम में हो उसे मालूम हो गया और आश्चर्य तुम्हें भी अहसास हो गया ''दोनों ओर प्रेम पलता है ''।
=== बचपन से साथ पले ,बढ़े ,खेले कूदे। धौल -धप्पा ,किंगोड़ ,हिंसर बेडू ,तोड़ते ,कच्चे अखरोट के छिलके से साफ़ करे दांत और लाल होंठों पे ताली पीटते ,मालू के पत्तों के दोनों में ढेर से जंगली गुलाब ले गंगा में बहाते -बहाते न जाने कब अनु मुझसे कतराने लगी पता ही न चला । अभी कुछ दिन ही तो हुये जब मैंने अनु के कानों के छेदों में जंगली गुलाब के गुच्छे पहनाये थे ,उसके लिए गजरा बनाया था, कितनी सुंदर लग रही थी अनु पहन के। पर अचानक ये क्या हो गया , वो शर्माने लगी , कौन सा अहसास है ; क्या प्रेम का अंकुर पनप रहा है ? पर अब तक कहाँ था ये निगोड़ा प्रेम ? हम बड़े ही क्यूँ हुए ! तब हर पल का साथ था और अब देखने के लिये भी समय चुराना पड़ता है। बस कनखियों में ही बात हो पाती है।
=== अनुभा साधारण से संस्कारी घर की इकलौती लाड़ली बिटिया। धूप सी सफेद -हाथ लगाओ तो मैली हो जाये ,छुई-मुई सी नाजुक ,निगाहें मिलीं कि सिमट गयी। किशोर वय का खुमार -अनूप के चेतन -अवचेतन में हर पल अनु ही घूमने लगी। ये लडकियाँ किशोर अवस्था आते ही अपने में क्यूँ सिमट जाती हैं। क्यूँ मिलने पे पलकें झुका लेती है। वो कनखियों से मुझे देखती है ,क्यूँ मेरे पास मंडराती है पर कुछ कहूँ तो भाग जाती है।
=== अनूप अनु से बात करने को बेताब था। उसके पिता का स्थानान्तरण हो गया था। एक सप्ताह में ही उन्हें चले जाना था। सब लोग बड़े खुश थे ,गाँव से बड़े शहर जा रहे थे ,अनूप का सपना था वकालत पढने का वो भी पूरा हो जाएगा। पर न जाने क्यूँ अनूप बहुत उदास था ,वो नही जाना चाहता था गाँव छोड़ के ; पर क्यूँ ? शायद अनु के कारण ! अनु से बिछड़ने की कल्पना से ही उसका मुहं हलक पे आ गया था। एक बार कैसे भी मिल ले और देखा अनु गंगाजी में पानी भरने जा रही है। सारे काम छोड़ अनूप दौड़ा और सुनसान देख अनु का हाथ पकड़ उसे खींच लिया , कस के हाथ पकड़ अनूप ने हौले से अनु के कान में कहा - ''मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ '' । अनु तो सफेद ही पड़ गयी , जिन शब्दों की ,जिस अहसास की कल्पना भी उसे रोमांचित करती थी आज वही सुनने पे उसका दिल जोर जोर से धड़कने लगा ,पहाड़ के उस छोटे से कस्बाई गाँव की छोरी ,डाल में लगे पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी ,पूरा शरीर लरजने लगा ,आँखों से आंसू झरने लगे ,रंग पीला पड़ गया ,मन कर रहा था ये लम्हा कभी खत्म न हो पर शर्म से हाथ छुड़ा के भाग गयी। अनूप को होश आया तो उसे लगा वो लज्जा से गड़ ही जायेगा , ये उसने क्या कर दिया ,गर अनु ने किसी से कह दिया तो ,ये कैसी चाहत -छूने की चाहत को कहीं प्यार कहते हैं --पर प्यार ? वो क्या करे प्यार तो वो करता है अनु से ,अनूप को लगा उसका प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही मर गया। हताश निराश वो चल दिया जीवन की राह पे।
=== और अनु ---वो तो मीरा सी बावरी होली , राधा सी दीवानी होली। हर पल आँखों के आगे वही दृश्य , अनूप मेरा है ,उसने मेरा हाथ पकड़ा ,प्यार करता हूँ बोला ,दौड़ के कमरे में जाती और बार-बार आरसी में स्वयं को निहारती -''आपु आपु ही आरसी लखि रीझत रिझवारी ''अपने पे ही रीझ रही है और सोच रही है
''-है स्पर्श मलय के झिलमिल सा संज्ञा को सुलाता है।
पुलकित हो आँखें बंद किये तंद्रा को पास बुलाता है।
मादक भाव सामने ,सुंदर एक चित्र सा कौन यहाँ।
जिसे देखने को ये जीवन मर मर कर सौ बार जिए। ''
=== समय चक्र तेजी से घूमता है। अनूप वकालत करके अधिवक्ता बन गया। वकालत चल निकली। शहर के गिने चुने लोगों में नाम हो गया। पिता ने एक बड़े घर में रिश्ता तय कर दिया। दोनों घरों में विवाह की खुशियाँ , मांगल और नियत समय पे लगन। कुसुम --हाँ कुसुम कली सी ही है नई दुल्हन। अभिजात्य वर्ग की ठसक लिए ,नाजुक भी और सुंदर भी ,पर लोच और नजाकत गायब ,मानो जंगली गुलाब के बीच -ट्यूब रोज का गुच्छा -मासूमियत भी कुछ अलग तरह की। पहली छुवन में भी वो लरजना नही --क्या चाहता है अनूप ? सोच रहा है -प्रथम मिलन में अनु क्यूँ आ रही है मेरी पुतलियों में।वो तो रोते हुए भाग गई थी मेरे छूने पे ,फिर अब तक उसका भी विवाह हो गया होगा ,झटक देना चाहता है अनु को पर -पर -पर वो तो छायावाद की कविता की भांति समां चुकी है अस्तित्व में --''एक वीणा की मृदु झंकार ,कहाँ है सुंदरता का पार ,
=== समय चक्र तेजी से घूमता है। अनूप वकालत करके अधिवक्ता बन गया। वकालत चल निकली। शहर के गिने चुने लोगों में नाम हो गया। पिता ने एक बड़े घर में रिश्ता तय कर दिया। दोनों घरों में विवाह की खुशियाँ , मांगल और नियत समय पे लगन। कुसुम --हाँ कुसुम कली सी ही है नई दुल्हन। अभिजात्य वर्ग की ठसक लिए ,नाजुक भी और सुंदर भी ,पर लोच और नजाकत गायब ,मानो जंगली गुलाब के बीच -ट्यूब रोज का गुच्छा -मासूमियत भी कुछ अलग तरह की। पहली छुवन में भी वो लरजना नही --क्या चाहता है अनूप ? सोच रहा है -प्रथम मिलन में अनु क्यूँ आ रही है मेरी पुतलियों में।वो तो रोते हुए भाग गई थी मेरे छूने पे ,फिर अब तक उसका भी विवाह हो गया होगा ,झटक देना चाहता है अनु को पर -पर -पर वो तो छायावाद की कविता की भांति समां चुकी है अस्तित्व में --''एक वीणा की मृदु झंकार ,कहाँ है सुंदरता का पार ,
तुम्हें किस दर्पण में सुकुमारि ,दिखाऊं मैं साकार ,
तुम्हारे छूने में था प्राण संग में पावन गंगा स्नान ,
तुम्हारी वाणी में कल्याणि-त्रिवेणी की लहरों का गान। ''
आज अनूप निशब्द है ,प्रेम को ढूंढ रहा है। मन में ग्लानि भी है प्रथम मिलन में पूर्णसमर्पण न होने की '; क्या वो पत्नी को छल रहा है। ऐसे ही गृहस्थी की गाड़ी चल निकली। यदि घर में साथ रहने को ,सड़कों में हाथ पकड़ के घूमने को ,बच्चे पैदा करने और पालने को प्यार कहते हैं तो हाँ ! पति -पत्नी में प्यार था बहुत प्यार पर जब भी अनूप बालकनी में अकेला होता या रात में किसी लैम्पपोस्ट के नीचे होता घूमता हुआ ,कुदरत जैसे लम्बी लम्बी छायाओं में अनु के चित्र बनाने लगती।
=== और अनु ,वो अनु जो अनूप की हो चुकी है ,दीवानी मीरा की तरह बचपन की स्कूल की तस्वीर को पर्स में रखे हुए है , इसे देखकर ही उसके दिन का प्रारम्भ होता है , इस तस्वीर में अनु को केवल अनूप ही दिखाई देता है और कोई नहीं। उसे ही सीने से लगाती है ,बलाएँ लेती है। क्या हुआ जो मीरा ने कन्हैया को नहीं देखा ,क्या हुआ जो कान्हा राधा को छोड़ गए --राधा तो आज भी कान्हा की ही है न !
अनु ने हिंदी साहित्य से स्नातकोत्तर किया और फिर ''भक्ति काल में कान्हा राधा के प्रेम की सत्यता '' पे शोध भी किया। ये सब करके वो विदुषी सुंदर बाला अपने ही गाँव में आ बसी ,वहां छोटी सी पाठशाला में बच्चों को पढ़ाने लगी। शीघ्र ही उसने गाँव का कायाकल्प कर दिया ,छोटा सा सजा -संवरा स्वच्छ -आधुनिक गाँव। वो बच्चों की प्रिय दीदी और गाँव की लाड़ली बेटी बन गई। माता -पिता को अनु के विवाह की चिंता खाये जा रही थी। अनु अप्रतिम सुंदरी थी ,जंगली गुलाब सी नाजुक गुलाबी रंगत लिए साथ में विदुषी और व्यवहार कुशल ,प्यार तो उसके रूप से ही बरसता था। एक से एक रिश्ते आये पर अनु टालती गई ,जब माँ की ओर से अधिक दबाव बना तो एक दिन उसने माँ को अपने प्यार की दास्ताँ सुना ही दी कि , वो तो बचपन में ही अनूप का हाथ थाम चुकी थी। माँ सर पकड़ के बैठ गई ऐसा भी कहीं होता है ,ये क्या बचपना है ,अनु तुम कलयुग में हो द्वापर में नहीं जो राधा बनी घूमो -पर माँ मीरा तो कलयुग में ही थी न --और माँ निरुत्तर। अनु कैसे काटेगी बिटिया पहाड़ सी जिंदगी , एक तो तेरा ये अप्रतिम रूप ऊपर से विरहिणी -बिटिया तू और भी सुंदर हो गई है ,कैसे बचेगी समाज की नजरों से ? मेरी मान शादी कर ले घर -बच्चों में सब भूल जायेगी। अनूप बहुत बड़ा वकील हो गया है ,उसकी तस्वीर देखी है मैंने अखबार में ,उसकी एक बेटी भी है ,बिटिया वो तुझे भूल चूका है !
नहीं माँ ये बात नहीं है ,मैंने ही कहां कहा था उसे रुकने को वो तो आया था न ,खुश है वो यही काफी है ,मैंने प्रेम में कोई शर्त तो नहीं लगाई थी न !ये गाँव के बच्चे हैं न मेरे अपने ,एक पल को अनूप से जो प्यार मिला वही उलीच दूंगी जग में तू चिंता मत कर।प्रेम क्या पाना ही होता है ? मैं प्रेम करती हूँ माँ ! गंगा की तरह निर्मल और पवित्र ,शिव पार्वती को छोड़ समाधि में बैठ गए तो क्या ? इस जन्म में नहीं तो किसी और जन्म में ,ये तो जन्मों का बंधन है राधा भी मैं ही मीरा भी मैं !
=== समय न किसी की प्रतीक्षा करता है ,न किसी के लिए रुकता है। एक ही बिटिया वो भी अप्रतिम रूप की स्वामिनी ,धूप में खड़ी हो तो दिखाई न दे इतनी फुसरी ,पान खाये तो गले में उतरता दिखे ऐसी कांच सी रंगत ,विदुषी ,सरलमना पर समर्पण ऐसे व्यक्ति के प्रति जो ये जानता भी नहीं ,माँ-पिता चिंता में बूढ़े होके असमय ब्रह्मलीन हो गए ,पर जाते-जाते इस अनोखे प्यार और समर्पण की गाथा सरपंच काका को बता गये। अनेकों आशीष अनेकों दुवाएं अनु गाँव भर की लाड़ली है अब ,गाँव की लड़कियां उसकी सर परस्ती में अपने को महफूज मानती हैं ।
=== उधर अनूप के घर में नए मेहमान के आने की आहट है। घर भर में खुशियां हैं , समय भी आ गया पर नियति को कुछ और ही मंजूर था अनूप के माँ पिताजी और कुसुम की हस्पताल जाते हुए दुर्घटना में मौत हो गई। जिस घर में खुशियां दस्तक देने वाली थीं ,वहां अब मातमी चहल -पहल थी। अनूप बिखर गया था। कैसे सम्भाले अपने को -किसी तरह बेटी के सहारे अपने को संयत किया हुआ था उसने । इस नन्ही सी जान का क्या दोष।इसके लिए ही जियूँगा मैं।
==== ये खबर अखबार में छपी। पढ़के अनु को लगा उसके शरीर से प्राण निकल रहे हो मानो ,वो तो सोचती थी कभी अनूप के जीवन में झाँकूँगी भी नहीं ,उसे मालूम भी न चले इस प्रेम का पर ये क्या ? आज वो बेहाल है अनूप से मिलने के लिए ,झट से निर्णय लिया ,हाँ मैं मिलूंगी ,समाज कुछ भी कहे ,मैंने प्रेम के आगे समाज की परवाह कब की ,सरपंच काका से पता मंगवाया अनूप का और चल दी अपने गंतव्य की ओर। मूसलाधार बारिश और बिजली की कड़क ,मानो कोई संदेश हो ,न जाने कैसा निमंत्रण था इस तड़ित में ,पानी के बुलबुले धरती पे बन रहे थे ,फूट रहे थे मानो सदियों से प्यासी धरा सारा पानी सोख लेगी ---
''बुलबुलों का व्यापक संसार
बन-बिखर रहा न जाने क्यों
न जाने आज फिर क्यूँ छूने की अभिलाषा
खद्योत बन कौन सा पथ दिखलाती है ''
==== घर का दरवाजा खुला था ,मानो स्वागत हेतु ही खोला गया हो ,सीधे भीतर चली आई ,पहचानूंगी कैसे बचपन की तस्वीर को ? पर ये क्या अनूप तो बदला ही नहीं ,बस गमगीन है नियति की मार से। झट से अनूप का हाथ पकड़ लिया ,एक बार पुन: वही घटना घटी ,बाहर बिजली कड़की -H2 +O2 = H2O--और दोनों की आँखें झरने लगीं ,बरसों का रुका सैलाब बाँध तोड़ बह निकला --अनूप ---मैं अनु ! आश्चर्य विस्मित अनूप --तुम रोती हुई क्यूँ भागी थीं -पगले वही तो प्यार था -तुम समझ नहीं पाये ,आज भी न आती पर बिटिया को मेरी जरूरत है। हाथ पकड़ अनु ने कहा चलो गाँव चलें अनूप ,बिटिया को माँ की तो गाँव को तुम्हारी जरूरत है ,दोस्त की तरह रहेंगे ,हाँ अगले जन्म में मिलने का वादा अवश्य करना इतनी सी विनती है ,प्रेम किया है तुमसे तो इतना माँगूँ ये तो हक है न मेरा --अँधेरा लीलने चला था सबकुछ पर समर्पित प्रेम रूपी स्वयंसिद्धा बिजली बन रोशनी करने आ गई --यही तो है प्रेम - वासना-विमुक्त समर्पण है जहां ॥ आभा ॥
तुम्हारे छूने में था प्राण संग में पावन गंगा स्नान ,
तुम्हारी वाणी में कल्याणि-त्रिवेणी की लहरों का गान। ''
आज अनूप निशब्द है ,प्रेम को ढूंढ रहा है। मन में ग्लानि भी है प्रथम मिलन में पूर्णसमर्पण न होने की '; क्या वो पत्नी को छल रहा है। ऐसे ही गृहस्थी की गाड़ी चल निकली। यदि घर में साथ रहने को ,सड़कों में हाथ पकड़ के घूमने को ,बच्चे पैदा करने और पालने को प्यार कहते हैं तो हाँ ! पति -पत्नी में प्यार था बहुत प्यार पर जब भी अनूप बालकनी में अकेला होता या रात में किसी लैम्पपोस्ट के नीचे होता घूमता हुआ ,कुदरत जैसे लम्बी लम्बी छायाओं में अनु के चित्र बनाने लगती।
=== और अनु ,वो अनु जो अनूप की हो चुकी है ,दीवानी मीरा की तरह बचपन की स्कूल की तस्वीर को पर्स में रखे हुए है , इसे देखकर ही उसके दिन का प्रारम्भ होता है , इस तस्वीर में अनु को केवल अनूप ही दिखाई देता है और कोई नहीं। उसे ही सीने से लगाती है ,बलाएँ लेती है। क्या हुआ जो मीरा ने कन्हैया को नहीं देखा ,क्या हुआ जो कान्हा राधा को छोड़ गए --राधा तो आज भी कान्हा की ही है न !
अनु ने हिंदी साहित्य से स्नातकोत्तर किया और फिर ''भक्ति काल में कान्हा राधा के प्रेम की सत्यता '' पे शोध भी किया। ये सब करके वो विदुषी सुंदर बाला अपने ही गाँव में आ बसी ,वहां छोटी सी पाठशाला में बच्चों को पढ़ाने लगी। शीघ्र ही उसने गाँव का कायाकल्प कर दिया ,छोटा सा सजा -संवरा स्वच्छ -आधुनिक गाँव। वो बच्चों की प्रिय दीदी और गाँव की लाड़ली बेटी बन गई। माता -पिता को अनु के विवाह की चिंता खाये जा रही थी। अनु अप्रतिम सुंदरी थी ,जंगली गुलाब सी नाजुक गुलाबी रंगत लिए साथ में विदुषी और व्यवहार कुशल ,प्यार तो उसके रूप से ही बरसता था। एक से एक रिश्ते आये पर अनु टालती गई ,जब माँ की ओर से अधिक दबाव बना तो एक दिन उसने माँ को अपने प्यार की दास्ताँ सुना ही दी कि , वो तो बचपन में ही अनूप का हाथ थाम चुकी थी। माँ सर पकड़ के बैठ गई ऐसा भी कहीं होता है ,ये क्या बचपना है ,अनु तुम कलयुग में हो द्वापर में नहीं जो राधा बनी घूमो -पर माँ मीरा तो कलयुग में ही थी न --और माँ निरुत्तर। अनु कैसे काटेगी बिटिया पहाड़ सी जिंदगी , एक तो तेरा ये अप्रतिम रूप ऊपर से विरहिणी -बिटिया तू और भी सुंदर हो गई है ,कैसे बचेगी समाज की नजरों से ? मेरी मान शादी कर ले घर -बच्चों में सब भूल जायेगी। अनूप बहुत बड़ा वकील हो गया है ,उसकी तस्वीर देखी है मैंने अखबार में ,उसकी एक बेटी भी है ,बिटिया वो तुझे भूल चूका है !
नहीं माँ ये बात नहीं है ,मैंने ही कहां कहा था उसे रुकने को वो तो आया था न ,खुश है वो यही काफी है ,मैंने प्रेम में कोई शर्त तो नहीं लगाई थी न !ये गाँव के बच्चे हैं न मेरे अपने ,एक पल को अनूप से जो प्यार मिला वही उलीच दूंगी जग में तू चिंता मत कर।प्रेम क्या पाना ही होता है ? मैं प्रेम करती हूँ माँ ! गंगा की तरह निर्मल और पवित्र ,शिव पार्वती को छोड़ समाधि में बैठ गए तो क्या ? इस जन्म में नहीं तो किसी और जन्म में ,ये तो जन्मों का बंधन है राधा भी मैं ही मीरा भी मैं !
=== समय न किसी की प्रतीक्षा करता है ,न किसी के लिए रुकता है। एक ही बिटिया वो भी अप्रतिम रूप की स्वामिनी ,धूप में खड़ी हो तो दिखाई न दे इतनी फुसरी ,पान खाये तो गले में उतरता दिखे ऐसी कांच सी रंगत ,विदुषी ,सरलमना पर समर्पण ऐसे व्यक्ति के प्रति जो ये जानता भी नहीं ,माँ-पिता चिंता में बूढ़े होके असमय ब्रह्मलीन हो गए ,पर जाते-जाते इस अनोखे प्यार और समर्पण की गाथा सरपंच काका को बता गये। अनेकों आशीष अनेकों दुवाएं अनु गाँव भर की लाड़ली है अब ,गाँव की लड़कियां उसकी सर परस्ती में अपने को महफूज मानती हैं ।
=== उधर अनूप के घर में नए मेहमान के आने की आहट है। घर भर में खुशियां हैं , समय भी आ गया पर नियति को कुछ और ही मंजूर था अनूप के माँ पिताजी और कुसुम की हस्पताल जाते हुए दुर्घटना में मौत हो गई। जिस घर में खुशियां दस्तक देने वाली थीं ,वहां अब मातमी चहल -पहल थी। अनूप बिखर गया था। कैसे सम्भाले अपने को -किसी तरह बेटी के सहारे अपने को संयत किया हुआ था उसने । इस नन्ही सी जान का क्या दोष।इसके लिए ही जियूँगा मैं।
==== ये खबर अखबार में छपी। पढ़के अनु को लगा उसके शरीर से प्राण निकल रहे हो मानो ,वो तो सोचती थी कभी अनूप के जीवन में झाँकूँगी भी नहीं ,उसे मालूम भी न चले इस प्रेम का पर ये क्या ? आज वो बेहाल है अनूप से मिलने के लिए ,झट से निर्णय लिया ,हाँ मैं मिलूंगी ,समाज कुछ भी कहे ,मैंने प्रेम के आगे समाज की परवाह कब की ,सरपंच काका से पता मंगवाया अनूप का और चल दी अपने गंतव्य की ओर। मूसलाधार बारिश और बिजली की कड़क ,मानो कोई संदेश हो ,न जाने कैसा निमंत्रण था इस तड़ित में ,पानी के बुलबुले धरती पे बन रहे थे ,फूट रहे थे मानो सदियों से प्यासी धरा सारा पानी सोख लेगी ---
''बुलबुलों का व्यापक संसार
बन-बिखर रहा न जाने क्यों
न जाने आज फिर क्यूँ छूने की अभिलाषा
खद्योत बन कौन सा पथ दिखलाती है ''
==== घर का दरवाजा खुला था ,मानो स्वागत हेतु ही खोला गया हो ,सीधे भीतर चली आई ,पहचानूंगी कैसे बचपन की तस्वीर को ? पर ये क्या अनूप तो बदला ही नहीं ,बस गमगीन है नियति की मार से। झट से अनूप का हाथ पकड़ लिया ,एक बार पुन: वही घटना घटी ,बाहर बिजली कड़की -H2 +O2 = H2O--और दोनों की आँखें झरने लगीं ,बरसों का रुका सैलाब बाँध तोड़ बह निकला --अनूप ---मैं अनु ! आश्चर्य विस्मित अनूप --तुम रोती हुई क्यूँ भागी थीं -पगले वही तो प्यार था -तुम समझ नहीं पाये ,आज भी न आती पर बिटिया को मेरी जरूरत है। हाथ पकड़ अनु ने कहा चलो गाँव चलें अनूप ,बिटिया को माँ की तो गाँव को तुम्हारी जरूरत है ,दोस्त की तरह रहेंगे ,हाँ अगले जन्म में मिलने का वादा अवश्य करना इतनी सी विनती है ,प्रेम किया है तुमसे तो इतना माँगूँ ये तो हक है न मेरा --अँधेरा लीलने चला था सबकुछ पर समर्पित प्रेम रूपी स्वयंसिद्धा बिजली बन रोशनी करने आ गई --यही तो है प्रेम - वासना-विमुक्त समर्पण है जहां ॥ आभा ॥
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