Tuesday, 25 October 2016


--कहानी ,मिथक ,जीवन दर्शन ---
पिछले वर्ष का दिमागी फितूर आज पुनर्जीवित हुआ , पर  पहले मैंने मित्रों  का आह्वान किया था विचार ,सलाह ,सुझाव व् परामर्श के लिए --वो वाक्य हटा दिया ---- आज कल मैं व्यस्त- पस्त हूँ सो मित्रों और बहनों की पोस्ट पे कम जा  पाती हूँ --और ये फेसबुक गिव एंड टेक का व्यापार है --- अतः मित्रों बहनों ने भी मेरी और से नजरें फेर ली हैं इसका अहसास है मुझे --सो लिखने या लाइक करने की कोई मजबूरी नही --यदि कुछ लिखने की इच्छा हो तो स्वागत ,अभिनन्दन ---
---- इस विषय में इस वर्ष मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई ---एक बार विष्णु  थकान से अपनी धनुष की प्रत्यंचा पे ही सर टिका के बैठ गए --थके थे तो नींद आ गयी।  इधर देवताओं को किसी दैत्य ने बहुत परेशान किया ,वो ब्रह्मा के पास गए मदद के लिए। ब्रह्मा ने उन्हें विष्णु के पास भेजा।  पर विष्णु गहरी निद्रा में थे। अब सारे जगत का राजा यदि गहरी निद्रा में हो तो उसे जगा के कोप का भाजन कौन बनेगा ! सो एक ऋषि ने दीमक बनाई।  दीमक को कार्य दिया तू जा और धनुष की लकड़ी को खोखली कर दे ताकि प्रत्यंचा खुल जाये और विष्णु जग जाएँ।  दीमक बोली इससे मुझे क्या मिलेगा ,आगे से मेरे जीने के लिये साधन क्या होगा।  तो ब्रह्माजी ने हवन ,पूजन ,यजन --और गृहस्थी के शेष --[ ऐसे हिस्से जिनपे ध्यान न दिया जाता हो ] भाग में दीमक का शेयर [भाग ] नियत कर दिया। आगे की कहानी है ----दीमक ने धनुष की लकड़ी को खोखला किया तो अनायास प्रत्यंचा टूट के विष्णु के गले पे लग गयी और विष्णु का सर धड़ से अलग हो दूर जा गिरा  --हाहाकार मच गया ,जगत खत्म होने की और बढ़ चला --तभी देवी ने आके घोड़े के सर को विष्णु के सर पे प्रत्यारोपित किया --विष्णु के इस अवतार को हयग्रीव अवतार कहा गया ----अब इस कथा में दीमक को पैदा करना --यज्ञ [जीवन जीना ही यज्ञ है ] के शेष भाग और अनदेखे पडी  वस्तुओं में दीमक का अधिकार --एक सोच है --यज्ञ को विस्तार देने की सभी प्राणियों को उनका हक देने की ,अनदेखी करने पे घर में पड़ी वस्तुओं के दीमक बन जाने की --और विष्णु के सर कटने की घटना --किसी भी कार्य को हर पहलू से सोच समझ के करने की सीख --अंग भंग होने पे शल्य क्रिया शीघ्र हो ताकि प्रत्यारोपण सफल हो और देवी द्वारा प्रत्यारोपण अर्थात स्त्रियां शिक्षित और विदुषी थी ,प्रत्येक क्षेत्र में उनका वर्चस्व था ---मैंने इस कथा को विस्तार से पढा पर कौन से ग्रन्थ में ये भूल गयी --शायद ,महाभारत में या देवी भागवत में देखना पड़ेगा --किसी को याद आये तो लिखे ----तो दीमक ऋषि के शरीर पे लगी --क्यूंकि यज्ञ से बचे भाग पे उसका अधिकार है ,अनदेखी और बहुत समय तक सफाई न की गयी जगह पे इसका अधिकार है --पर ये बात तो मेरी प्रत्यक्ष अनुभव की हुई है जहां हलचल होती रहती है वहां दीमक नही लगती --अतः ऋषि की तपस्या का अंदाजा हम लगा सकते  हैं ----एक पुरानी पोस्ट कुछ नई पढ़ाई के साथ -- :)



पौराणिक साहित्य को क्या हम डिकोड कर सकते हैं -- ----'''मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधि काममोहितम्।।''--------
ऋषि वाल्मीकि ---की कहानियाँ ---प्रचेताओं में से एक ,नगा जाति में जन्मे , वरुण के पुत्र ,भृगु ऋषि के भाई --पर सभी जगह एक ही बात जब उन्होंने तपस्या की तो दीमकों ने बाम्बी बनाली उनके ऊपर --और इसीलिये वो वाल्मीकि कहलाये ---
अब दीमक के विषय में ----दीमक अपनी बस्ती बना के रहती है ,ये शर्मीली होती हैं ,नम और अँधेरी जगहें उसे प्रिय हैं और जहां आवाजाही हो या इंसान की गंध हो वहां नहीं रहती ---अक्सर हम देखते हैं जो कोना कईदिनों से बिना देखभाल के पड़ा रहता है या मिट्टीवाला होता है उसी पे दीमक आती हैं ,यदि ऐसा न होता और चींटियों की तरह कहीं भी घूमती फिरती दीमक तो इंसान के रहने की जगह नहीं होती। --
''दीमक आपस में संवाद दोलन या थरथराहट, गंध, और शारीरिक संपर्क द्वारा करते हैं | सतर्क होने पर दीमक अपना सर फर्श पर पटक पटक कर, कंपन और जर्क करके, टेढ़े मेढे दौड़कर, एक दूसरे से टकराकर खतरे का संकेत देते हैं |इंसान या जानवर के चलने फिरने से फर्श पे , सतह के नीचे जो कंपन होती है वह दीमक के पैरों में पाए जाने वाले कंपन संवेदक पहचान जाते हैं | जर्क करके, टेढ़े मेढे दौड़कर, एक दूसरे से टकराकर – ये जो खतरे का संकेत दूसरे दीमक को देते हैं उससे आगे वाले दीमक भी सतर्क हो जाते हैं और खतरे के समय भागने के दौरान दीमक एक खास किस्म की गंध रास्ते में छोड़ते जाते हैं जो कि वास्तव में फेरोमोन्स होते हैं | वह वर्कर और सैनिक दीमकों को गडबड़ी वाले जगह की दिशा और स्तिथि बताकर भेजतें हैं | वैसे सामान्य स्तिथि में चारा ढूंढने के लिए भी कुछ ऐसी ही फेरोमोन्स का इस्तेमाल किया जाता है |''
अब मेरी क्षुद्र बुद्धि में रह -रह के घूमने वाला प्रश्न ---वाल्मीकि ऋषि जीवित थे , सांसले रहे थे ---तो दीमक उनपे कैसे लग गयीं ?
अब च्यवन ऋषि की कहानी ---वो भी यही है -च्यवन ऋषि तपस्या में लीन थे तो उनके शरीर पे दीमकों ने बांबी बना ली , एक दिन राजकुमारी सुकन्या खेलते खेलते वहां पे आई। राजकुमारी सुकन्या ने मिट्टी के टीले में दो चमकदार मणियां देखीं। कुतूहलवश सुकन्या उस मणि के निकट आई। नजदीक देखने पर भी वह चमकती वस्तु को समझ न पाई। तब उसने सूखी लकड़ी की सहायता से दोनों चमकदार मणियों को निकालने का यत्न किया लेकिन मणि निकली नहीं, अपितु वहां से खून बहने लगा।
अब क्या च्यवन ऋषि आँखें खोल के तपस्या कर रहे थे ,तो उन्होंने अपने शरीर को दीमक से अपवित्र क्यूँ होने दिया क्यूंकि दीमक तो अपवित्र जीव है ये विद्व्त ऋषि को मालूम ही होगा--यथा --
''दीमक एक सहजीवी फफूंद (टर्मिटोमाइसेस) को विकसित करने के लिए जाने जाते हैं | वो एक स्पंज के जैसा दिखने वाला फंगस गार्डन या छत्ता होता है जो की उनकी विष्ठा से बनता है और कार्बोहाइड्रेट से परिपूर्ण होता है | उसके बाद फफूंद उन छत्तों पर विकसित होता है और बाद में दीमक उन फफूंद और छत्तों को खा जाते हैं | ये फफूंद उन विष्ठा पदार्थों से बने छत्तों को प्रोसेस करके ऐसे पदार्थों में तब्दील करती है जोकि दीमक द्वारा फिर से उपयोंग किया जा सके | इसके लिए नाइट्रोजन चाहिए होता है और वह नाइट्रोजन या तो फफूंद से मिलता है अथवा स्वजातिभक्रण (cannibalism) से | दीमक अपने झडे हुए खाल की कोशिकाएं, मरे हुए, घायल हुए, अथवा जरूरत से ज्यादा समाज के भाई बंधुओं को खा जाते हैं |----और अगर आँखें बंद थीं तो चमकने वाली वस्तु क्या थी ?
---क्या ये सब कहानियाँ हैं जो लोक साहित्य का हिस्सा रहीं ,आसपास के परिवेश को देखते हुए गढ़ी गयीं और कालांतर में ऋषिमुनियों से जुड़ती गयीं अपने पुराने स्वरूप को भूल नव कलेवर में।
जब भी कोई व्यासपीठ पे बैठता होगा तो कुछ कहानियाँ अपने शब्दों में सुनाता होगा ,जो अनेकों कानों और मुहों से चलके नया स्वरूप लेती गयीं तथा लिपि के आविष्कार के बाद कमोबेश पुराणों में इस स्वरूप में अंकित हो गयी।
नन्हीलाल चुन्नी,लिटिल रेड राइडिंग हुड ,सिंड्रेला ,ढ़ड्ढ़ो बुढ़िया की कहानी ---ये सब भी देश काल और परिवेश के अनुसार ही रची गयीं ,पर इन पे रिसर्च हुई और उनलोगों ने अपनी कहानियों को डिकोड किया। हमारे यहां भी पुराणो की कथाओं को डिकोड करने की आवश्यकता है ,हम जड़मति होके कथा बांच नहीं सकते। क्यूँ ? क्यूँकि आजकी पीढ़ी अंधविश्वास में नहीं जीती ,वो मुखर है ,हमारी तरह कहानी सुनके सोने वाली पीढ़ी नहीं है --गोकि उसके पास तो कहानी सुनने का समय भी नहीं है।
और कुछ नहीं तो हम ,इन कथाओं का आध्यात्मिक ,दार्शनिक ,सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तो कर ही सकते हैं। राजनीति से इतर कुछ सार्थक।---विद्वान मनीषियों को ऊपर जाने से पहले कुछ कहानियों का तो विश्लेषण करना ही चाहिये --ये भी एक पितृ ऋण चुकाने जैसा ही होगा -।

No comments:

Post a Comment