Tuesday, 31 December 2013
Sunday, 29 December 2013
"जाने वाला पल आने वाला है "
"मैं समय हूँ ! चरैवेति -चरैवेति यही है मेरी पहचान | आज वर्ष २०१३ ",तुम्हारे अनुसार" ;मेरी गति में लीन होने को है और २०१४ दहलीज पे दस्तक दे रहा है | सच कहूँ ! मैं तो इस सब से परे सदैव एक सा ही हूँ ,स्वतंत्र होते हुए भी, नियमों के कठोर बन्धनों में बंधा हुआ ,अनुशासित शिशु सा. अपने कर्म को करता हुआ, न कभी आता हूँ न ही कहीं जाता हूँ ! सदैव बस गतिशील रहता हूँ | " यदि मैंने अपने अनुशासन से या बंधन से मुक्त होने की सोची भी तो ब्रह्मांड में उथल-पुथल हो जाएगी | नियम और बन्धनों में रहते हुए कैसे स्वतंत्र रहना है ,ये मैं प्रतिपल मानव को सिखा रहा हूँ |पर आज मानव; प्रकृति -प्रदत्त नियमों और सदियों से चले आ रहे सामाजिक बन्धनों को "अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए" तोड़ने को ही समय की मांग कहता है | सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही कुटुम्ब की परिभाषा ही बदलने लगी है | हमारी सनातन संस्कृति की विरासत है - कुटुम्ब या परिवार .जहाँ प्यार -तकरार मनुहार -वैमनस्य -लड़ाई -झगड़े सबकुछ होते हुए भी- सामाजिक सुरक्षा है | अपनेपन का भाव है | किन्ही परिस्थितियों में जैसे -नाखून के बढने पे उसे काटा तो जा सकता है पर जड़ से नहीं उखाड़ा जा सकता -ये भावना सदैव रहती ही है | मानव आज मर्यादा में बंध कर रहने को अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता हा हनन समझने लगा है पर वो ये नहीं देख पा रहा वो कितनी भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता ले ले रहना उसे समाज में ही है | परिवार में नहीं तो किसी और के साथ | और वहां भी कुछ तो बंधन होंगे ही, जो; संस्कारहीन होंगे जो; अशांति और विक्षेप का कारण होंगे |मैं समय हूँ! मानव को मर्यादा में रहना सिखाता ही रहूँगा चाहे कोई भी काल-परिस्थिति या युग हो क्यूंकि मर्यादा की सीमा रेखा लांघना कभी भी उन्नति का साधन , कारक या कारण नहीं हो सकता | रामायण में समुद्र प्रभू से कहता है _______"प्रभु भल किन्ही मोहि सिख दीन्ही ,मरजादा पुनि तुम्हरी किन्ही || ______________________कि मैं तुम्हें राह देने को सूख नहीं रहा हूँ तो प्रभु ये भी तुम्हारी दी हुई ही मर्यादा है .यदि मैं सूख जाऊं या कहीं और बहने लगूं तो जल थल दोनों में हाहाकार मच जायेगा |
परिवार एक समयातीत सामाजिक संस्था है जिसमे प्रत्येक व्यक्ति साथ रहते हुए भी अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है |मैं समय हूँ ! मैंने सदियों से इस संस्था को अपने आंचल में पल्लवित -पुष्पित होते देखा है |आज भी इस नए कलेंडर वर्ष के समापन में मैं ऐसी ही कामना करता हूँ कि -भटके हुओं को राह मिले क्यूंकि अनुशासन हीन चंचल मन जिन अनुभवों को ग्रहण करता है ,वे अनुभव खंड रूप में होते हैं | इस प्रकार मन बाह्य जगत के अपूर्ण अनुभवों के उत्पादन में ही व्यग्र और व्यस्त रहता है |
समय के साथ कलेंडर के पन्ने पलटते -पलटते कब ३६५ दिन व्यतीत हो गए पता ही नहीं चलता | अब २०१३ " कलैंडर वर्ष "के समापन का फिर से शोर है |अतीत के कार्य -कलापों का स्मरण ,कुछ को पारितोषिक तो कुछ को उपालंभ ,कुछ आहें -कराहें ,तो कहीं वाह -वाही भी | कहीं हरित दुर्बा की दूर तक प्रसारित धरणी तो कहीं काँटों से भरी झाड़ियाँ | और इसी सब में हम करने लगते हैं मूल्यांकन अपने पुराने संकल्पों का वो संकल्प जो पिछले वर्ष की पूर्व संध्या पे लिए थे |कहीं संतोष तो कहीं पछतावा ,साथ ही गढने लगते हैं नए संकल्पों की रूपरेखा और अपने लिए निर्मित करते हैं एक ऊँची कसौटी जो पुन:दूसरे वर्ष के समापन में पछतावे का कारण होगी |
आज प्राणी की सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह जीवन के एक ही पक्ष को विकसित करने में अपनी सारी उर्जा लगादेता है |समत्व नहीं है किसी के भी जीवन में |जो व्यक्ति शारीरिक बल से सम्पन्न हैं वो अध्यात्म को नहीं अपनाना चाहते ,जो प्रतिष्ठित हैं और समाज को दिशा देने की क्षमता रखते हैं वो संवेदनाशून्य हैं |कुछ बुद्धिमान लोग हैं पर वे अस्वस्थ रहते हैं |कुछ ऐसे भी हैं जो अध्यात्मिक और शारीरिक तौर पे विकसित हैं पर व्यवहार शून्य हैं | इस तरह से हम देखते है की आज हमारे चारों ओर सर्वांगीण विकसित मनुष्य नहीं हैं |आज हम जिस युग में निवास करते है वो भौतिक कोलाहल से पूरित अशांत और दिशाहीन है |मानव चेतना को जागृत कर सके , समाज में और देश में चेतना का संचार कर सके ऐसा कोई भी व्यक्ति हमारे आस-पास दिखाई नहीं देता .तो हमारे लिए ये ही अपेक्षित है की हम बीते हुए समय में जा के ,अपने ही सद ग्रंथो को प्रयोगशाला बनाएं और उनसे प्रेरणा लें | नये वर्ष की इस पूर्व संध्या पे एक संकल्प लें कि प्रतिदिन गीता केतीन श्लोक और रामायण के ५ दोहे अवश्य पढ़ेंगे अर्थ सहित , अकेले या परिवार के साथ | हम सभी इस संसार में अर्जुन की भांति सतत युद्ध करते हैं | हमारा युद्ध जीवन की विषमताओं में समता स्थापित करने का होता है |हमारा उद्द्येश्य जीवन की विविधताओं में समत्व स्थापित करना है |और गीता हमें समत्व ही सिखाती है |योग शब्द को गीता ने मन की समता से जोड़ा है |केवल बाहरी क्रियाओं से नहीं मन से भी निष्ठावान बनाती है गीता |"योगस्थ: कुरू कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय |
सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||"
योग में स्थित हुआ, कर्म को कर | गीता का योग कोई हिमालय में करने वाला योग नहीं है ये तो धरातल में रहकर प्रतिदिन के क्रिया -कलापों में करने वाला योग है | एक जागरूक चेतना जो सतत जागरूक है | तब भी जब आप प्रगाढ़ निद्रा में हैं ________सोचिये ! हम गहरी नींद में है ,अचानक कोई आवाज सुनके या अलार्म सुनके जाग गये ----जब हम नींद में थे तो किसने सुनी ये आवाज ? ये हमारी अंत:चेतना ही है जो सतत जागरूक है |उस सतत जागरूक प्रेरणा को धन्यवाद देना हमारा कर्तव्य है ,कुछ क्षण देखें हम उस चेतना को अपने उत्थान के लिए |ये चेतना बिजली की तरह है, जो उर्जा है ,प्रकाश है ,और हमारी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है तो जिसे येन -केन -प्रकारेण अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु हम अपने घर में ले ही आते हैं|हमें बिजली की आवश्यकता है, बिजली को हमारी नहीं ,वो तो है ही अपने अस्तित्व को धारण किये हुए कई रूपों में व्याप्त |वैसे ही ये जागरूक चेतना (परमात्मा) हमारी आवश्यकता है |परमात्मा (चेतन तत्व) तो विराजमान है ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड में |परमात्मा का ध्यान हमारी आवश्यकता है ,भौतिक-आध्यात्मिक और व्यवहारिक तीनो गुणों के समत्व विकास के लिये |आज हम इस समय के इस पल में ये संकल्प लें कि हम कुछ पल अवश्य निकालेंगे परमात्मा के लिए | वो कुछ क्षण ही हमें परमात्मा का लाडला बना देंगे | ये ही तो गीता की दिव्यता है कि वो माँ के सामान है |कुछ पल के साथ में ही वो हमें अपना लेती है और प्रसन्न होकर अपनी दिव्यता से हमें उपकृत करती है ,जैसे बच्चा किसी भी आयु का हो ,माँ को ये पूछ ले की कैसी है ?तो माँ तृप्त हो जाती है |...ऐसे ही गीता की शरण में आने पे आपके सारे योग क्षेम को वहन करने का भार परमात्मा ले लेते है -----------_________-सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज|
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माँ शुच ||
प्रभु कहते हैं तू शोक मत कर ! मैं हूँ न तेरे साथ | तू अपने को पूरी तरह से विसर्जित कर दे |
यह आत्म -परमात्म -सम्मेलन व्यक्ति और समष्टि का योग और जीवन का अन्तिम उद्देश्य है |
मैं समय हूँ ! मैंने गीता के इस समत्व भाव को और वैराग्य दर्शन को अपनी आँखों से देखा है | अत: आज मेरा यह निर्णय है कि व्यक्ति और समष्टि के सम्पूर्ण और सर्वांगीण विकास के लिए गीता का अध्ययन ही एक मात्र साधन है | और यही आश्वासन होना चाहिए हमारा जाते हुए वर्ष को कि तू जो हमे ये नया वर्ष उपहार में दे रहा है इसे हम गीता का उपहार देंगे |____________आभा _____________
"मैं समय हूँ ! चरैवेति -चरैवेति यही है मेरी पहचान | आज वर्ष २०१३ ",तुम्हारे अनुसार" ;मेरी गति में लीन होने को है और २०१४ दहलीज पे दस्तक दे रहा है | सच कहूँ ! मैं तो इस सब से परे सदैव एक सा ही हूँ ,स्वतंत्र होते हुए भी, नियमों के कठोर बन्धनों में बंधा हुआ ,अनुशासित शिशु सा. अपने कर्म को करता हुआ, न कभी आता हूँ न ही कहीं जाता हूँ ! सदैव बस गतिशील रहता हूँ | " यदि मैंने अपने अनुशासन से या बंधन से मुक्त होने की सोची भी तो ब्रह्मांड में उथल-पुथल हो जाएगी | नियम और बन्धनों में रहते हुए कैसे स्वतंत्र रहना है ,ये मैं प्रतिपल मानव को सिखा रहा हूँ |पर आज मानव; प्रकृति -प्रदत्त नियमों और सदियों से चले आ रहे सामाजिक बन्धनों को "अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए" तोड़ने को ही समय की मांग कहता है | सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही कुटुम्ब की परिभाषा ही बदलने लगी है | हमारी सनातन संस्कृति की विरासत है - कुटुम्ब या परिवार .जहाँ प्यार -तकरार मनुहार -वैमनस्य -लड़ाई -झगड़े सबकुछ होते हुए भी- सामाजिक सुरक्षा है | अपनेपन का भाव है | किन्ही परिस्थितियों में जैसे -नाखून के बढने पे उसे काटा तो जा सकता है पर जड़ से नहीं उखाड़ा जा सकता -ये भावना सदैव रहती ही है | मानव आज मर्यादा में बंध कर रहने को अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता हा हनन समझने लगा है पर वो ये नहीं देख पा रहा वो कितनी भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता ले ले रहना उसे समाज में ही है | परिवार में नहीं तो किसी और के साथ | और वहां भी कुछ तो बंधन होंगे ही, जो; संस्कारहीन होंगे जो; अशांति और विक्षेप का कारण होंगे |मैं समय हूँ! मानव को मर्यादा में रहना सिखाता ही रहूँगा चाहे कोई भी काल-परिस्थिति या युग हो क्यूंकि मर्यादा की सीमा रेखा लांघना कभी भी उन्नति का साधन , कारक या कारण नहीं हो सकता | रामायण में समुद्र प्रभू से कहता है _______"प्रभु भल किन्ही मोहि सिख दीन्ही ,मरजादा पुनि तुम्हरी किन्ही || ______________________कि मैं तुम्हें राह देने को सूख नहीं रहा हूँ तो प्रभु ये भी तुम्हारी दी हुई ही मर्यादा है .यदि मैं सूख जाऊं या कहीं और बहने लगूं तो जल थल दोनों में हाहाकार मच जायेगा |
परिवार एक समयातीत सामाजिक संस्था है जिसमे प्रत्येक व्यक्ति साथ रहते हुए भी अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है |मैं समय हूँ ! मैंने सदियों से इस संस्था को अपने आंचल में पल्लवित -पुष्पित होते देखा है |आज भी इस नए कलेंडर वर्ष के समापन में मैं ऐसी ही कामना करता हूँ कि -भटके हुओं को राह मिले क्यूंकि अनुशासन हीन चंचल मन जिन अनुभवों को ग्रहण करता है ,वे अनुभव खंड रूप में होते हैं | इस प्रकार मन बाह्य जगत के अपूर्ण अनुभवों के उत्पादन में ही व्यग्र और व्यस्त रहता है |
समय के साथ कलेंडर के पन्ने पलटते -पलटते कब ३६५ दिन व्यतीत हो गए पता ही नहीं चलता | अब २०१३ " कलैंडर वर्ष "के समापन का फिर से शोर है |अतीत के कार्य -कलापों का स्मरण ,कुछ को पारितोषिक तो कुछ को उपालंभ ,कुछ आहें -कराहें ,तो कहीं वाह -वाही भी | कहीं हरित दुर्बा की दूर तक प्रसारित धरणी तो कहीं काँटों से भरी झाड़ियाँ | और इसी सब में हम करने लगते हैं मूल्यांकन अपने पुराने संकल्पों का वो संकल्प जो पिछले वर्ष की पूर्व संध्या पे लिए थे |कहीं संतोष तो कहीं पछतावा ,साथ ही गढने लगते हैं नए संकल्पों की रूपरेखा और अपने लिए निर्मित करते हैं एक ऊँची कसौटी जो पुन:दूसरे वर्ष के समापन में पछतावे का कारण होगी |
आज प्राणी की सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह जीवन के एक ही पक्ष को विकसित करने में अपनी सारी उर्जा लगादेता है |समत्व नहीं है किसी के भी जीवन में |जो व्यक्ति शारीरिक बल से सम्पन्न हैं वो अध्यात्म को नहीं अपनाना चाहते ,जो प्रतिष्ठित हैं और समाज को दिशा देने की क्षमता रखते हैं वो संवेदनाशून्य हैं |कुछ बुद्धिमान लोग हैं पर वे अस्वस्थ रहते हैं |कुछ ऐसे भी हैं जो अध्यात्मिक और शारीरिक तौर पे विकसित हैं पर व्यवहार शून्य हैं | इस तरह से हम देखते है की आज हमारे चारों ओर सर्वांगीण विकसित मनुष्य नहीं हैं |आज हम जिस युग में निवास करते है वो भौतिक कोलाहल से पूरित अशांत और दिशाहीन है |मानव चेतना को जागृत कर सके , समाज में और देश में चेतना का संचार कर सके ऐसा कोई भी व्यक्ति हमारे आस-पास दिखाई नहीं देता .तो हमारे लिए ये ही अपेक्षित है की हम बीते हुए समय में जा के ,अपने ही सद ग्रंथो को प्रयोगशाला बनाएं और उनसे प्रेरणा लें | नये वर्ष की इस पूर्व संध्या पे एक संकल्प लें कि प्रतिदिन गीता केतीन श्लोक और रामायण के ५ दोहे अवश्य पढ़ेंगे अर्थ सहित , अकेले या परिवार के साथ | हम सभी इस संसार में अर्जुन की भांति सतत युद्ध करते हैं | हमारा युद्ध जीवन की विषमताओं में समता स्थापित करने का होता है |हमारा उद्द्येश्य जीवन की विविधताओं में समत्व स्थापित करना है |और गीता हमें समत्व ही सिखाती है |योग शब्द को गीता ने मन की समता से जोड़ा है |केवल बाहरी क्रियाओं से नहीं मन से भी निष्ठावान बनाती है गीता |"योगस्थ: कुरू कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय |
सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||"
योग में स्थित हुआ, कर्म को कर | गीता का योग कोई हिमालय में करने वाला योग नहीं है ये तो धरातल में रहकर प्रतिदिन के क्रिया -कलापों में करने वाला योग है | एक जागरूक चेतना जो सतत जागरूक है | तब भी जब आप प्रगाढ़ निद्रा में हैं ________सोचिये ! हम गहरी नींद में है ,अचानक कोई आवाज सुनके या अलार्म सुनके जाग गये ----जब हम नींद में थे तो किसने सुनी ये आवाज ? ये हमारी अंत:चेतना ही है जो सतत जागरूक है |उस सतत जागरूक प्रेरणा को धन्यवाद देना हमारा कर्तव्य है ,कुछ क्षण देखें हम उस चेतना को अपने उत्थान के लिए |ये चेतना बिजली की तरह है, जो उर्जा है ,प्रकाश है ,और हमारी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है तो जिसे येन -केन -प्रकारेण अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु हम अपने घर में ले ही आते हैं|हमें बिजली की आवश्यकता है, बिजली को हमारी नहीं ,वो तो है ही अपने अस्तित्व को धारण किये हुए कई रूपों में व्याप्त |वैसे ही ये जागरूक चेतना (परमात्मा) हमारी आवश्यकता है |परमात्मा (चेतन तत्व) तो विराजमान है ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड में |परमात्मा का ध्यान हमारी आवश्यकता है ,भौतिक-आध्यात्मिक और व्यवहारिक तीनो गुणों के समत्व विकास के लिये |आज हम इस समय के इस पल में ये संकल्प लें कि हम कुछ पल अवश्य निकालेंगे परमात्मा के लिए | वो कुछ क्षण ही हमें परमात्मा का लाडला बना देंगे | ये ही तो गीता की दिव्यता है कि वो माँ के सामान है |कुछ पल के साथ में ही वो हमें अपना लेती है और प्रसन्न होकर अपनी दिव्यता से हमें उपकृत करती है ,जैसे बच्चा किसी भी आयु का हो ,माँ को ये पूछ ले की कैसी है ?तो माँ तृप्त हो जाती है |...ऐसे ही गीता की शरण में आने पे आपके सारे योग क्षेम को वहन करने का भार परमात्मा ले लेते है -----------_________-सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज|
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माँ शुच ||
प्रभु कहते हैं तू शोक मत कर ! मैं हूँ न तेरे साथ | तू अपने को पूरी तरह से विसर्जित कर दे |
यह आत्म -परमात्म -सम्मेलन व्यक्ति और समष्टि का योग और जीवन का अन्तिम उद्देश्य है |
मैं समय हूँ ! मैंने गीता के इस समत्व भाव को और वैराग्य दर्शन को अपनी आँखों से देखा है | अत: आज मेरा यह निर्णय है कि व्यक्ति और समष्टि के सम्पूर्ण और सर्वांगीण विकास के लिए गीता का अध्ययन ही एक मात्र साधन है | और यही आश्वासन होना चाहिए हमारा जाते हुए वर्ष को कि तू जो हमे ये नया वर्ष उपहार में दे रहा है इसे हम गीता का उपहार देंगे |____________आभा _____________
Wednesday, 18 December 2013
''दिवस का अवसान समीप था ''
*********************** फुर्सत के कुछ क्षण मिल जाएँ तो दिमाग जिन्दगी का गुणा भाग करने लगता है और भागती दौड़ती जिन्दगी में अंत में अपने को रीता पा के सोचता है कहाँ गलती हो गयी |ऐसे ही फुर्सत के क्षणों में अवसान की अवधारणा |
*************************************
दिवस का अवसान समीप था .गगन था कुछ लोहित हो चला |प्रकृति हमसे प्रतिदिन संवाद करती है , वो कहती है !उदय तो विस्मयकारी .रोमांचक और खूबसूरत होता ही है -अवसान और भी सुहावना और स्नेहिल होना चाहिए | पर कहाँ समझ पाता है इन्सान प्रकृति की इस सीख को जब तक कोई चोट न मिले |
लम्बी राहें,ढेरसी मंजिलें ,मान -सम्मान ,धन ,पद ,प्रतिष्ठा पता नहीं क्या -क्या चाहिए हमें और क्यूँ चाहिए ? सडकों पे भागती दौड़ती जिन्दगी ,वाहनों का जाल, ( आज कल महानगरों में रहने वालों का एक चौथाई समय तो सड़कों और वाहनों में ही गुजरता है )और जीवन जीने की हडबडी में__ जीने की अभिलाषा ,मन मुताबिक़ जीवन जीने की तमन्ना अक्सर हाशिये में लिखे नोट्स की तरह ही हमारे साथ-साथ चलती है जो पहला मौक़ा मिलने पे मछली की तरह सांस लेने ऊपर चली आती है | ऐसे ही लेखनी हाथ में आते ही अक्षरों की बूंदा-बांदी होने लगती है और तमन्नाएं वाक्यों का झरना बन तेजी से बनती बिगड़ती पानी की बूंदों की मानिंद आकार लेने लगती हैं | मन के उद्गारों को कैनवास पे उतारना भी शायद सांस लेने की ही प्रक्रिया है मेरे लिए | घर -परिवार -समाज में जीवन के चंद लम्हें प्रकृति के सानिध्य में ,अपने आपके साथ ,अपने अंतर्मन में उतरने की कोशिश |डूबते सूर्य की रोमांचकारी सुनहली लालिमा और सागर का विस्तार ,अनंत की राह की ओर बढ़ते कदमो को महसूस करने को बाध्य करती है . रात्रि के आगोश में अपनी थकन उतारने जाता सूर्य मानो कहता है अवसान दिवस का हो या जीवन का खूबसूरत और नर्म- नाजुक ही होना चाहिए | जीवन का अवसान ! ये भी तो आत्मा के सांस लेने की ही प्रक्रिया है |जीवन की आपाधापी में आत्मा की बचपन से बड़े होने तक की अनथक यात्रा |जिसमे शायद आज ही स्पष्ट है | यदि भविष्य का ज्ञान हो जाये तो जीवन का स्वरूप क्या होगा इसकी कल्पना भी कठिन है |साथ ही यदि भूत को साथ लेके चलें तो राहकी थकन ही पैरों की जंजीर बन जाए | बंद राहें और मंजिलों की अस्पष्टता ही शायद जीवन को गति देती हैं | वरना तो ; जीवन आज के सिवा कुछ भी नहीं | पिछ्ला कैनवास धुंधला है , विस्तार इतना है कि याद करने के लिए एक समय में एक छोटी सी जगह की धूल साफ़ करके बस उस समय की घटनाओं में ही जा सकते हैं |पिछले पूरे जीवन को एक साथ यादों में जीना कठिन ही नहीं असम्भव भी है |भविष्य के लिए तैयार कैनवास पे आप रेखाएं ही खींच सकते हैं ,उसका स्वरूप तो अविगत ही है |आज बस आज;अब और ये पल ;यही जीता है मनुष्य और इसके लिए कितनी जद्दोजहद ,कितने रिश्ते नाते ,कहीं दोस्ती ,कहीं दुश्मनी | हम जैसे आये थे संसार में उससे अलग कुछ और ही हो जाते हैं |अपनों को खोने के बाद इस संसार की असारता और अवसान की खूबसूरती का भान हुआ है मुझे भी | प्रकृति का ये सन्देशपहुँचने लगा है पूरी शिद्दत से |जो अवचेतन में था वो जागरूक होने लगा है | तब से कोशिश है अपने को पुन: पाने की | ये भी भान हुआ कि इन्सान जीता तो एक जगह में है पर मरने के बाद वह हर परिचित (दोस्त या दुश्मन )के भीतर अपनी जगह बना लेता है ,उसका होना धुंधला पड़ जाता है पर उसका न होना उजला हो जाता है ,अहसासों में बस जाता है वह, मानो पास ही बैठा है यहीं कहीं ,हम सबके साथ ,एक जैसा नहीं पर अलग- अलग सबके मन में उनके ख्यालों के अनुरूप | इन्सान अपनी मृत्यु के बाद दो बार मुक्त होता है --पहली बार अपनों से और दूसरी बार अपने से पर इस मुक्त होने की प्रक्रिया में वो जो यादें छोड़ जाता है वे सदैव के लिए अपनों के स्मृतिपटल पे चित्रित हो जाती हैं | कोशिश है क्यूँ न सबको खूबसूरत यादें दी जाएँ ,ताकि अवसान की बेला में मैं भी डूबते सूरज की इन स्वर्णिम किरणों की मानिंद ही अनंत के इस सागर की लहरों से टकरा कर इतनी ही नर्म नाजुक सुन्दरता से अभिसारित हो अपने प्रभु की शरण में जाऊं | मीरा की तरह निश्छल और धवल ताकि आत्मा को सांस लेने में घुटन न महसूस हो |........................................आभा .......
Monday, 25 November 2013
Shradhanjali....
आराधन को प्रिय तेरे !
हृदय शूल के अक्षत लायी हूँ |
भावों के चंदन से महका कर !
मैं, तुझे सजाने आयी हूँ |
साँसों की डोरी के अगरु जला ,
सुरभित साँसों से महका कर ,
दीप जला स्नेह सुधा का ,
अश्रु जल का तेल डाला |
अभिषेक तेरा अश्रु जल-कण से ही करने आयी हूँ |
प्रिय तेरे आराधन को मैं हृदय शूल के अक्षत लायी हूँ ||
रंग- बिरंगे हंसते- रोते ,
कुछ काँटों और कुछ पराग से ,
चुन-चुन कर स्वप्न सुमन ,
मैं !भावों की क्यारी से लायी हूँ |
दो नयन पुजारी तेरे हैं ,
,देह पुजारन है तेरी |
उस पर करुना का शंख बजा ,
आरत हरण को आई हूँ |
जिन क्षणों में चले गये तुम ,
वे क्षण ही हैं , जीवन धन मेरे |
सुमधुर यादों की माला ही ,
अर्चन वंदन को लायी हूँ |
प्रिय तेरे आराधन को में हृदय शूल के अक्षत लायी हूँ |
भावों के चन्दन से महकाकर मै तुझे सजाने आयीहूँ .||_________________________________आज दो वर्ष हो गये अजय को महाप्रयाण पे गये हुए |एक- एक पल ,एक- एक कल्प के मानिंद बीता |अभी न जाने कितना औरजीना लिखा है |वो स्वर्ण पालकी तो सब को ही चढ़नी है एक दिन पर जो पीछे रह जाता है उसे इसकी तपन के ताउम्र झुलसना पड़ता है | स्थितप्रज्ञ होना तो सब चाहते है," पर " |जीना तो है ही और जीना है तो यादें भी है |२५ नवम्बर वो दिन जब हम दोनों का गठबंधन हुआ| .सेहरे और घूँघट का विस्मयकारी और मंगल वातावरण ____और २५ नवम्बर ही वो दिन जब लूट गये श्रृंगार सभी बाग़ के बबूल से |यही होनी है क्यूंकि अनहोनी तो होती ही नहीं | जाने वाले तू खुश रहे जहाँ भी हो | तू मोक्ष का आग्रही था |दुनिया को बाजीचायेइत्फाल समझता था ;मुझे मालूम है तू हरी चरणों में ही होगा | क्यूंकि बिना राग ,द्वेष ,लालच के व्यक्ति इस संसार में तो विरले ही होते है ,इसी लिए तुझे सब सतयुग का आदमी कहते थे ,और इसी लिए तेरी गोलोक में भी आवश्यकता आन पड़ी | हमारे लिए तुम यहीं हो सदैव हमारे मन मंदिर में ,सदैव हमें सँभालते हुऐ | आसपास तिरती
हवाओं में तुम्हारी खुशबु का अहसास हर पल रहता है | खुश रहो और अपने मन का पद पाओ ईश्वर चरणों में | यादें नहीं कह सकती तुम तो हर पल में ही शामिल हो पर आज जिस पल छोडके गये थे उस एक पल को जज्ब करने की कोशिश में ही जीवन बीत जाएगा श्रधान्जली " अजय " ! ________________आभा ______________
हवाओं में तुम्हारी खुशबु का अहसास हर पल रहता है | खुश रहो और अपने मन का पद पाओ ईश्वर चरणों में | यादें नहीं कह सकती तुम तो हर पल में ही शामिल हो पर आज जिस पल छोडके गये थे उस एक पल को जज्ब करने की कोशिश में ही जीवन बीत जाएगा श्रधान्जली " अजय " ! ________________आभा ______________
Tuesday, 19 November 2013
''मानस केवल राम चरित्र ही नहीं ,व्यक्ति के लिए दर्पण ''
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सुनहु तातअब मानस रोगा |
जिन्ह ते दुःख पावहिंसब लोगा ||
मोह सकल ब्याधिन कर मूला |
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ||
कामबात कफ लोभ अपारा|
क्रोध पित्त नित छाती जारा||
प्रीति करहीं जो तीनों भाई |
उपजहिं सन्यपात दुःख दायी ||
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना |
ते सब सुल नाम को जाना ||
ममता दादू कंडूइरषाई |
हरष विषाद गरह बहुताई ||
पर सुख देखि जरनि सोई छई |
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ||
अहंकार अति दुखद डमरुआ |
दम्भ कपट मन माद नेहरूवा ||
तृष्णा उदर बृद्धि अति भारी|
त्रिबिध ईषना तरुण तिजारी ||
जग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका |
खं लगी कहों कुरोग अनेका ||
मानस के सात पश्नों में (जो गरूडजीने काक भुशुण्डी जी के पूछने पे बताये थे ) मानस रोग सप्तम और अति गंभीर प्रश्न है |यदि हम राम कथा को अपने जीवन से जोड़ना चाहें तो ये उपादेय भी बहुत है |इसी प्रश्न में मानस की सार्थकता छिपी है |इसीलिए मानस का समापन राम चरित्र से न हो कर मानस रोगों से जो किया गया है उसका मुख्य तात्पर्य यही है की हम इस कथा को भूतकाल के एक महान चित्र के रूप में न देख के ,उसके रूप में हम अपने जीवन का दर्पण देखें _____हाँ दर्पण -या शीशा --मन रूपी शीशा ..जहाँ मन का हर रोग पकड़ में आ जाएगा तो उपचार भी सुलभ होगा __________|
रामचरितमानस एक दर्पण है जिसमे व्यक्ति अपनी त्रुटियों और अपूर्णता का अवलोकन कर अपने व्यक्तित्व का समग्र विकास कर सकता है |अन्य ग्रन्थ एक विशेष कालखंड के चरित्रों ,घटनाओं और समाज को प्रतिबिम्बित करते है ,जिस काल की घटना होती है उस काल का चित्र हमारे सम्मुख साकार हो उठता है |ऐसा नहीं है की मानस में चरित्रों का वर्णन नहीं है अपितु इसमें तो राम के साथ उनके भक्तो प्रियजनों ,समाज और उनके विरोधियों का भी ऐसा सांगोपांग विश्लेषण है कि यदि आपके पास सूक्ष्म दृष्टि है तो आपको इसमें चित्रित सूक्ष्म से सूक्ष्म रेखा भी दिखाई दे सकती है | ये सब होने पे भी मेरा मानना है कि रामचरितमानस केवल चित्रकथा या कथा ही नहीं है जिसमे इतिहास को कहते हुए परमात्मा की लीलाओं का वर्णन हो| यह तो एक दर्पण है जो हमारे वर्तमान को प्रतिबिम्बित करता है |चित्र और चित्रकथाएं तो हर घर में अलग -अलग हो सकती है या न भी हो सकती हैं ,पर दर्पण !शायद ही कोई घर ऐसा हो जहाँ दर्पण या शीशा न हो |इसीलिए मानस का समापन ,मानस रोगों से किया गया है ताकि हम उसमें अपने भूतकाल को ही न देखें अपितु उसके रूप में अपने जीवन का दर्पण पा लें | जिसके माध्यम से हम सही रूप में अपने को देख सकें |हम त्रेता युग के व्यक्तियों में अपना और आसपास के व्यक्ति का चरित्र पढ़ सकें | तो रामकथा लिखने से पहले गोस्वामीजी गुरु से प्रार्थना कर रहे हैं___________
_गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन |
नयन अमिय दृग दोष विभंजन ||
_तेही करी बिमल बिबेक बिलोचन
|बरनऊं राम चरित भव मोचन ||
कि आप मेरे नेत्रों का दोष दूर करें क्यूंकि अभी तो मैं आसपास के चरित्रों को ही ठीक से नहीं देख पा रहा हूँ तो त्रेता युग में हुए भगवान के चरित्र को कैसे देखूंगा | गुरु के चरणों की धूल को उन्होंने अंजन की उपमा दी है जो दृष्टि दोष दूर करता है और निर्दोष दृष्टि देता है |अर्थात गुरु की कृपा से विवेक पूर्ण उज्ज्वल दृष्टि मिले जिससे त्रेता युग मेंश्री राम के चरित्र को आज के परिप्रेक्ष्य में ही देख सकें .|पर जब अयोध्याकांड लिखना शुरू करते हैं तो पुन: गुरु की चरण रज चाहते हैं ,अब! जब पहले ही बालकाण्ड में स्वीकार कर लिया किप्रभु चरित्र दिखाई दे रहा है तो फिर से क्यूँ चरण रज चाहिए ?तो उत्तर है अभी तो केवल श्री राम दिखाई देते हैं परअब जो चरण रज मिलेगी उससे अपने मन के दर्पण को साफ़ करके मैं रघुनाथजी के विमल यश का वर्णन करना चाहता हूँ |
श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि |
बरनऊँरघुवर विमलजसु जो दायक फल चारी ||
तात्पर्य ये है की गुरु से पहले प्रभु को देखने की दृष्टि मिली थी पर दर्पण नहीं मिला था जिसमे, हम भी -श्री राम को अपने साथ देख सकें | जब तक हम रामजी के साथ न होंगे सही अर्थों में श्री राम को देखने की सार्थकता नहीं होगी | इस प्रकार गोस्वामीजी एक गूढ़ संदेश दे रहे हैं| वे विवेक की तुलना दृष्टि से करते हैं और दर्पण की मन से |रामचरित्र मानस में जो ये ''मानस'' जुड़ाहै ये मन ही है , यदि मन रूपी दर्पण स्वच्छ होगा और दृष्टि परिष्कृत होगी तो ही रामजी का चरित्र सार्थक होगा |ये एक विलक्षणसंकेत है गोस्वामीजी का
दशरथ पुत्र जन्म सुनी काना |
मानहु ब्रह्मानन्द समाना ||
परमानन्द पूरी मन राजा |
कहाबोलाईबजावहु बाजा ||
दशरथजी ने राम को पुत्र रूप में पा लिया है |वो ब्रह्मानन्द में समागये हैं |अब प्रभु को पाने से भी अधिक क्या कोई आनन्द है जो वो आनन्दके लिए बाजा बजाने को कह रहे हैं हाँ वे इस अनुभूति को सब के साथ बांटना चाहते हैं|वैसे तो प्रभु सबको ही प्राप्त हैं पर विरले ही होते हैं जिनको इसका भान हो पाता है ,सो राजा इस अनुभूति को बाँटना चाहते हैं |बालकाण्ड में दशरथजी केवल राम को ही देखते हैं पर अयोध्या कांड में जब गोस्वामी जी गुरु से दर्पण मांग रहे हैं तो देखिये ______________
त्रिभुवन तीन काल जग माहि |
भूरी भाग दशरथ सम नाही||
मंगल मूल मय राम सुत जासु |
सो कछु कहियथोर सबु तासु ||
दशरथ से भाग्यवान तीनोलोकों में कोई नहीं है और उस पर राम जैसा पुत्र |ये सब सुन के तो राजा को फूलजाना चाहिए पर नहीं वो अपने लिए दर्पण मंगवाते हैं और उसमें अपना चेहरा देखते हैं ____________
रायँ सुभाय मुकुर कर लीन्हा|
बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा ||
यहाँ पे तुलसी का गुरु से दर्पण मांगने का अभिप्राय समझ आता है | श्री राम तो पूर्ण हैं ,समग्र हैं ,पर मात्र उनकी पूर्णता को देख कर और उनके संग रह के हममें भी पूर्णता नहीं आ जाएगी |इसकेलिए हमे अपने मन मुकुर को स्वच्छ रखके रामजी जैसा बनने का प्रयास करना पड़ेगा | ऐसे ही ,जैसे किसी गरीब की गरीबी किसी धनी व्यक्ति की प्रशंसा करने से या उसके निकट रहने से दूर नहीं होतीउसके लिए प्रयास करना पड़ता है |
और दर्पण है भी बड़ी अनोखी वस्तु |ये प्रिय और झगड़ालू दोनों एक साथ है | जब कोई व्यक्ति दर्पण देखता है तो उसे प्रसन्नता होती है और अपने दोष भी दिखाई देते हैं जिन्हें वो दूर करने का भरसक प्रयत्न करता है ताकि सुन्दरता बनी रहे यानी दर्पण देखने का अर्थ हुआ अपनी आँखों से अपनी कमी देखना और विवेकी दृष्टि से उसे दूर करना |पर यदि कोई दूसरा हमें कह दे ___जा शीशे में मुहं देख के आ ! तो हम क्षुब्ध हो जाते हैं |तो मानस को स्वच्छ व् निर्मल रखने को और रामचरित्र से अपने जीवन को सार्थक करने के लिए गोस्वामीजी ने मानस को ही दर्पण बना दिया है |एक ऐसा ग्रन्थ जो जीवन में भगवदता लाता है और सदैव प्रभु का सानिध्य प्रदान करके मनोमालिन्य ,भय ,जड़ता को दूर कर चेतना और जागृती का संचार करता है |...और भी कई उदाहरणों से जैसे अहिल्या उद्धार ,त्रिजटा मरण ,शुरपनखा ,सीता हरण ,जटायू ,शबरी ,बलि सुग्रीव इत्यादि से मानस रोगों को विस्तार से बताया गया है रामचरित मानस में बस आवश्यकता है श्रद्धा और सूक्ष्म दृष्टि की जो रामजी के समीप जाने के निर्णय मात्र से ही आजाती है -----------रामजी कल्याण करें _____________________________आभा ____________________
Sunday, 17 November 2013
''काना - फूसी करते अँधेरे ''
___________________
रोशनी - खुशियों की आहटों को ,
टीन की दीवारों फटी धोती के पर्दों के पीछे ,
कान लगा के सुनते अँधेरे |
सामने बनते मल्टीप्लैक्स का बिखरा मलबा ,
कई मंजिल इमारतों को बनाते -बनाते ,
खुद ही ईंट -गारा -पत्थर बन गये ये लोग |
रेत की ढूह पे खेलते बच्चे इनके ,
बारिश के पानी से भरे गड्ढे हैं ,
स्विमिंग पूल जिनके |
मजदूरी पे गये माँ बाप ,छोड़ गये हैं पीछे ये आवारा बच्चे ,
रुको ! क्यूँ कहें आवारा इनको ?
समय बिताने का है कोई सामा इनके पास !
न इनका स्कूल ,न इनका क्रेच ,न पार्क न खिलौने ,
बड़े -बड़े मकान ,सडकें ,पुल बनाते इनके माँ बाप ,
बस ! जुटा पाते हैं दो जून की रोटी ,तन ढकने को कपड़ा |
सीमेंट में रेतऔर घटिया सरिया लगाता ठेकेदार ,
बड़ी गाड़ी में आता है -बड़ी सी तोंद लिए |
बनवा दिए हैं टिन-शेड लेबर के लिये,
न रसोई न बाथरूम न शौचालय ,
ये नहीं हैं इंसान मालिक की नजर में ,
होते है ये भी सामान मकान बनाने का |
क्यूँ पढ़ाया जाय इनके बच्चों को ?
क्यूँ सोचा जाय इन सब के लिए ?
पढने लगे और साफ रहने लगे तो ,
सोचेंगे अपने और परिवेश के बारे में |
चेतना जागेगी ,समझेंगे इन्सान अपनेको ,
महसूस करेंगे दिल का धड़कना |
प्यार होने लगेगा अपने से ,अपने परिवेश से ,
और अपने बच्चों के भविष्य से |
फिर ! फिर ,मकान कौन बनाएगा ,
बिल्डर क्या करेगा ? कहाँ जायेगा ?
और जो इनमे सोचने की शक्ति आ गयी तो !
इनका भी जमीर जाग गया तो !
ये अल्लम-गल्लम ,भ्रष्टाचार को,
महसूस करने लगे तो !
तो क्या इन्कलाब ही न आ जाएगा |
एक हल्की सी जिन्दगी की सुगबुगाहट ,
एक धीमी सी रेख रोशनी की ,
पर्दे के पीछे से सुन देख लेते हैं अंधेरे इस बस्ती में ,
और दौड़ के जाते है चुगली करने साहब से ,
फिर रची जाती हैं साजिशें ,
पहले डराया -धमकाया जाता है ,
न माने तो सौगातों के नाम पे भीख बांटी जाती है ,
और फिर भी बात न बनी तो ! तो फिर क्या ?
आ जायेगी एक नयी लेबर >>
गरीबों की कमी थोड़े ही है ;
दो जून की रोटी और सर पे छत तो चाहिए ही |
जहाँ भी जायेंगे ये ही मिलेगा ,
फिर ! यहाँ ही अच्छे है ,टिके तो है |
अंधेरों की साजिशें यूँ ही चली हैं ,
यूँ ही चलेंगी ! ये बस्ती यूँ ही गुलजार रहेगी ,
विकास और समाज को चिढाती हुई |................आभा
___________________
रोशनी - खुशियों की आहटों को ,
टीन की दीवारों फटी धोती के पर्दों के पीछे ,
कान लगा के सुनते अँधेरे |
सामने बनते मल्टीप्लैक्स का बिखरा मलबा ,
कई मंजिल इमारतों को बनाते -बनाते ,
खुद ही ईंट -गारा -पत्थर बन गये ये लोग |
रेत की ढूह पे खेलते बच्चे इनके ,
बारिश के पानी से भरे गड्ढे हैं ,
स्विमिंग पूल जिनके |
मजदूरी पे गये माँ बाप ,छोड़ गये हैं पीछे ये आवारा बच्चे ,
रुको ! क्यूँ कहें आवारा इनको ?
समय बिताने का है कोई सामा इनके पास !
न इनका स्कूल ,न इनका क्रेच ,न पार्क न खिलौने ,
बड़े -बड़े मकान ,सडकें ,पुल बनाते इनके माँ बाप ,
बस ! जुटा पाते हैं दो जून की रोटी ,तन ढकने को कपड़ा |
सीमेंट में रेतऔर घटिया सरिया लगाता ठेकेदार ,
बड़ी गाड़ी में आता है -बड़ी सी तोंद लिए |
बनवा दिए हैं टिन-शेड लेबर के लिये,
न रसोई न बाथरूम न शौचालय ,
ये नहीं हैं इंसान मालिक की नजर में ,
होते है ये भी सामान मकान बनाने का |
क्यूँ पढ़ाया जाय इनके बच्चों को ?
क्यूँ सोचा जाय इन सब के लिए ?
पढने लगे और साफ रहने लगे तो ,
सोचेंगे अपने और परिवेश के बारे में |
चेतना जागेगी ,समझेंगे इन्सान अपनेको ,
महसूस करेंगे दिल का धड़कना |
प्यार होने लगेगा अपने से ,अपने परिवेश से ,
और अपने बच्चों के भविष्य से |
फिर ! फिर ,मकान कौन बनाएगा ,
बिल्डर क्या करेगा ? कहाँ जायेगा ?
और जो इनमे सोचने की शक्ति आ गयी तो !
इनका भी जमीर जाग गया तो !
ये अल्लम-गल्लम ,भ्रष्टाचार को,
महसूस करने लगे तो !
तो क्या इन्कलाब ही न आ जाएगा |
एक हल्की सी जिन्दगी की सुगबुगाहट ,
एक धीमी सी रेख रोशनी की ,
पर्दे के पीछे से सुन देख लेते हैं अंधेरे इस बस्ती में ,
और दौड़ के जाते है चुगली करने साहब से ,
फिर रची जाती हैं साजिशें ,
पहले डराया -धमकाया जाता है ,
न माने तो सौगातों के नाम पे भीख बांटी जाती है ,
और फिर भी बात न बनी तो ! तो फिर क्या ?
आ जायेगी एक नयी लेबर >>
गरीबों की कमी थोड़े ही है ;
दो जून की रोटी और सर पे छत तो चाहिए ही |
जहाँ भी जायेंगे ये ही मिलेगा ,
फिर ! यहाँ ही अच्छे है ,टिके तो है |
अंधेरों की साजिशें यूँ ही चली हैं ,
यूँ ही चलेंगी ! ये बस्ती यूँ ही गुलजार रहेगी ,
विकास और समाज को चिढाती हुई |................आभा
Monday, 11 November 2013
'' हाशिये -चेतना का वर्तुल ''
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[बैठे ठाले की फ़ालतू गिरी ]
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पन्नों पे हाशिये खींचने की परम्परा निभाते -निभाते जिन्दगी कब हाशिये पे आ गयी पता ही न चला | बीतते वक्त के साथ - मैं स्वयं भी एक हाशिया ही तो हो गयी हूँ शायद | हाशिये !पन्ने के किनारे के वो खाली स्थान क्या केवल प्रश्न -उत्तर ,या अंक १,२,३,४लिखने के लिए ही होते है ? मेरे लिए तो हाशिये बहुत मायने रखते हैं |कुछ भी पढ़ते लिखते मेरे हाशिये तो अक्षरों की बूंदाबांदी से भर जाते हैं |कुछ नया अर्थ समझ आया , कोई शब्द नया जोड़ के देखना है कि कृति क्या रूप लेती है ,कोई नया विचार आया, हाशिये हाजिर हैं ;मेरे जीवन के हाशिये भी कभी खाली नहीं रहे| देखा जाय तो पन्नों से अधिक महत्वपूर्ण हैं ये हाशिये |अर्थ नया- पुराना ,आलोचना- विवेचना ,जोड़ना -घटाना ,गुणा-भाग या सोते हुए अचानक कोई विचार कौंधना सब कुछ हाशियों पे ही लिखा जाता है | मन का द्वंद! अक्सर इन हाशियों पे ही उकेरती हूँ, जिसे, कभी -कभी मूल रचना से रबर लगा के हटा दिया जाता है |मेरे जीवन में हाशिये अक्सर साथ साथ ही चलते हैं मैदानी इलाके में एक किनारे पे बहती नदी की मानिंद या पहाड़ की तलहटी पे बसे शहर के एक ओरबहती नदी की मानिंद जो ऐसे ही बह रही है , शहर को जल दे रही है | पेड़ों की जड़ों को अपने आप ही पानी मिल जाता है ,कितने फूल खिलते हैं ,कितने झाड़ों को पानी मिलता है ,जब तक नदी सागर तक न पहुंचे उसे फुर्सत ही नहीं है | जीवन को जीवन देती नदी के जैसे ही हाशिये भी मनुष्य जीवन के लिए प्राण वायु सदृश्य ही है | मेन- स्ट्रीम से अलग -थलग थोड़ा कम भीड़ -भाड़ वाली जगह ;जो आसानी से दिखाई दे साफ़ -सुथरी और सुघड़ हो | उसके सुथरेपन से रचना की भव्यता का भान हो और हम जैसों को मन की बात लिखने को कहीं और न जाना पड़े | ठीक सड़क के साथ चलते फुटपाथ या सर्विस लेन की मानिंद |जहाँ वृक्षों की पांत और फूल होते हैं शहर की खूबसूरती बयां करते हुए से और कभी कभी रेड -लाईट या जाम से बचने की सुविधा भी देते हैं ,ठीक वैसे ही जैसे बहुत समय पश्चात किसी रचना को पढने की इच्छा होने पे ,जिस कालखंड में लिखी गयी है उसकी मनोदशा जानने के लिए हाशिये पे लिखी इबारत सहायक होती है | किसी भी रचना को पढ़ते हुए विचारों का मजमा लगा सकते हैं हाशियों पे ,सर्विस -लेन में खड़ी तरतीब या बेतरतीब खड़े वाहनों की तरह | हाशिये पे दिखाई देते हैं देश के दूर दराज के गाँव ,कस्बे ,जो इतनी बड़ी आबादी के लिए अन्न उगाते हैं |जहाँ वास करती है देश की आत्मा| उसे पढ़ लिया तो देश का स्वरूप समझने में आसानी होगी | हाशिये पे हैं देश के खेत खलिहान ,पशुधन ,जल जमीन जंगल जो जीवन को शुद्ध हवा और पानी देते है ,जो देश की जीवन धारा हैं ,हाशिये पे हैं देश के जवान ,जो देश के रक्षक हैं ,हाशिये पे है देश के पहाड़ जो दरक रहे हैं और अपनी आत्मा को पढने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं | हाशिये पे हैं हमारे बुजुर्ग जो अपने चेहरे की लकीरों में जीवन भर का अनुभव समेटे बैठे हैं ||
मेरे लिए तो हाशिये पे उकेरे अक्षर उन वृक्षों की टहनियों की तरह हैं जिन के शीर्ष पे सुगन्धित पुष्प -गुच्छ खिल रहे हैं |क्षण -क्षण बदलती प्रकृति के परिवेश और उससे प्रभावित मन:स्थितियों में --कृतियों का परायण करते समय रचना भी अपना रूप रंग बदलने लगती है |जब भी किसी पुरानी कृति से स्नेह लेने का मन हो तो उस पन्ने को खोलने पे हाशियों पे हलचल सी होने लगती है |और समय के अनुरूप एक नया अर्थ ,नया विचार पुन: हाशिये पे उकेर दिया जाता है | ऐसे ही जन्म हो जाता है नई रचना का |इन्सान का आत्म -बिम्ब_______ दूसरों की निगाहों में वो कैसा है ,कैसा दिखना चाहिए ,जैसा है वैसा ही रहे या कुछ और अच्छा बनने की कोशिश करे _________में ही उलझा रहता है |ऐसे में हाशिये पे लिखी इबारत ही सच्चाई बखान करती है और रास्ता दिखाती है |
ये हाशिये जीवन के, बहुत अनमोल हैं , पर अनदेखे और अनसुलझे ही रहते हैं | हाशियों पे लिखते -लिखते कब जीवन हाशिये पे आ लगा भान ही न हुआ |कितनी मधुर यादें ,सुख दुःख ,मान अपमान अभिमान ,अपने पराये , दोस्त दुश्मन ,अप्रतिम पल .असंख्यों लोग ,सहस्त्रों रिश्ते नाते ,क्या कुछ नहीं है इन हाशियों में |जीवन का खजाना है यहाँ | बस एक छोटे सी जगह के अहसास को चुराने की देर है वो समय ज्यूँ का त्यूं सामने आ खड़ा होता है |कृति तो पूर्ण होने के पश्चात जड़ हो जाती है पर हाशिये वो हैं जहाँ सदैव चेतना का वर्तुल घूमता रहता है | जब चाहे सुधार कर लो | एक ही पन्ने पे जड़ चेतन एक साथ | जड़ को पूरा पन्ना मिला ,पूरे जीवन की मानिंद और चेतन को मिले हाशिये ,अंगुष्ठ बराबर आत्मा ____________आभा
[ हाशिये]
_______________________________________
..... बैठे ठाले का फितूर ....
____________________
पन्नों में हाशिये खींचने की परम्परा निभाते हुए जिन्दगी कब हाशिये पे आ लगी अहसास ही न हुआ |या यूँ कहूँ बीतते वक्त के साथ मैं ही खुद एक हाशिया बन गयी |क्या हाशिये सही में किनारे पर खिंची रेखा के उस और वाली खाली जगह ही होते है,जहाँ हम प्रश्न -उत्तर ,या १-२-३-४ ही लिख सकते हैं
_______________________________________
..... बैठे ठाले का फितूर ....
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पन्नों में हाशिये खींचने की परम्परा निभाते हुए जिन्दगी कब हाशिये पे आ लगी अहसास ही न हुआ |या यूँ कहूँ बीतते वक्त के साथ मैं ही खुद एक हाशिया बन गयी |क्या हाशिये सही में किनारे पर खिंची रेखा के उस और वाली खाली जगह ही होते है,जहाँ हम प्रश्न -उत्तर ,या १-२-३-४ ही लिख सकते हैं
Sunday, 3 November 2013
गोवर्धन पूजा --------------------गोधन ,और पर्वत की महत्ता और स्थापित करने का पर्व .............
ब्रज में आंधी- तूफान- बिजली- मुसलाधार बारिश ,त्राहि ,त्राहि ,नदियों में बाढ़ ,शहर के डूबने का ख़तरा --''स्थूणास्थूला वर्षधाराम्न्चत्स्व भ्रेश्व भीक्ष्णश:|जलौघे: प्लाव्यमाना भूर्नादृश्यत नतोन्न्तम ||'' एक तरह से कई बादल एक साथ फटने की त्रासदी ,तूफ़ान और जल प्रलय , आज की केदारनाथ की जल प्रलय और फेलिन जैसे हालत एक साथ ...
इस परीस्थिति में आज भी जब सरकारें नाकारा साबित हो रही हैं ,कृष्ण ने इंसान तो क्या एक जानवर की भी क्षति न होने दी . क्या मनेजमेंट रहा होगा |-------------- पर्वत- नदी -तालाब- गोधन के संरक्षण का पर्व गोवर्धन ----कान्हा की इसी लीला को समर्पित है |गोवर्धन पूजा प्रकृति के संरक्षण के व्रत लेने का पर्व है | सामाजिक समरसता ,परस्पर विश्वास ,धैर्य और संसाधनों के उचित प्रबन्धन से ''सर्वे भवन्तु सुखिन:.सर्वे सन्तु निरामया ''की व्यवस्था स्थापित करने का पर्व है . कर्म की प्रधानता का पर्व है .सदियों से चली आ रही रूढीवादी वादी परम्पराओं को तोड़ने का पर्व है .अंधविश्वास और डर के साए में जी रही प्रजा से कृष्ण कहते हैं --''-जब हम सब प्राणी अपने -अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं तो हमें इंद्र की क्या आवश्यकता ---जब देवता पूर्वसंस्कारों के कारण प्राप्त होने वाले कर्मों के फलों को बदल ही नहीं सकते तो उनके यजन का क्या फायदा , उचित तो यही होगा की हम इस जन्म के कर्मों को सुधारें और दूसरे जन्म को सरल और सुगम बनाएं ''----"किमिइन्द्रेणही भूतानं स्वस्वकर्मानुवर्तिताम.अनीशेनान ्यथा कर्तुं स्वभावविहितं न्रिणाम "| |
दीपावलीहिन्दू धर्म का सबसे बड़ा और महत्व पूर्ण पर्व है..रामजी के वनवास की अवधि के समापन, घर वापसी और राज्याभिषेक के हर्षोल्लास के साथ ही, कान्हा की प्रबन्धन क्षमता और समाजसुधारकहोने कीप्रामाणिकता का भी पर्व है ----ये करवाचौथ में पति-पत्नी के परस्पर प्यार और समर्पण से प्रारम्भ हो कर संतान की शुभकामना होई अष्टमी ,धन तेरस में मिट्टी के दीये मिट्टी की हटड़ीऔर खिलौने से कुम्हार की शुभेच्छा ,खील बताशे से किसान की नई फसल के लिए शुभकामना ,उपहार वितरण की परम्परा से वनिक वर्ग के लिए शुभकामनाएं ,गोवर्धन में समाज और प्रकृति को सहेजने की कोशिश ,और अंत में भाई बहनके प्यार का पर्व भाई दूज , समाज के सभी वर्गो के लिए शुभेच्छा और उत्साह .. दीपावली हमारे संस्कारों में ही समाहित है .ये रामजी के वन से घर आने और राज्याभिषेक का पर्व तो है ही ,समाज को एक सूत्र में जोड़ने का भी पर्व है अन्य किसी भी धर्म या संस्कृति में , सब को अपने में समाहित करने वाला-जो अपने स्वरूप में ही अनंत का विस्तार लिए हुए ,ऐसा पर्व शायद नही है ,इसीलिए दीपावली हर धर्म और संस्कृति के लोगों को आकर्षित करती है ---- गोवर्धन पूजा का पर्व समाज से भ्रष्टाचार और शासन की दम्भी प्रकृति को समाप्त करे ये ही शुभेच्छा है -----सभी के ऊपर कान्हा की कृपा हो ,रामजी का प्यार बरसे - आभा.
ब्रज में आंधी- तूफान- बिजली- मुसलाधार बारिश ,त्राहि ,त्राहि ,नदियों में बाढ़ ,शहर के डूबने का ख़तरा --''स्थूणास्थूला वर्षधाराम्न्चत्स्व भ्रेश्व भीक्ष्णश:|जलौघे: प्लाव्यमाना भूर्नादृश्यत नतोन्न्तम ||'' एक तरह से कई बादल एक साथ फटने की त्रासदी ,तूफ़ान और जल प्रलय , आज की केदारनाथ की जल प्रलय और फेलिन जैसे हालत एक साथ ...
इस परीस्थिति में आज भी जब सरकारें नाकारा साबित हो रही हैं ,कृष्ण ने इंसान तो क्या एक जानवर की भी क्षति न होने दी . क्या मनेजमेंट रहा होगा |-------------- पर्वत- नदी -तालाब- गोधन के संरक्षण का पर्व गोवर्धन ----कान्हा की इसी लीला को समर्पित है |गोवर्धन पूजा प्रकृति के संरक्षण के व्रत लेने का पर्व है | सामाजिक समरसता ,परस्पर विश्वास ,धैर्य और संसाधनों के उचित प्रबन्धन से ''सर्वे भवन्तु सुखिन:.सर्वे सन्तु निरामया ''की व्यवस्था स्थापित करने का पर्व है . कर्म की प्रधानता का पर्व है .सदियों से चली आ रही रूढीवादी वादी परम्पराओं को तोड़ने का पर्व है .अंधविश्वास और डर के साए में जी रही प्रजा से कृष्ण कहते हैं --''-जब हम सब प्राणी अपने -अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं तो हमें इंद्र की क्या आवश्यकता ---जब देवता पूर्वसंस्कारों के कारण प्राप्त होने वाले कर्मों के फलों को बदल ही नहीं सकते तो उनके यजन का क्या फायदा , उचित तो यही होगा की हम इस जन्म के कर्मों को सुधारें और दूसरे जन्म को सरल और सुगम बनाएं ''----"किमिइन्द्रेणही भूतानं स्वस्वकर्मानुवर्तिताम.अनीशेनान
दीपावलीहिन्दू धर्म का सबसे बड़ा और महत्व पूर्ण पर्व है..रामजी के वनवास की अवधि के समापन, घर वापसी और राज्याभिषेक के हर्षोल्लास के साथ ही, कान्हा की प्रबन्धन क्षमता और समाजसुधारकहोने कीप्रामाणिकता का भी पर्व है ----ये करवाचौथ में पति-पत्नी के परस्पर प्यार और समर्पण से प्रारम्भ हो कर संतान की शुभकामना होई अष्टमी ,धन तेरस में मिट्टी के दीये मिट्टी की हटड़ीऔर खिलौने से कुम्हार की शुभेच्छा ,खील बताशे से किसान की नई फसल के लिए शुभकामना ,उपहार वितरण की परम्परा से वनिक वर्ग के लिए शुभकामनाएं ,गोवर्धन में समाज और प्रकृति को सहेजने की कोशिश ,और अंत में भाई बहनके प्यार का पर्व भाई दूज , समाज के सभी वर्गो के लिए शुभेच्छा और उत्साह .. दीपावली हमारे संस्कारों में ही समाहित है .ये रामजी के वन से घर आने और राज्याभिषेक का पर्व तो है ही ,समाज को एक सूत्र में जोड़ने का भी पर्व है अन्य किसी भी धर्म या संस्कृति में , सब को अपने में समाहित करने वाला-जो अपने स्वरूप में ही अनंत का विस्तार लिए हुए ,ऐसा पर्व शायद नही है ,इसीलिए दीपावली हर धर्म और संस्कृति के लोगों को आकर्षित करती है ---- गोवर्धन पूजा का पर्व समाज से भ्रष्टाचार और शासन की दम्भी प्रकृति को समाप्त करे ये ही शुभेच्छा है -----सभी के ऊपर कान्हा की कृपा हो ,रामजी का प्यार बरसे - आभा.
Saturday, 12 October 2013
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विजयादशमी मेला ,विजय पर्व |देवी द्वारा दस भयंकर दैत्यों यथा -मधु-कैटभ ,महिषासुर ,चंड -मुंड ,रक्तबीज ,धूम्रलोचन ,चिक्षुर,और शुम्भ -निशुम्भ के साथ अन्य सैकड़ों असुरो से धरा को भय मुक्त करने के उपलक्ष में देवी के विजय स्तवन का पर्व | मर्यादा पुरुषोतम श्री राम की दशानन रावण पे विजय , असुरों का संहार ,सीता -राम का मिलन , और वनवास की अवधि समाप्त होने पे राजा राम के राज्याभिषेक की तैयारियों के लिए व्यस्त होने का पर्व |.हवाओं में उत्साह तिर रहा है |ऊर्जा का अजस्त्र प्रवाह बह रहा है जगह -जगह |एक पखवाड़े से कई स्थानों पे मंचित होने वाली रामलीलाओं के समापन का पर्व भी है दशहरा | रामलीलायें जो हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक हैं और सदियों से हमारी पीढ़ियों को रामचरित की भक्ति गंगा में अवगाहन करवा रही हैं |
यह जग विदित है की रावण परम शिव-भक्त ,महा तपस्वी ,तन्त्र -मन्त्र का ज्ञाता था | मानस में बालकाण्ड से ही राम के साथ -साथ रावण का भी नाम आ जाता है -
''-द्वार पाल हरी के प्रिय दोउ ,जय अरु विजय जान सब कोऊ''
इन दोनों को ही सनकादिक मुनि के शाप के कारण तीन कल्पों में राक्षस बनना पड़ा और हर कल्प में प्रभु ने इनका उद्धार करने को अवतार लिया | रावण और कुम्भकर्ण के रूप में इन्होने त्रेता युग में जन्म लिया | सीता साक्षात् श्रीजी हैं जिन्हें रावणसंहिता में उसने अपनी ईष्टदेवी बताया है | पर राक्षसी बुद्धि के कारण प्रभु से बैर लेना पड़ा -अरन्यकांड में इसका प्रमाण मिलता है जब खर -दूषणके मरण पे रावण सोच रहा है -
खर दूषण मोहि सम बलवन्ता | तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ||
सुर रंजन भंजन महि भारा | जौ भगवंत लीन्ह अवतारा ||
तौं मैं जाई बैरु हठी करऊं | प्रभु सर बान तजें भव तरहूँ ||
होइहिं भजन न तामस देहा |मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ||
सो स्पष्ट है की अपने और अपनी राक्षस जाति के उद्धार हेतु ही रावण ने प्रभु से बैर लिया | और सबसे निकृष्ट कोटि का कार्य किया जिसकी सजा मृत्यु ही थी | रावण के हृदय में श्रीजी का वास है ये लंका कांड के इस दोहे से प्रमाण होता है -
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी |उर सर लागत मरही सुरारी ||
प्रभु तातें उर हतइ न तेही|एहि के हृदय बसत वैदेही ||
क्या कोई व्यभिचारी किसी स्त्री को इस तरह हृदय में धारण कर सकता है कि अपनी मृत्यु को सामने देख भी उसके ध्यान से विचलित न हो ,कदापि नहीं | सो रामायण में तुलसी ने इस बात का सत्यापन किया है कि सीताहरण में रावण का हेतु अपने और अपनी जाति के उद्धार का था | रामचन्द्रजी ने भी सभी राक्षसों को मुक्ति दी और परमपद दिया वो पद जो देवताओं को भी दुर्लभ है | इसका भी प्रमाण गोस्वामीजी देते हैं लंकाकांड में --युद्ध समाप्ति के पश्चात जब इंद्र प्रभु से प्रार्थना कर रहा है की उसे भी कोई काम दें तो प्रभु कहते हैं की सब वानर, रीछ और सेना के लोगों पर अमृत वर्षा करो क्यूंकि उन्होंने मेरे हेतु प्राण त्यागे हैं राक्षसों को मैंने अपनी शरण में लेलिया है और मोक्षदे दिया है-
सुधा वृष्टि भै दुहु दल ऊपर |जिए भालू कपि नहीं रजनीचर | |
रामाकार भये तिन्ह के मन | मुक्त भये छूटे भव बंधन ||
आज हम रावण का पुतला जला के खुश होलेते हैं की हमने बुराई पे विजय प्राप्त करली |
पहले रावण मरण के साथ -साथ रामलीला का समापन मंच पे ही हो जाता था और दूसरे दिन राज्याभिषेक हो जाता था | पर अब रावण का पुतला किसी बड़े मैदान में फूंका जाता है | बड़ी -बड़ी शख्शियत ,नेता और उद्योगपतियों के हाथों से करवाया जाता है शर संधान ,बड़े गर्व के साथ अग्निबाण छोड़े जाते हैं भ्रष्टाचारी ,चोर लुटेरों ,बहुरूपियों और दुराचारियों द्वारा बुराई के मर जाने का उद्घोष होता है | जाहिर है उपभोगतावाद और बाजारवाद हावी हो गया है पर्व में | और ये अपना रूतबा दिखने का भी जरिया बन गया है |जो कलाकार पूरी रामलीला में राम के चरित को साकार करता हुआ लोगों को रोने हंसने और आनन्दित करने का कार्य करता है ,उससे पुतला दहन न करवाके समिति वाले किसी पैसे,पद और प्रतिष्ठा वाले से शर संधान करवाते हैं ताकि अगले साल भी समिति के लिए ,जगह और धन का जुगाड़ हो जाए ,''सर्वे गुणाकांचनमाश्रीयंति ''
अब समय आ गया है ये सोचने का कि रावण के पुतले को जलानेका अधिकार है क्या हमको ? पद प्रतिष्ठा और पैसे के बल पे क्या हम राम बन गये? क्यूंकि रावण जैसे शिवभक्त ,परमज्ञानी और अपनी मृत्यु के हेतु परम दुराचारी का कुकृत्य करने वाले को तो कोई राम ही मार सकता है | और अब तो रावण की राक्षसी प्रवृतियों वाले ही लोग हैं चहुँ ओर तो फिर रावण ही रावण को मार रहा है | साल दर साल हम पुतला दहन करते हैं और समाज में भ्रष्टाचार रूपी दानव अपने पाँव फैलाता ही जा रहा है | एक और सोचने की बात है -रावण राक्षस अवश्य था पर ब्राह्मण कुल का था ,सो राम ने भी ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने को अग्नि होत्र किया था जबकि हम लोग हर वर्ष ये पाप देश के ऊपर चढ़ा देते हैं और देश को सूतक में छोड़ देते हैं |
दशहरे के त्यौहार को हम हर्ष उल्लास के साथ मनाएं | पूजा करें झांकियां निकालें ,आतिश बजी करें ,मेले लगायें पर पुतला दहन न करें | आज राम तो कोई हो ही नहीं सकता है ,रावण बनना भी संभव नहीं है | बस राम चरित को समझने और आत्मसाध करने का प्रयत्न करें | भरत से भाई बनने की कोशिश करे | लक्ष्मण से सेवक बनें और शत्रुघ्न से आज्ञाकारी बनें | रामलीला के हरेक पात्र को समझें |'' होगा वही जो राम रचि राखा | को करी तर्क बढ़ा वहीं साखा'' से मतलब कर्महीन होने का न लगायें वरन उसे ''कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषुकदाचिन ''के अर्थ में ले के सुफल के लिए कर्म करें पर फल ईश्वर आधीन है ये मान के चिंता न करें |अस्तेय-अपरिग्रह को अपनाएँ तभी सच्चे अर्थों में दशहरा होगा ,खुशियाँ आयेंगी दीपावली के रूप में ....आप सब को दशहरे ,विजयादशमी की शुभकामनायें 'देश समृद्ध हो भ्रष्टाचार,दुराचार ,झूठ फरेब ,और भय मुक्त होकर मेरा देशरामराज्य की ओर अग्रसित हो यही माँ दुर्गा और सीता-रामजी से प्रार्थना है ---------------आभा ------
Wednesday, 9 October 2013
[ उप मा पेपि शत्तम: कृष्णं व्यक्तमस्थित |उषऋणऐव् यातय || ]
*************************************************एक सच्ची घटना जो मेरे साथ घटी |घटना जिसको हम कल्पना में देखते हैं
खुली आँखों से वो सच ही होती है |इस जन्म में नहीं तो पूर्व जन्म में
तो घटी ही होगी -------------------
मौन काली घनी निशा अमावस की | नींद तो आनी ही न थी | आज पित्रि विसर्जन था और अजय का श्राद्ध भी था | जो आपके जीवन का संबल हो वो इस संसार रूपी समुद्र मेंबीच में ही आपको छोड़ कर चला जाए अचानक ,जबकि आपको तैरना भी न आता हो, उसे हम अपने ही भीतर रख लेते हैं संजोके हर पल बतियाते हुए; उससे जीने की प्रेरणा लेते हैं |यही हाल हमारे परिवार का भी है पर श्राद्ध-कर्म कठिन होता है और वो भी ख़ुशी-ख़ुशी सम्पन्न करना होता है |मन अशांत था |कई बार" या देवी सर्वभूतेषु निद्रा रूपेण संस्थिता " दोहराने पे भी जब निद्रा देवी के दर्शन नहीं हुए तो सोचा कुछ लिख ही लूँ पर, लिखना भी एक बीमारी है, एक वाइरल फीवर की तरह |एक ऐसा वायरस जो आपके भीतर ही है और वक्त -बेवक्त आपको संक्रमित करता रहता है और बीमारी के लिए तापमान का बढ़ना भी तो आवश्यक है पर आज तो तापमान ९७ से भी नीचे था तो भई साधारण तापवाला क्या खा के लिखेगा | शिथिल तन ,विचार शून्य मन | मैं बाहर आ गई | अमावस की घनी, अंधियारी ,शांत .मौन निशा अपने यौवन के उत्कर्ष पे थी | मखमली अँधेरा और मंद पवन ,धीरे-धीरे ये अंधकार मेरे भीतर उतरने लगा |परत दर परत मन में चढ़ते रेशमी अंधियारे ने कुछ ही देर में मुझे अपने आगोश में ले लिया |निशा सुन्दरी अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ आँखों में समा चुकी थी और शनै:-शनै: चक्षु अँधेरे में देखने के अभ्यस्त होने लगे |मौन -मौन गहनतम मौन !रेशमी कोमलता ,अधियारे में उजागर होते अतीत के इन्द्रधनुषी रंग,ठाठें मारता नीरवता का समुद्र ,लहर दर लहर बनता -टूटता अतीत , विस्मृति और ख़ामोशी के जंगल में उलझी मैं |ये भी क्या उस बाजीगर की कोई बाजीगरी ही है ?मन का पिंजरा खुला , और पंछी कल्पना के पंखों पे सवार हो गया -----किसी ने हौले से छुआ ,ममता भरीप्यारी सी छुवन ; अरे ये तो माँ है ! माँ दुर्गे !तू यहाँ !मैं कैसे भूल गयी कि कल से नवरात्र प्रारम्भ हैं | माँ ने गले लगाया |अभी ही मैं ये सोच रही थी कि कहीं माँ मिल जाए तो शिकायत करूँ ,अपने दुःख का कारण पूछूं ,पूछूं की माँ क्यूँ न हुई मैं तेरी लाडली .क्यूँ -क्यूँ ?ये दारुण दुःख, मुझे और मेरे परिवार को और मैं देख के माँ को; सब भूल गई ,कोई शिकायत कोई शिकवा कुछ नहीं बस स्तुति में हाथ जुड़ गए ------- -ॐ विश्र्वेश्र्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम|
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजस: प्रभु: ||
हडबडाहट में माँ से बोली माँ बैठो ! आसन ग्रहण करो| माँ अपने नौ रूपों सहित पधारी थीं |मुझे कुछ न सूझातो चाय बना लायी मारी के डाईट बिस्किट के साथ (अब आज कल कहीं जाओ तो ये मैन्यू स्टैट्स सिम्बल है ,और दिन भर अपने को ऊंचा दिखाने के चक्कर में हमारे रिफ्लैक्स में स्टेटस समागयाहै )माँ ने आश्चर्य से देखा तो मैं बोली माँ !अब इससे अधिक तो मैं मानसपूजा ही कर पाऊँगी |ये ठीक है कि हम आज भी अतिथि देवो भव: की संस्कृति को ही संवर्धित कर रहेहैं पर आज साधारण मनुष्य की औकात ही ये है ,और एकबात किआज स्त्री खाना तभी पकातीहै जब किसी टीवी चैनल पे कुकरी शो चल रहा हो ,अन्यथा तो घर -घर में खाना पकाने वालियां होती हैं , कामकाजी स्त्री की टी आर पी खाना पकाने से घटजो जाती है |फिर हमारे देश की संस्कृति में असली अतिथी तो अब आतंकवादी और पडोसी राज्य के अध्यक्ष ही होते हैं | मेरी बेचारी माओं ने किसी तरह से चाय बिस्किट (वो जो मैं भी कभी न खा पाती हूँ )चखे और धरती भ्रमण की इच्छा प्रकट की |
हम निकले दिल्ली की सड़कों पे |सामने ही एकबड़ा सा नाला था |कुछ मजदूर और निम्न -मध्यम वर्ग की औरतें और बच्चे ,कोल्ड -ड्रिंक की बोतलों के साथ चहल-कदमी करते हुए दिखाई दिए |कुछ रात्रि सेवा वाले टैक्सी और टेम्पो वाले भी आ -जा रहे थे|देवी ने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो मैंने समझाया -ये सब वो स्त्रियाँ हैं जिनकी दुनिया एक कमरे का ईंटों का ढांचा है जहाँ ये खाना, सोना, रहना सब करती हैं ,पाखाना इनके लिए सुविधाओं में आता है और दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने वालियों के भाग्य में ये सुविधा नहीं है | इसलिए लोकलाज के भय से ये इस वक्त हाजत को जाती हैं पर इस समय पे भी इन टैक्सी ,टेम्पो वालों का डर रहता है |अपनी जाति की ऐसी दुर्दशा देख देवी द्रवीभूत हो गयी | हम आगे चले |सुकून की बात ये थी की घना अँधियारा होने की वजह से मार्ग के दोनों ओर की गंदगी नजर नहीं आ रही थी पर हवा के झोंकों के साथ आ रही गंध देवियों को परेशान कर रही थी ,फुट -पाथपे सोते परिवार उनके साथ पड़े श्वान और गायें देख के देवी को बहुत दुःख हुआ |आगे चले तो पुलिस चेक पोस्ट पे दो पुलिसवाले बैठे थे |नौ देवियों के तेज से भ्रमित होकर दोनों ने जोर दार सैल्यूट ठोका |माँ ने आशीर्वाद दिया और हम आगे बढ़े पर अचानक दोनों सिपाहियों को ख्याल आया की ये तो लाल बत्ती वाली गाडी में सवार नहीं थीं ,साधारण स्त्रियाँ ही है ,बेफिजूल सैल्यूट खराब कर दिया वो जोर से रौब ग़ालिब करते हुए बोले -'इत्ती रात में पेदल घुमणकी क्या सूझी ' माँ बोली -वत्स नवरात्रों में पृथ्वी भ्रमण को आयी हूँ ,ताकि भक्तों की आवश्यकता के अनुसार वर दे सकूँ ! दोनों ने हैरत से हमें देखा और बोले चलो थानेचलो हम 'रिक्स 'नी ले सकते ,माँ बेचारी भोली -भाली उन्हें क्या खबर थाना क्या होता है, हो गयीं चलने को तैयार ,अब मेरे पास कैश भी नहीं था जो पीछा छुड़ालेते ,माँ को इशारों में समझाया और गायब होने को कहा ,फिर तो हम ये जा और वो जा ,मैं देवी को अपने ही घर ले आयी|चाह तो रही थी की संसार की दुर्दशा माँ अपनी आँखों से देखे पर जगह -जगह रुकावटें थीं |सो मैंने ही माँ को बताना शुरू किया |ॐ नमश्चचण्डिकायै..सुनो माँ! अब तेरी भारत भूमि बदल गयी है ;यहाँ स्त्री दोयम दर्जे की नागरिक है ; पैदा होना ही उसका मुश्किल है कोख में ही मार दी जातीहै ,तरह तरह से कन्या भ्रूण ह्त्या को अंजाम दिया जाता है , और पैदा हो गयी तो घर बाहरकहीं भी सुरक्षित नहीं हैं बचपन से बुढ़ापे तक समाज में छिपे कुछ नर पिशाच उसे नोचने को तैयार बैठे रहते हैं ,शादी में दहेज़ भी गुण भी ,और नौकरी भी तीनों चाहियें ,घर परिवार दोनों को संभालती स्त्री को हर तरह से प्रताड़ना मिलती है | पति नाम का प्राणी जब दुल्हन को घर ले के जाता है तो पहले ही दिन जता देता है कि मैं तुझे रहने को छत दे रहा हूँ और इसके लिए मुझे बहुत से एडजस्टमेंट करने होंगे सो जो मैं कहूंगा वही करना ,जिस लड़की ने सर झुका के मान लिया तो ठीक अन्यथा तलाक,एक ऐसा शब्द जो हमारी सनातन संस्कृति में है ही नहीं ,कार्यालयों में स्त्रियों के साथ दोयम दर्जे का सुलूक ,राजनीती में शोषण ,और अब नवरात्रों में बड़े -बड़े पंडालों में तेरी पूजा अर्चना |कन्या पूजा ,कंजक जीमना .जो समाज कन्या धन का संवर्धन और मान नहीं कर पा रहा है वो हलवा पूरी खा के अघा चुकी कन्याओं को रोज जिमा रहा है ,हे प्रात: स्मरणीय माँ तू इस जगती में आयी है तू ही इस निशाचरी माया को समाप्त कर ,हे देवी -''त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं ही वषट्कार: स्वरात्मिका |यया त्वया जगत्स्त्रष्टा ज्गत्पात्यत्ति यो जगत | सोपि निद्रा वशं नीत:'' .तुमने तो भगवानविष्णु को भी निद्रा के वश में करदिया है तुम से ही जगत है , महालक्ष्मी तुम ही तमस में अपनी कुक्षी में सृष्टि को पालती हो !आज क्यूँ मौन हो! तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है! तुम तो स्वयं ही स्तुति हो ! हे माँ'' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ''वाले इस देश में स्त्री जाति का ये अपमान क्यूँ ?स्त्री जाति को शक्ति दे माँ ,हम तेरी ही संताने है ,पर अब नारी भी उच्चश्रिंखल होने लगी है |सदियों से गुलामी सहते सहते वो भी राह भटक रही है और अपना और नुकसान कर रही है ,,तू सबको राह दिखा माँ ,हमारे देश में स्त्री पुरुष ,भाई बहिन ,सब बराबर का मान पाए और मिलके समाज की उन्नति की सोचें , कोई ऐसी जुगत भिडा मेरी माँ !और एक बात जो मैं तुझसे पूछना चाहती हूँ तू तो सब जानती है ,फिर ये सब तुझ से क्यूँ छिपा है ? जो उत्तर माँ ने दिया वो मुझे संतुष्ट कर गया और मेरी शिकायतें भी मिट गयीं |माँ बोली !जब तुम ब्याह के ससुराल आयी तो माँ को अपने दुःख दर्द तो नहीं बतातीं थीं न |.यूँ ही दिखाती थीं किबहुत खुश हो और वो भी निश्चिंत हो जाती थी तुम्हारी ओर से |बस यही समझलो, मैं भी दूसरी दुनिया में उलझी हुई थी, अब आयी हूँ यहाँ तो सब ठीक करके ही जाऊँगी |माँ का आश्वासन पा के मुझे भी चैन मिला |सोचा माँ को तस्वीर तो दिखा ही दी है सो अब कुछ पकवान बना के खिलाये जाएँ और लाड किया जाए फिर तो उषा आने तक आरती गाई मधुर व्यंजन बना के प्रसाद चढ़ाया और माँ का स्तवन किया -
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या
ताम्बिकामखिदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:||
माँ आशीष दे के और फिर आने का वादा करके अंतर्ध्यान हो गयीं |फिर वही रेशमी अँधेरा ,गहनतम मौन और अमावस की रात्रि की नीरवता पर अब नींद की चाहत न थी | गीता का श्लोक याद आ गया -
देहिनोsस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धिरस्तत्र न मुह्यति ||
माँ का साथ और कृष्णा का सन्देश मैं फिर से जगत में आ गयी और
जुट गयी जीवन रूपी यज्ञं में बिना किसी हानि लाभ की चिंता के -------
सुखदु;खे समे कृत्वा लाभा लाभौजयाजयौ|
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसी ||................आभा ------------
*************************************************एक सच्ची घटना जो मेरे साथ घटी |घटना जिसको हम कल्पना में देखते हैं
खुली आँखों से वो सच ही होती है |इस जन्म में नहीं तो पूर्व जन्म में
तो घटी ही होगी -------------------
मौन काली घनी निशा अमावस की | नींद तो आनी ही न थी | आज पित्रि विसर्जन था और अजय का श्राद्ध भी था | जो आपके जीवन का संबल हो वो इस संसार रूपी समुद्र मेंबीच में ही आपको छोड़ कर चला जाए अचानक ,जबकि आपको तैरना भी न आता हो, उसे हम अपने ही भीतर रख लेते हैं संजोके हर पल बतियाते हुए; उससे जीने की प्रेरणा लेते हैं |यही हाल हमारे परिवार का भी है पर श्राद्ध-कर्म कठिन होता है और वो भी ख़ुशी-ख़ुशी सम्पन्न करना होता है |मन अशांत था |कई बार" या देवी सर्वभूतेषु निद्रा रूपेण संस्थिता " दोहराने पे भी जब निद्रा देवी के दर्शन नहीं हुए तो सोचा कुछ लिख ही लूँ पर, लिखना भी एक बीमारी है, एक वाइरल फीवर की तरह |एक ऐसा वायरस जो आपके भीतर ही है और वक्त -बेवक्त आपको संक्रमित करता रहता है और बीमारी के लिए तापमान का बढ़ना भी तो आवश्यक है पर आज तो तापमान ९७ से भी नीचे था तो भई साधारण तापवाला क्या खा के लिखेगा | शिथिल तन ,विचार शून्य मन | मैं बाहर आ गई | अमावस की घनी, अंधियारी ,शांत .मौन निशा अपने यौवन के उत्कर्ष पे थी | मखमली अँधेरा और मंद पवन ,धीरे-धीरे ये अंधकार मेरे भीतर उतरने लगा |परत दर परत मन में चढ़ते रेशमी अंधियारे ने कुछ ही देर में मुझे अपने आगोश में ले लिया |निशा सुन्दरी अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ आँखों में समा चुकी थी और शनै:-शनै: चक्षु अँधेरे में देखने के अभ्यस्त होने लगे |मौन -मौन गहनतम मौन !रेशमी कोमलता ,अधियारे में उजागर होते अतीत के इन्द्रधनुषी रंग,ठाठें मारता नीरवता का समुद्र ,लहर दर लहर बनता -टूटता अतीत , विस्मृति और ख़ामोशी के जंगल में उलझी मैं |ये भी क्या उस बाजीगर की कोई बाजीगरी ही है ?मन का पिंजरा खुला , और पंछी कल्पना के पंखों पे सवार हो गया -----किसी ने हौले से छुआ ,ममता भरीप्यारी सी छुवन ; अरे ये तो माँ है ! माँ दुर्गे !तू यहाँ !मैं कैसे भूल गयी कि कल से नवरात्र प्रारम्भ हैं | माँ ने गले लगाया |अभी ही मैं ये सोच रही थी कि कहीं माँ मिल जाए तो शिकायत करूँ ,अपने दुःख का कारण पूछूं ,पूछूं की माँ क्यूँ न हुई मैं तेरी लाडली .क्यूँ -क्यूँ ?ये दारुण दुःख, मुझे और मेरे परिवार को और मैं देख के माँ को; सब भूल गई ,कोई शिकायत कोई शिकवा कुछ नहीं बस स्तुति में हाथ जुड़ गए ------- -ॐ विश्र्वेश्र्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम|
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजस: प्रभु: ||
हडबडाहट में माँ से बोली माँ बैठो ! आसन ग्रहण करो| माँ अपने नौ रूपों सहित पधारी थीं |मुझे कुछ न सूझातो चाय बना लायी मारी के डाईट बिस्किट के साथ (अब आज कल कहीं जाओ तो ये मैन्यू स्टैट्स सिम्बल है ,और दिन भर अपने को ऊंचा दिखाने के चक्कर में हमारे रिफ्लैक्स में स्टेटस समागयाहै )माँ ने आश्चर्य से देखा तो मैं बोली माँ !अब इससे अधिक तो मैं मानसपूजा ही कर पाऊँगी |ये ठीक है कि हम आज भी अतिथि देवो भव: की संस्कृति को ही संवर्धित कर रहेहैं पर आज साधारण मनुष्य की औकात ही ये है ,और एकबात किआज स्त्री खाना तभी पकातीहै जब किसी टीवी चैनल पे कुकरी शो चल रहा हो ,अन्यथा तो घर -घर में खाना पकाने वालियां होती हैं , कामकाजी स्त्री की टी आर पी खाना पकाने से घटजो जाती है |फिर हमारे देश की संस्कृति में असली अतिथी तो अब आतंकवादी और पडोसी राज्य के अध्यक्ष ही होते हैं | मेरी बेचारी माओं ने किसी तरह से चाय बिस्किट (वो जो मैं भी कभी न खा पाती हूँ )चखे और धरती भ्रमण की इच्छा प्रकट की |
हम निकले दिल्ली की सड़कों पे |सामने ही एकबड़ा सा नाला था |कुछ मजदूर और निम्न -मध्यम वर्ग की औरतें और बच्चे ,कोल्ड -ड्रिंक की बोतलों के साथ चहल-कदमी करते हुए दिखाई दिए |कुछ रात्रि सेवा वाले टैक्सी और टेम्पो वाले भी आ -जा रहे थे|देवी ने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो मैंने समझाया -ये सब वो स्त्रियाँ हैं जिनकी दुनिया एक कमरे का ईंटों का ढांचा है जहाँ ये खाना, सोना, रहना सब करती हैं ,पाखाना इनके लिए सुविधाओं में आता है और दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने वालियों के भाग्य में ये सुविधा नहीं है | इसलिए लोकलाज के भय से ये इस वक्त हाजत को जाती हैं पर इस समय पे भी इन टैक्सी ,टेम्पो वालों का डर रहता है |अपनी जाति की ऐसी दुर्दशा देख देवी द्रवीभूत हो गयी | हम आगे चले |सुकून की बात ये थी की घना अँधियारा होने की वजह से मार्ग के दोनों ओर की गंदगी नजर नहीं आ रही थी पर हवा के झोंकों के साथ आ रही गंध देवियों को परेशान कर रही थी ,फुट -पाथपे सोते परिवार उनके साथ पड़े श्वान और गायें देख के देवी को बहुत दुःख हुआ |आगे चले तो पुलिस चेक पोस्ट पे दो पुलिसवाले बैठे थे |नौ देवियों के तेज से भ्रमित होकर दोनों ने जोर दार सैल्यूट ठोका |माँ ने आशीर्वाद दिया और हम आगे बढ़े पर अचानक दोनों सिपाहियों को ख्याल आया की ये तो लाल बत्ती वाली गाडी में सवार नहीं थीं ,साधारण स्त्रियाँ ही है ,बेफिजूल सैल्यूट खराब कर दिया वो जोर से रौब ग़ालिब करते हुए बोले -'इत्ती रात में पेदल घुमणकी क्या सूझी ' माँ बोली -वत्स नवरात्रों में पृथ्वी भ्रमण को आयी हूँ ,ताकि भक्तों की आवश्यकता के अनुसार वर दे सकूँ ! दोनों ने हैरत से हमें देखा और बोले चलो थानेचलो हम 'रिक्स 'नी ले सकते ,माँ बेचारी भोली -भाली उन्हें क्या खबर थाना क्या होता है, हो गयीं चलने को तैयार ,अब मेरे पास कैश भी नहीं था जो पीछा छुड़ालेते ,माँ को इशारों में समझाया और गायब होने को कहा ,फिर तो हम ये जा और वो जा ,मैं देवी को अपने ही घर ले आयी|चाह तो रही थी की संसार की दुर्दशा माँ अपनी आँखों से देखे पर जगह -जगह रुकावटें थीं |सो मैंने ही माँ को बताना शुरू किया |ॐ नमश्चचण्डिकायै..सुनो माँ! अब तेरी भारत भूमि बदल गयी है ;यहाँ स्त्री दोयम दर्जे की नागरिक है ; पैदा होना ही उसका मुश्किल है कोख में ही मार दी जातीहै ,तरह तरह से कन्या भ्रूण ह्त्या को अंजाम दिया जाता है , और पैदा हो गयी तो घर बाहरकहीं भी सुरक्षित नहीं हैं बचपन से बुढ़ापे तक समाज में छिपे कुछ नर पिशाच उसे नोचने को तैयार बैठे रहते हैं ,शादी में दहेज़ भी गुण भी ,और नौकरी भी तीनों चाहियें ,घर परिवार दोनों को संभालती स्त्री को हर तरह से प्रताड़ना मिलती है | पति नाम का प्राणी जब दुल्हन को घर ले के जाता है तो पहले ही दिन जता देता है कि मैं तुझे रहने को छत दे रहा हूँ और इसके लिए मुझे बहुत से एडजस्टमेंट करने होंगे सो जो मैं कहूंगा वही करना ,जिस लड़की ने सर झुका के मान लिया तो ठीक अन्यथा तलाक,एक ऐसा शब्द जो हमारी सनातन संस्कृति में है ही नहीं ,कार्यालयों में स्त्रियों के साथ दोयम दर्जे का सुलूक ,राजनीती में शोषण ,और अब नवरात्रों में बड़े -बड़े पंडालों में तेरी पूजा अर्चना |कन्या पूजा ,कंजक जीमना .जो समाज कन्या धन का संवर्धन और मान नहीं कर पा रहा है वो हलवा पूरी खा के अघा चुकी कन्याओं को रोज जिमा रहा है ,हे प्रात: स्मरणीय माँ तू इस जगती में आयी है तू ही इस निशाचरी माया को समाप्त कर ,हे देवी -''त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं ही वषट्कार: स्वरात्मिका |यया त्वया जगत्स्त्रष्टा ज्गत्पात्यत्ति यो जगत | सोपि निद्रा वशं नीत:'' .तुमने तो भगवानविष्णु को भी निद्रा के वश में करदिया है तुम से ही जगत है , महालक्ष्मी तुम ही तमस में अपनी कुक्षी में सृष्टि को पालती हो !आज क्यूँ मौन हो! तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है! तुम तो स्वयं ही स्तुति हो ! हे माँ'' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ''वाले इस देश में स्त्री जाति का ये अपमान क्यूँ ?स्त्री जाति को शक्ति दे माँ ,हम तेरी ही संताने है ,पर अब नारी भी उच्चश्रिंखल होने लगी है |सदियों से गुलामी सहते सहते वो भी राह भटक रही है और अपना और नुकसान कर रही है ,,तू सबको राह दिखा माँ ,हमारे देश में स्त्री पुरुष ,भाई बहिन ,सब बराबर का मान पाए और मिलके समाज की उन्नति की सोचें , कोई ऐसी जुगत भिडा मेरी माँ !और एक बात जो मैं तुझसे पूछना चाहती हूँ तू तो सब जानती है ,फिर ये सब तुझ से क्यूँ छिपा है ? जो उत्तर माँ ने दिया वो मुझे संतुष्ट कर गया और मेरी शिकायतें भी मिट गयीं |माँ बोली !जब तुम ब्याह के ससुराल आयी तो माँ को अपने दुःख दर्द तो नहीं बतातीं थीं न |.यूँ ही दिखाती थीं किबहुत खुश हो और वो भी निश्चिंत हो जाती थी तुम्हारी ओर से |बस यही समझलो, मैं भी दूसरी दुनिया में उलझी हुई थी, अब आयी हूँ यहाँ तो सब ठीक करके ही जाऊँगी |माँ का आश्वासन पा के मुझे भी चैन मिला |सोचा माँ को तस्वीर तो दिखा ही दी है सो अब कुछ पकवान बना के खिलाये जाएँ और लाड किया जाए फिर तो उषा आने तक आरती गाई मधुर व्यंजन बना के प्रसाद चढ़ाया और माँ का स्तवन किया -
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या
ताम्बिकामखिदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:||
माँ आशीष दे के और फिर आने का वादा करके अंतर्ध्यान हो गयीं |फिर वही रेशमी अँधेरा ,गहनतम मौन और अमावस की रात्रि की नीरवता पर अब नींद की चाहत न थी | गीता का श्लोक याद आ गया -
देहिनोsस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धिरस्तत्र न मुह्यति ||
माँ का साथ और कृष्णा का सन्देश मैं फिर से जगत में आ गयी और
जुट गयी जीवन रूपी यज्ञं में बिना किसी हानि लाभ की चिंता के -------
सुखदु;खे समे कृत्वा लाभा लाभौजयाजयौ|
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसी ||................आभा ------------
Saturday, 5 October 2013
तव च का किल न स्तुतिरम्बिके !
सकलशब्दमयी किल ते तनु: |
निखिलमुर्तिषु में भवद्न्वयो
मनसिजासु बहि:प्रसरासु च ||
इति विचिन्त्य शिवे !शमिता शिवे !
जगति जातमयत्नवसादिदम |
स्तुतिजपार्चनचिन्तन वर्जिता
न खलु काचन कालकलास्ती में ||
हे माँ !ये सारा संसार तेरा ही रूप है ,कण-कण में तू व्याप्त है ,जहाँ दृष्टि जाती है तेरा ही प्रकाश दृष्टिगोचर है ,वाणी में तू .चित्त मे तू ,मेरा रोम -रोम तेरी ही पूजा अर्चना हो ,मेरा प्रत्येक कार्य तुझे ही समर्पित होवे ............................................................
नवरात्रि ! माँ दुर्गा के नौ रूपों का स्मरण पूजन और चिन्तन . प्रकृति में ऊर्जा का प्रवाह .रामलीला का मंचन .व्रत, कथा,साक्षात् श्रधा की गंगा यमुना ही बहने लगती है ..........दुर्गा पूजन में माँ के नौ रूपों के साथ -साथ - यव बोनेका और यावान्कुर को पूजने का विधान है . ये यावंकुर चेतना के प्रतीक स्वरुप पूजे जाते हैं ,दानों को ताजा मिट्टी के बर्तनों में बोया जाता है ,वर्षा ऋतू के बाद कुम्हार की पहली बोनी -माँ को समर्पित .प्रथम नवरात्र को ही इन्हें बोया जाता है और तीसरे दिन यवान्कुरके दर्शन हो जाने चाहिये.पुराने ज़माने में वर्षा ऋतू समाप्त होने पे लोग व्यापार के लिए प्रदेश को निकलते थे . तो इन यवान्कुरों की बढ़ोतरी व् प्रफुल्लता पर कार्य सिद्धि की परीक्षा होती थी .और सुरक्षा, सुधार और उपचार के कदम भी उठाये जाते थे ,-------------
----''-अवृष्टिमकुरुते कृष्ण ,धूम्रामंकलहंतथा'' ,अर्थात काले अंकुर उगने पे उस वर्ष अनावृष्टि ,निर्धनता ;;धुएंके वर्ण वाले होने पे परिवार में कलह ;न उगने पे जन नाश मृत्यु ,कार्य -बाधा ;नीले रंग के होने पे दुर्भिक्ष और अकाल; .रक्त वर्णके होने पे रोग ,व्याधि ,शत्रु -भय ; हरे रंग की दुर्बा पुष्टि -वर्धक तथा लाभ-प्रद मानी जाती है ,;आधी हरी व् पीली दुर्बा होने पे पहले कार्य होगा पर बाद में हानि होगी ;श्वेत दुर्बा अत्यंत शुभ -फलदायक और शीघ्र लाभ का प्रतीक है .श्वेत दुर्बा पे कई तांत्रिक प्रयोग भी किये जाते हैं ; इस तरह से इन यावान्कुरों को आने वाले दिनों के शुभाशुभ का पंचांग माना जाता था और उसी के अनुसार उपक्रम किये जाते थे . तब से अब तक ये रीति यूँ ही चली आ रही है . घर -घर में जौ बोये जाते हैं , हरियाली प्रसन्नता और सृजन का सबब होती है,हम बचपन में रामलीला के अंतिम दिन रामदरबार में सभी के लिए हरियाली की माला बना के ले जाते थे , राम लक्ष्मण को माला पहनाने की ख़ुशी आज भी बयां नहीं की जा सकती है . .माँ सब का कल्याण करें .सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह हो और कन्या धन का संवर्धन और संरक्षण हो यही हमारा व्रत होना चाहिए ,.स्नेह और प्यार की प्रतिमा बन जाएँ हम यही हमारा व्रत होना चाहिए ,कर्मनिष्ठ ,अनुशासित जीवन जीयें , दृढ -व्रती ,त्यागी, परोपकारी, आस्थावान ,और चरित्रवान बने यही हो हमारा व्रत;
आपत्सु मग्न: स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि |
नैतच्छठत्वं मम भावयेथा: क्षुधात्रिषार्ता जननीं स्मरन्ति||
....................................................................................
मत्सम: पातकी नास्ति पापाघ्नी त्वत्समा न हि|
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरू ||
पहले कभी माँ का स्मरण न किया हो ,उसकी स्तुति न की हो ,शठता का स्वभाव हो तो भी माँ की शरण में आने पे माँ स्वाभाव वश ही बालक को क्षमा करदेती है .
नवरात्रि का मूलमंत्र जब जागो तभी सवेरा .आओ माँ की शरणागती होओं. मंगल ही होगा .माँ दुर्गा सब की पीर हरें .सबपे कृपा करें ,देश और देश वासियों का कल्याण हो .सभीको नवरात्री की शुभकामनाएं ,---------------------------आभा
सकलशब्दमयी किल ते तनु: |
निखिलमुर्तिषु में भवद्न्वयो
मनसिजासु बहि:प्रसरासु च ||
इति विचिन्त्य शिवे !शमिता शिवे !
जगति जातमयत्नवसादिदम |
स्तुतिजपार्चनचिन्तन वर्जिता
न खलु काचन कालकलास्ती में ||
हे माँ !ये सारा संसार तेरा ही रूप है ,कण-कण में तू व्याप्त है ,जहाँ दृष्टि जाती है तेरा ही प्रकाश दृष्टिगोचर है ,वाणी में तू .चित्त मे तू ,मेरा रोम -रोम तेरी ही पूजा अर्चना हो ,मेरा प्रत्येक कार्य तुझे ही समर्पित होवे ............................................................
नवरात्रि ! माँ दुर्गा के नौ रूपों का स्मरण पूजन और चिन्तन . प्रकृति में ऊर्जा का प्रवाह .रामलीला का मंचन .व्रत, कथा,साक्षात् श्रधा की गंगा यमुना ही बहने लगती है ..........दुर्गा पूजन में माँ के नौ रूपों के साथ -साथ - यव बोनेका और यावान्कुर को पूजने का विधान है . ये यावंकुर चेतना के प्रतीक स्वरुप पूजे जाते हैं ,दानों को ताजा मिट्टी के बर्तनों में बोया जाता है ,वर्षा ऋतू के बाद कुम्हार की पहली बोनी -माँ को समर्पित .प्रथम नवरात्र को ही इन्हें बोया जाता है और तीसरे दिन यवान्कुरके दर्शन हो जाने चाहिये.पुराने ज़माने में वर्षा ऋतू समाप्त होने पे लोग व्यापार के लिए प्रदेश को निकलते थे . तो इन यवान्कुरों की बढ़ोतरी व् प्रफुल्लता पर कार्य सिद्धि की परीक्षा होती थी .और सुरक्षा, सुधार और उपचार के कदम भी उठाये जाते थे ,-------------
----''-अवृष्टिमकुरुते कृष्ण ,धूम्रामंकलहंतथा'' ,अर्थात काले अंकुर उगने पे उस वर्ष अनावृष्टि ,निर्धनता ;;धुएंके वर्ण वाले होने पे परिवार में कलह ;न उगने पे जन नाश मृत्यु ,कार्य -बाधा ;नीले रंग के होने पे दुर्भिक्ष और अकाल; .रक्त वर्णके होने पे रोग ,व्याधि ,शत्रु -भय ; हरे रंग की दुर्बा पुष्टि -वर्धक तथा लाभ-प्रद मानी जाती है ,;आधी हरी व् पीली दुर्बा होने पे पहले कार्य होगा पर बाद में हानि होगी ;श्वेत दुर्बा अत्यंत शुभ -फलदायक और शीघ्र लाभ का प्रतीक है .श्वेत दुर्बा पे कई तांत्रिक प्रयोग भी किये जाते हैं ; इस तरह से इन यावान्कुरों को आने वाले दिनों के शुभाशुभ का पंचांग माना जाता था और उसी के अनुसार उपक्रम किये जाते थे . तब से अब तक ये रीति यूँ ही चली आ रही है . घर -घर में जौ बोये जाते हैं , हरियाली प्रसन्नता और सृजन का सबब होती है,हम बचपन में रामलीला के अंतिम दिन रामदरबार में सभी के लिए हरियाली की माला बना के ले जाते थे , राम लक्ष्मण को माला पहनाने की ख़ुशी आज भी बयां नहीं की जा सकती है . .माँ सब का कल्याण करें .सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह हो और कन्या धन का संवर्धन और संरक्षण हो यही हमारा व्रत होना चाहिए ,.स्नेह और प्यार की प्रतिमा बन जाएँ हम यही हमारा व्रत होना चाहिए ,कर्मनिष्ठ ,अनुशासित जीवन जीयें , दृढ -व्रती ,त्यागी, परोपकारी, आस्थावान ,और चरित्रवान बने यही हो हमारा व्रत;
आपत्सु मग्न: स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि |
नैतच्छठत्वं मम भावयेथा: क्षुधात्रिषार्ता जननीं स्मरन्ति||
....................................................................................
मत्सम: पातकी नास्ति पापाघ्नी त्वत्समा न हि|
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरू ||
पहले कभी माँ का स्मरण न किया हो ,उसकी स्तुति न की हो ,शठता का स्वभाव हो तो भी माँ की शरण में आने पे माँ स्वाभाव वश ही बालक को क्षमा करदेती है .
नवरात्रि का मूलमंत्र जब जागो तभी सवेरा .आओ माँ की शरणागती होओं. मंगल ही होगा .माँ दुर्गा सब की पीर हरें .सबपे कृपा करें ,देश और देश वासियों का कल्याण हो .सभीको नवरात्री की शुभकामनाएं ,---------------------------आभा
Saturday, 28 September 2013
'' बदल रहा है मौसम ''
****************
होने लगा , मॉहौल चुनावी
नगर के सब गुंडे,जुआरी , शराबी ,
,पार्टी कार्य -कर्ता लगे हैं बनने
स्मगलर ,चोर बाजार के व्यापारी ,
गली गली घूमें, ले लोकतंत्र का झंडा .
म त दो -म त दो ,म त दो- म त दो ,
हमारी पार्टी को मत दो ,हमारी पार्टी को मत दो ,
फलां को मत दो ,फलां को मत दो ,
लोकतंत्र की बिछ गयी चौपड़ ,
प्रजातंत्र की हाट लगेगी .
भांति भांति की टोपी देखो .
वो पहने , जनता को पहनाएं ,
वो देखो! वो, खद्दर -धारी,
चकाचक है उसकी धोती ,
चलते फिरते ब्रैंड गाँधी के ,
सैकेंड हैण्ड गाँधी दिखतेहैं .
मत दो- मत दो ,हाथ जोड़ ,
गाँव -गली-चौराहे , फिरते है .
यूँ लगता है वर्षा ऋतू में ,
बिखर गए थे बीज ,नेता के,
जगह -जगह पौध उगी है ,
बस होनी है शेष रुपाई,
कुछ नेता तो जड़ पकड़ेंगे ,
कुछ उनके पिछलग्गू होंगे ,
जैनरिक खेती है ये भाई ,
काम किसी के कभी न आयी ,
भ्रष्टाचारी और लुटेरे ,
कुर्सी ओ पद के चाटुकार ये
देश को खा- पी के जो बैठे ,
अब साधू बन के हैं आये .
कभी गरीब को खाना देते ,
कभी नैतिक पाठ पढ़ाते,
जनता बनी मानिनी देखो ,
गर्व से फूली नहीं समाती ,
अपने पत्ते मैं न खोलूं ,
वोट ही तो हाथ में मेरे ,
जिसपे चाहे मैं खरचूंगी ,
मत बन मानिनी भोली जनता ,
वोट नहीं तेरा अपना धन ,
ना -ना करते देना होगा ,
तरह- तरह की बोली लगेगी ,
नीलामी पे वोट है तेरा .!
जनता तू फिर बिक जायेगी ,
धर्म के नाम पे बंट जायेगी .
जातिवाद पे फंस जायेगी ,
वो चतुर हैं -वोटों के व्यापारी ,
म त दो -म त दो ,कहकर ,
ये नेता तुझ को बहका ही लेंगे .
और जीतने पे सब गायब ,
इक ही बात की देंगे दुहाही
हमने तो बस यही कहा था
,मत दे मत दे हम को म त दे ,
न हमको तुमने समझा .
मत दे कहने पे भी , दे डाला? ,
अब तो भुगतो अपनी करनी ,
हमें तो अपनी झोली भरनी.
पर अब जनता मुस्काती है .
राइट टू रिजेक्ट है हाथ में आया ,
मत को अब मै मत ही दूंगी ,
खर -पतवार.को साफ़ करुँगी .
चाहे कुछ भी देर लगेगी ,
कुछ अराजकताभी हो सकती है ,,
लोकतंत्र ये लोकतंत्र है ,
समाधान भीतर ही होता है ,
कुछ तो मौसम बदलेगा ही
कुछ तो मौसम बदलेगा ही ......
,
****************
होने लगा , मॉहौल चुनावी
नगर के सब गुंडे,जुआरी , शराबी ,
,पार्टी कार्य -कर्ता लगे हैं बनने
स्मगलर ,चोर बाजार के व्यापारी ,
गली गली घूमें, ले लोकतंत्र का झंडा .
म त दो -म त दो ,म त दो- म त दो ,
हमारी पार्टी को मत दो ,हमारी पार्टी को मत दो ,
फलां को मत दो ,फलां को मत दो ,
लोकतंत्र की बिछ गयी चौपड़ ,
प्रजातंत्र की हाट लगेगी .
भांति भांति की टोपी देखो .
वो पहने , जनता को पहनाएं ,
वो देखो! वो, खद्दर -धारी,
चकाचक है उसकी धोती ,
चलते फिरते ब्रैंड गाँधी के ,
सैकेंड हैण्ड गाँधी दिखतेहैं .
मत दो- मत दो ,हाथ जोड़ ,
गाँव -गली-चौराहे , फिरते है .
यूँ लगता है वर्षा ऋतू में ,
बिखर गए थे बीज ,नेता के,
जगह -जगह पौध उगी है ,
बस होनी है शेष रुपाई,
कुछ नेता तो जड़ पकड़ेंगे ,
कुछ उनके पिछलग्गू होंगे ,
जैनरिक खेती है ये भाई ,
काम किसी के कभी न आयी ,
भ्रष्टाचारी और लुटेरे ,
कुर्सी ओ पद के चाटुकार ये
देश को खा- पी के जो बैठे ,
अब साधू बन के हैं आये .
कभी गरीब को खाना देते ,
कभी नैतिक पाठ पढ़ाते,
जनता बनी मानिनी देखो ,
गर्व से फूली नहीं समाती ,
अपने पत्ते मैं न खोलूं ,
वोट ही तो हाथ में मेरे ,
जिसपे चाहे मैं खरचूंगी ,
मत बन मानिनी भोली जनता ,
वोट नहीं तेरा अपना धन ,
ना -ना करते देना होगा ,
तरह- तरह की बोली लगेगी ,
नीलामी पे वोट है तेरा .!
जनता तू फिर बिक जायेगी ,
धर्म के नाम पे बंट जायेगी .
जातिवाद पे फंस जायेगी ,
वो चतुर हैं -वोटों के व्यापारी ,
म त दो -म त दो ,कहकर ,
ये नेता तुझ को बहका ही लेंगे .
और जीतने पे सब गायब ,
इक ही बात की देंगे दुहाही
हमने तो बस यही कहा था
,मत दे मत दे हम को म त दे ,
न हमको तुमने समझा .
मत दे कहने पे भी , दे डाला? ,
अब तो भुगतो अपनी करनी ,
हमें तो अपनी झोली भरनी.
पर अब जनता मुस्काती है .
राइट टू रिजेक्ट है हाथ में आया ,
मत को अब मै मत ही दूंगी ,
खर -पतवार.को साफ़ करुँगी .
चाहे कुछ भी देर लगेगी ,
कुछ अराजकताभी हो सकती है ,,
लोकतंत्र ये लोकतंत्र है ,
समाधान भीतर ही होता है ,
कुछ तो मौसम बदलेगा ही
कुछ तो मौसम बदलेगा ही ......
,
Thursday, 26 September 2013
'' बैठे ठाले ''
*********
बसंत की सुहानी दोपहर ,आम का हरा भरा पेड़ ,पेड़ पे ढेर सी बौर और हरी -हरी अम्बियाँ ...चारों ओर फैली बौर की मदहोश करने वाली सुगंध ,कोयल बहुत दूर से इसे महसूस करती है ,उडती हुई हुई आती है और इस डाल से उस डाल, फुदक -फुदक के पंचम सुर में मस्ती से कुहू -कुहू गाने लगती है ..अम्बियाँ हवा के झूलों पे सवार मस्ती में झूल रही थीं . यौवन के प्रथम सोपान में ,अल्हड़,अक्खड़ अपनी सुन्दरता की नीम बेहोशी में .उन्हें काली- कलूटी का रंग में भंग अच्छा नहीं लगा. कोयल बोली कुहू -कुहू मैं आ गयी!
आम्बियाँ इतराई ..और बोलीं अरी कलूटी कहाँ से आजाती है हर मौसम , कहाँ हमारी डालियों पे.. सुंदर सलोनी,सुनहरी , सुगन्धित बौर , हरी -हरी अम्बियाँ और कहाँ तू काली- कलूटी,. ...सारी छटा ही बिगाड़देती है .....कोयल बड़ी दूर से आयी थी ...उसे विश्वास था ,मैं तो पाहुनी हूँ बौर मेरी बलैयां लेगी ,अम्बियाँ गलबहियाँ डालेंगी ,सदियों से तो ऐसा ही हो रहा है ....बड़ी निराश हुई ....पर हार नहीं मानेगी ...वो तो कोयल है ..पंचम सुर में गाने वाली ...सोचने लगी अब आ ही गयी हूँ तो टिकुंगी पर जुगत भिड़ानी होगी ...चलूँ कौवे से पूंछूं क्या बात है, इतना क्यूँ इतरा रही हैं अम्बियाँ ...खूब झूमके कुहू -कुहू सुनाया कौवे को..अम्बियों ने देखा और बोलीं .बेचारा चाल में फंस गया ..वैसे भी ये धूर्त कोयल हर वर्ष न जाने कितने कौवों के अंडे घोंसलों से गिरा देती है और वहां अपने अंडे रख देती है ..बेचारे को पता भी नहीं चलता ,और ये कलूटी धूर्त के साथ -साथ निकम्मी भी तो है ,कौवे से ही अपने बच्चे पलवाती है ,आलसन ,माँ के होते हुए भी क्या बच्चे किसी और से पलवाये जाते हैं पर इसे तो बस गाना और आजाद रहना है कोयल तो है ही मानिनी ,पर सुन के भी शान रही और कौवे से पूछा, ये माहौल में बदलाव क्यूँ है ...तो पता चला कि डेंगू फैला हुआ है और रामदेव बाबा ने कहा है की बौर को सुखाके उसका धुंआ देने से मच्छर भाग जाते है और आम के पत्तों के कोंपलों के टहनियों के अम्बियों के और आम के बहुत से आयुर्वेदिक प्रयोग सार्वजनिक कर दिए हैं ,तब से ये परिवार ज्यादा ही इतराने लगा है ..अब प्रभुता पाहि काहू मद नाहीं ,.....,,,,कोयल को बहुत बुरा लगा .इस मौसम की रानी तो मैं हूँ और मैं ही रहूंगी मैं निकम्मी हूँ तो क्या !ये अम्बी ही कौन सा कुछ कर रही है ,बस पवन के संग -संग डोल रही है और इतरा रही है निठल्ली ..बस रूप रंग ही में तो अच्छी है तो मैं कौन बुरी हूँ कृष्ण वर्ण हूँ कान्हा की मुरली की भांति ही पंचम सुर में गाती हूँ ...क्या जुगत भिडाऊं .कि इसका घमंड झड़ जाए ---और फिर बहुत सोच के कोयल बोली -----अरी अम्बी सुन ....बहुत बन रही है न ---माली आयेगा और कच्ची को ही तोड़ के ले जाएगा ----आचार बनादेगा तेरा ,ये इठलाना ,इतराना पींगें बढ़ाना हवा के साथ -साथ -सब चार -दिन की चांदनी है फिर तो सारीउम्र मर्तबान में कैद रहेगी ..वो भी तेल में डूबी हुई ....अरे क्या कह गयी निगोड़ी !अम्बी सिहर उठी ..सच बात है पर कितनी कडवी ,लेकिन हार न मानूंगी मैं ----बोली -----अरी कलमुहीं सुरक्षित भी तो रहूँगी न ,न सडूगी , न गलूंगी सुरक्षित रहने का अचूक नुस्खा ..आचार बन जाओ -----अपने घरके लोगों के साथ रहो ,थोडा नमक ,थोडा मसाला थोडा स्नेह [चिकनाई ]..कभी धूप में तो कभी छावं में---- हा हा हा ----पर तू सोच जब तेरे बच्चे होंगे और कुहू- कुहू बोलेंगे ! निगोड़ी तेरी तो पोल ही खुल जायेगी सब को कौवे से ही सहानुभूति होगी ...तेरी सुरीली आवाज भी तेरे उपर लगा धूर्तता और निकम्मेपन का दाग नहीं हटा पाएगी ...गालियाँ ही मिलेंगी तुझे और कर्मठ और सबकेसाथमिलके रहने वाला कौवा इक बार फिर, घर -घर पितृ -पक्ष में पूजा जाएगा ..और कागभुशुंडी का खानदानी होने का गौरव पायेगा ..जिरह पे जिरह कोई भी हार न माने ....पर ...अब तक अम्बी और कोयल समझ चुकी थीं ,दोनों को साथ -साथ ही रहना है और थोड़े ही समय का साथ है तो क्यूँ न प्यार से रहें ,,दोनों में कुछ कमियां हैं, कुछ खूबियाँ हैं, तो दोनों एक साथ बोली चलो हम सहेली बन जाए और हंसके गलबहियां डाल लीं ..अम्बी बोली, मैं डाल पे इतराऊंगी ,इठलाऊंगी और कोयल तू पंचम सुर में गाना ,अपने सुर की मधुर -मिठास मुझे देकर, इस पेड़ के सारे आमों को मीठा करदेना, मैं तेरा स्वागत करती हूँ ...कोयल ने भी ख़ुशी में गाना शुरू किया और दोपहर संगीत और सुगंध से सराबोर हो गयी ....पर एक बात है अम्बी तो अचार ,मुरब्बा ,चटनी बन के मर्तबान में सुरक्षित हो जायेगी,,कौवा कर्कश कांव-कांव करता हुआभी घर -घर पूजा जाएगा ----खीर खंडवा द्यों तोहे कागा ,सोने की चोंच मढ़ाऊं तोहे कागा .....पर कोयल अकेले रहने की आदत के कारण , दर दर भटकेगी ,,पंचम सुर में सुरीला गाना भी अकेलापन दूर न कर पायेगा ...................................मॉरल आफद स्टोरी ....वैसे तो कई सारी सीखें हैं पर ये पढने वाले पे निर्भर करेगा वो कौन सी सीख लेता है ....और कौनसा कहानी पढके अब कोई सीख लेता है ....मैंने तो खाली दिमाग शैतान का घर ,,,,लिख दी बैठे ठाले .....................आभा .............
*********
बसंत की सुहानी दोपहर ,आम का हरा भरा पेड़ ,पेड़ पे ढेर सी बौर और हरी -हरी अम्बियाँ ...चारों ओर फैली बौर की मदहोश करने वाली सुगंध ,कोयल बहुत दूर से इसे महसूस करती है ,उडती हुई हुई आती है और इस डाल से उस डाल, फुदक -फुदक के पंचम सुर में मस्ती से कुहू -कुहू गाने लगती है ..अम्बियाँ हवा के झूलों पे सवार मस्ती में झूल रही थीं . यौवन के प्रथम सोपान में ,अल्हड़,अक्खड़ अपनी सुन्दरता की नीम बेहोशी में .उन्हें काली- कलूटी का रंग में भंग अच्छा नहीं लगा. कोयल बोली कुहू -कुहू मैं आ गयी!
आम्बियाँ इतराई ..और बोलीं अरी कलूटी कहाँ से आजाती है हर मौसम , कहाँ हमारी डालियों पे.. सुंदर सलोनी,सुनहरी , सुगन्धित बौर , हरी -हरी अम्बियाँ और कहाँ तू काली- कलूटी,. ...सारी छटा ही बिगाड़देती है .....कोयल बड़ी दूर से आयी थी ...उसे विश्वास था ,मैं तो पाहुनी हूँ बौर मेरी बलैयां लेगी ,अम्बियाँ गलबहियाँ डालेंगी ,सदियों से तो ऐसा ही हो रहा है ....बड़ी निराश हुई ....पर हार नहीं मानेगी ...वो तो कोयल है ..पंचम सुर में गाने वाली ...सोचने लगी अब आ ही गयी हूँ तो टिकुंगी पर जुगत भिड़ानी होगी ...चलूँ कौवे से पूंछूं क्या बात है, इतना क्यूँ इतरा रही हैं अम्बियाँ ...खूब झूमके कुहू -कुहू सुनाया कौवे को..अम्बियों ने देखा और बोलीं .बेचारा चाल में फंस गया ..वैसे भी ये धूर्त कोयल हर वर्ष न जाने कितने कौवों के अंडे घोंसलों से गिरा देती है और वहां अपने अंडे रख देती है ..बेचारे को पता भी नहीं चलता ,और ये कलूटी धूर्त के साथ -साथ निकम्मी भी तो है ,कौवे से ही अपने बच्चे पलवाती है ,आलसन ,माँ के होते हुए भी क्या बच्चे किसी और से पलवाये जाते हैं पर इसे तो बस गाना और आजाद रहना है कोयल तो है ही मानिनी ,पर सुन के भी शान रही और कौवे से पूछा, ये माहौल में बदलाव क्यूँ है ...तो पता चला कि डेंगू फैला हुआ है और रामदेव बाबा ने कहा है की बौर को सुखाके उसका धुंआ देने से मच्छर भाग जाते है और आम के पत्तों के कोंपलों के टहनियों के अम्बियों के और आम के बहुत से आयुर्वेदिक प्रयोग सार्वजनिक कर दिए हैं ,तब से ये परिवार ज्यादा ही इतराने लगा है ..अब प्रभुता पाहि काहू मद नाहीं ,.....,,,,कोयल को बहुत बुरा लगा .इस मौसम की रानी तो मैं हूँ और मैं ही रहूंगी मैं निकम्मी हूँ तो क्या !ये अम्बी ही कौन सा कुछ कर रही है ,बस पवन के संग -संग डोल रही है और इतरा रही है निठल्ली ..बस रूप रंग ही में तो अच्छी है तो मैं कौन बुरी हूँ कृष्ण वर्ण हूँ कान्हा की मुरली की भांति ही पंचम सुर में गाती हूँ ...क्या जुगत भिडाऊं .कि इसका घमंड झड़ जाए ---और फिर बहुत सोच के कोयल बोली -----अरी अम्बी सुन ....बहुत बन रही है न ---माली आयेगा और कच्ची को ही तोड़ के ले जाएगा ----आचार बनादेगा तेरा ,ये इठलाना ,इतराना पींगें बढ़ाना हवा के साथ -साथ -सब चार -दिन की चांदनी है फिर तो सारीउम्र मर्तबान में कैद रहेगी ..वो भी तेल में डूबी हुई ....अरे क्या कह गयी निगोड़ी !अम्बी सिहर उठी ..सच बात है पर कितनी कडवी ,लेकिन हार न मानूंगी मैं ----बोली -----अरी कलमुहीं सुरक्षित भी तो रहूँगी न ,न सडूगी , न गलूंगी सुरक्षित रहने का अचूक नुस्खा ..आचार बन जाओ -----अपने घरके लोगों के साथ रहो ,थोडा नमक ,थोडा मसाला थोडा स्नेह [चिकनाई ]..कभी धूप में तो कभी छावं में---- हा हा हा ----पर तू सोच जब तेरे बच्चे होंगे और कुहू- कुहू बोलेंगे ! निगोड़ी तेरी तो पोल ही खुल जायेगी सब को कौवे से ही सहानुभूति होगी ...तेरी सुरीली आवाज भी तेरे उपर लगा धूर्तता और निकम्मेपन का दाग नहीं हटा पाएगी ...गालियाँ ही मिलेंगी तुझे और कर्मठ और सबकेसाथमिलके रहने वाला कौवा इक बार फिर, घर -घर पितृ -पक्ष में पूजा जाएगा ..और कागभुशुंडी का खानदानी होने का गौरव पायेगा ..जिरह पे जिरह कोई भी हार न माने ....पर ...अब तक अम्बी और कोयल समझ चुकी थीं ,दोनों को साथ -साथ ही रहना है और थोड़े ही समय का साथ है तो क्यूँ न प्यार से रहें ,,दोनों में कुछ कमियां हैं, कुछ खूबियाँ हैं, तो दोनों एक साथ बोली चलो हम सहेली बन जाए और हंसके गलबहियां डाल लीं ..अम्बी बोली, मैं डाल पे इतराऊंगी ,इठलाऊंगी और कोयल तू पंचम सुर में गाना ,अपने सुर की मधुर -मिठास मुझे देकर, इस पेड़ के सारे आमों को मीठा करदेना, मैं तेरा स्वागत करती हूँ ...कोयल ने भी ख़ुशी में गाना शुरू किया और दोपहर संगीत और सुगंध से सराबोर हो गयी ....पर एक बात है अम्बी तो अचार ,मुरब्बा ,चटनी बन के मर्तबान में सुरक्षित हो जायेगी,,कौवा कर्कश कांव-कांव करता हुआभी घर -घर पूजा जाएगा ----खीर खंडवा द्यों तोहे कागा ,सोने की चोंच मढ़ाऊं तोहे कागा .....पर कोयल अकेले रहने की आदत के कारण , दर दर भटकेगी ,,पंचम सुर में सुरीला गाना भी अकेलापन दूर न कर पायेगा ...................................मॉरल आफद स्टोरी ....वैसे तो कई सारी सीखें हैं पर ये पढने वाले पे निर्भर करेगा वो कौन सी सीख लेता है ....और कौनसा कहानी पढके अब कोई सीख लेता है ....मैंने तो खाली दिमाग शैतान का घर ,,,,लिख दी बैठे ठाले .....................आभा .............
Thursday, 19 September 2013
*********** श्राद्ध पक्ष ---------- मार्जन तर्पण ***********
*************************
बचपन की यादों में पूज्य पिताजी के नहाने का हडकम्प भी ज्यूँ का त्यूं ताजा है ....जोर जोर से गंगे -यमुनेश्चैव गोदावरी ,सरस्वती से शुरू करके नंदिनी नलिनी सीता मालती च महापगा........स्नानोध्य्त: स्मरेन्नित्यम तत्र -तत्र वसाम्यहम ,,और फिर स्नानके पश्चात कभी पूर्व की और कभी पश्चिम, कभी उत्तर और कभी दक्षिण जनेऊउँगलियों में फंसा के देव तर्पण ,ऋषि तर्पण ,पितृ तर्पण, ...........एकपूरा संस्कार होता था स्नान .....प्रतिदिन ही अपने पूर्वजों को तर्पण देना भी सनातन संस्कारों में शामिल था .....श्राद्ध पक्ष में तो मुझे लगता है सारे ही पितृ हमारे घर आ जाते थे .तर्पण हवन पूजा .....पता नहीं कहाँ -कहाँ से पिताजी की बहने [ध्यानते]आ जाती थीं , गंगी दीदी ,बुद्धि दीदी .गाँव की दूर धार की ..सबको प्यार से मनुहार से खिलाना ,दक्षिणा .....बचपन से ही मैं सोचती थी , जो चले जाते हैं इस दुनिया से वो कैसे तृप्त होते होंगे इस तिल और दूध मिले जल से .......क्यूँ पूर्वज पितृ पक्ष में ही आते हैं . पिता से ,माँ से तर्क भी करती थी पर तर्क का अर्थ क्या होता है ?तर्क का अर्थ होता है ;मनुष्य के सोचने -विचारने की प्रक्रिया ...लेकिन क्या सत्य को सोचने विचारने से जाना गया है कभी ?जिसे हम जानते ही नहीं हैं ,उसे सोचेंगे कैसे ,विचारेंगेकैसे ? सोच विचार तो ज्ञात की परिधि में ही घूमते हैं .और सत्य तो अज्ञात ही नहीं अज्ञेय भी है .........
...विज्ञान की दो सीमायें हैं अज्ञात और ज्ञात |..अज्ञात की सीमा सिकुड़ति जा रही है ...और इसी को विज्ञान विकास कहता है ...जिस दिन सबकुछ का ज्ञान हो जाएगा वो दिन विज्ञान का चरमोत्कर्ष का दिन होगा ,सभ्यता की पराकाष्ठा..और जो कुछ बचेगा वो शिखर होगा गौरी शंकर का ...शून्य ...
लेकिन धर्म की नजरों में एकतीसरी श्रेणी भी है अज्ञेय की .......जिसे कितना भी जानते जाओ तो भी अनजाना रह जाता है .आप दावा कर ही नहीं सकते किआप जान गए हैं ,उस अज्ञेय को ही ईश्वर कहते हैं ....जिसकी बूंद भी हाथ आ गयी तो जीवन रसमय हो जाएगा ...जानकर भी, जान -जान कर भी जो जानने को रह जाता है वही धर्म का रहस्यवाद है .....और इसी में आता है ये पर्व महालया......पूर्वज कहाँ रहते है ?......,कहाँ से आते हैं ? ,वो ऊर्जा रूप में होते हैं या सूक्ष्म शरीर होते है ? ,ये सूक्ष्म शरीर क्या होता है ?......ये सब विषयों पे शास्त्रों में वृहद रूप से आलेख हैं .......और अब तो विज्ञान भी आत्मा को मानने की और अग्रसित है ...पर मेरा मानना तो है की कई बार तर्क और बुद्धि को परे रख के जो बुजुर्गों ने राह दिखाई है उस पे चलने में अंतर्मन उत्साहित होता है ......ये तर्क करने की जगह की पूर्वज कहाँ हैं ....कैसे ग्रहण करेंगे हमारी श्रधा --अंजली .....हम बस श्राद्ध पक्ष को मनाएं ...पूर्वजों का आवाहन करें उन्हें तिलांजलि,जलांजलि समर्पित करें ....गाय,..कौवे ,चींटी ,श्वान को हो सके तो ब्राह्मण या ध्यान्तोंको जिमायें...सच में आनंद आयेगा ....यूँ लगता है की पितरों का आशीष मिल रहा है ....जीवन क्या है सोच ही तो है ....क्या पता इतने बड़े ब्रह्मांड में कोई दूसरा लोक हो .......और कुछ भी नहीं तो होली ,दीवाली भी तो मनाते हैं ..महालय भी उसी ख़ुशी और श्रधा से मनाएं ........सचमुच में ही घर महा -आलय बन जाता है ....यदि हमारे मन में श्रधा है अपने पूर्वजों के प्रति ...हम चाहते है उनका ऋण चुकाना ,उन्हें केवल जलांजलि की आवश्यकता है ..अधिक जो कुछ भी करना चाहें हमारी श्रधा और इच्छा .....धर्म तो अपनी निजी वस्तु है ,जीने का तरीका ,अपने को जानने की प्रक्रिया ...अनन्त के रहस्यों का और उस अज्ञेय को जानने का मार्ग .....मेरी नजरों में मेरा धर्म गीता है और रामायण है ....यदि इन दो ग्रंथों में ही डुबकी लगायें ,तो उसकी सुरभि से हम महकने लगते हैं ........
कुछ लोगों का ये भी कहना होता है की जीतेजी तो माता पिता को पूछा नहीं ,तो मरने पे ये दिखावा क्यूँ ....तो उसपे पहले तो शास्त्रों में यदि लिखा है ,तो श्राद्ध करे अवश्य ...क्या पता गुनाह माफ़ ही हो जाय ,कोई आडम्बर नहीं ,कोई दिखावा नहीं ,केवल ...ॐ आग्छ्न्तु में पितर इमं गृहणन्तु जलांजलिम ......कहके जल तिल ,मधु ,दुग्ध किसी से भी तर्पण करिए ..जो उपलब्ध हो ....जिन माता पिता को जीते जी नहीं पूछा वो बेचारे क्या मरने के बाद भी हमारी श्रधा के हकदार नहीं हैं ........और दूसरे यह की श्राद्ध पक्ष पे पूर्वज हमारे घर आते हैं ,ये सोच और ये मान्यता जीवित पितरों को भी सम्मान देने में सहायक हो सकती है ....भय और डर ....के मनोविज्ञान को हमारे ऋषियों ने बहुत पहले समझ लिया था ......और इसी के कारण वृक्ष ,जल जंगल ,प्रकृति गाय आदि आदि इतनी सदियों तक संरक्षित रह सके ........माता पिता को न पूछने वाली संतान रौरव नर्क में जाती है ...ये डर तो होना ही चाहिए ....चाहे धर्म के नाम पे हो ,,अंध विश्वास के नाम पे हो ...या पोंगापंथी ही कहे जाएँ ....जो भी हो महालय मनाये ...कोई तर्क नहीं ,,,बस विश्वास ,,,,
आभा ,
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बचपन की यादों में पूज्य पिताजी के नहाने का हडकम्प भी ज्यूँ का त्यूं ताजा है ....जोर जोर से गंगे -यमुनेश्चैव गोदावरी ,सरस्वती से शुरू करके नंदिनी नलिनी सीता मालती च महापगा........स्नानोध्य्त: स्मरेन्नित्यम तत्र -तत्र वसाम्यहम ,,और फिर स्नानके पश्चात कभी पूर्व की और कभी पश्चिम, कभी उत्तर और कभी दक्षिण जनेऊउँगलियों में फंसा के देव तर्पण ,ऋषि तर्पण ,पितृ तर्पण, ...........एकपूरा संस्कार होता था स्नान .....प्रतिदिन ही अपने पूर्वजों को तर्पण देना भी सनातन संस्कारों में शामिल था .....श्राद्ध पक्ष में तो मुझे लगता है सारे ही पितृ हमारे घर आ जाते थे .तर्पण हवन पूजा .....पता नहीं कहाँ -कहाँ से पिताजी की बहने [ध्यानते]आ जाती थीं , गंगी दीदी ,बुद्धि दीदी .गाँव की दूर धार की ..सबको प्यार से मनुहार से खिलाना ,दक्षिणा .....बचपन से ही मैं सोचती थी , जो चले जाते हैं इस दुनिया से वो कैसे तृप्त होते होंगे इस तिल और दूध मिले जल से .......क्यूँ पूर्वज पितृ पक्ष में ही आते हैं . पिता से ,माँ से तर्क भी करती थी पर तर्क का अर्थ क्या होता है ?तर्क का अर्थ होता है ;मनुष्य के सोचने -विचारने की प्रक्रिया ...लेकिन क्या सत्य को सोचने विचारने से जाना गया है कभी ?जिसे हम जानते ही नहीं हैं ,उसे सोचेंगे कैसे ,विचारेंगेकैसे ? सोच विचार तो ज्ञात की परिधि में ही घूमते हैं .और सत्य तो अज्ञात ही नहीं अज्ञेय भी है .........
...विज्ञान की दो सीमायें हैं अज्ञात और ज्ञात |..अज्ञात की सीमा सिकुड़ति जा रही है ...और इसी को विज्ञान विकास कहता है ...जिस दिन सबकुछ का ज्ञान हो जाएगा वो दिन विज्ञान का चरमोत्कर्ष का दिन होगा ,सभ्यता की पराकाष्ठा..और जो कुछ बचेगा वो शिखर होगा गौरी शंकर का ...शून्य ...
लेकिन धर्म की नजरों में एकतीसरी श्रेणी भी है अज्ञेय की .......जिसे कितना भी जानते जाओ तो भी अनजाना रह जाता है .आप दावा कर ही नहीं सकते किआप जान गए हैं ,उस अज्ञेय को ही ईश्वर कहते हैं ....जिसकी बूंद भी हाथ आ गयी तो जीवन रसमय हो जाएगा ...जानकर भी, जान -जान कर भी जो जानने को रह जाता है वही धर्म का रहस्यवाद है .....और इसी में आता है ये पर्व महालया......पूर्वज कहाँ रहते है ?......,कहाँ से आते हैं ? ,वो ऊर्जा रूप में होते हैं या सूक्ष्म शरीर होते है ? ,ये सूक्ष्म शरीर क्या होता है ?......ये सब विषयों पे शास्त्रों में वृहद रूप से आलेख हैं .......और अब तो विज्ञान भी आत्मा को मानने की और अग्रसित है ...पर मेरा मानना तो है की कई बार तर्क और बुद्धि को परे रख के जो बुजुर्गों ने राह दिखाई है उस पे चलने में अंतर्मन उत्साहित होता है ......ये तर्क करने की जगह की पूर्वज कहाँ हैं ....कैसे ग्रहण करेंगे हमारी श्रधा --अंजली .....हम बस श्राद्ध पक्ष को मनाएं ...पूर्वजों का आवाहन करें उन्हें तिलांजलि,जलांजलि समर्पित करें ....गाय,..कौवे ,चींटी ,श्वान को हो सके तो ब्राह्मण या ध्यान्तोंको जिमायें...सच में आनंद आयेगा ....यूँ लगता है की पितरों का आशीष मिल रहा है ....जीवन क्या है सोच ही तो है ....क्या पता इतने बड़े ब्रह्मांड में कोई दूसरा लोक हो .......और कुछ भी नहीं तो होली ,दीवाली भी तो मनाते हैं ..महालय भी उसी ख़ुशी और श्रधा से मनाएं ........सचमुच में ही घर महा -आलय बन जाता है ....यदि हमारे मन में श्रधा है अपने पूर्वजों के प्रति ...हम चाहते है उनका ऋण चुकाना ,उन्हें केवल जलांजलि की आवश्यकता है ..अधिक जो कुछ भी करना चाहें हमारी श्रधा और इच्छा .....धर्म तो अपनी निजी वस्तु है ,जीने का तरीका ,अपने को जानने की प्रक्रिया ...अनन्त के रहस्यों का और उस अज्ञेय को जानने का मार्ग .....मेरी नजरों में मेरा धर्म गीता है और रामायण है ....यदि इन दो ग्रंथों में ही डुबकी लगायें ,तो उसकी सुरभि से हम महकने लगते हैं ........
कुछ लोगों का ये भी कहना होता है की जीतेजी तो माता पिता को पूछा नहीं ,तो मरने पे ये दिखावा क्यूँ ....तो उसपे पहले तो शास्त्रों में यदि लिखा है ,तो श्राद्ध करे अवश्य ...क्या पता गुनाह माफ़ ही हो जाय ,कोई आडम्बर नहीं ,कोई दिखावा नहीं ,केवल ...ॐ आग्छ्न्तु में पितर इमं गृहणन्तु जलांजलिम ......कहके जल तिल ,मधु ,दुग्ध किसी से भी तर्पण करिए ..जो उपलब्ध हो ....जिन माता पिता को जीते जी नहीं पूछा वो बेचारे क्या मरने के बाद भी हमारी श्रधा के हकदार नहीं हैं ........और दूसरे यह की श्राद्ध पक्ष पे पूर्वज हमारे घर आते हैं ,ये सोच और ये मान्यता जीवित पितरों को भी सम्मान देने में सहायक हो सकती है ....भय और डर ....के मनोविज्ञान को हमारे ऋषियों ने बहुत पहले समझ लिया था ......और इसी के कारण वृक्ष ,जल जंगल ,प्रकृति गाय आदि आदि इतनी सदियों तक संरक्षित रह सके ........माता पिता को न पूछने वाली संतान रौरव नर्क में जाती है ...ये डर तो होना ही चाहिए ....चाहे धर्म के नाम पे हो ,,अंध विश्वास के नाम पे हो ...या पोंगापंथी ही कहे जाएँ ....जो भी हो महालय मनाये ...कोई तर्क नहीं ,,,बस विश्वास ,,,,
आभा ,
Tuesday, 17 September 2013
शाबर मन्त्र वस्तुतः जंगली मन्त्र हैं और अर्थ एवं उच्चारण की दृष्टि से सर्वथा अशुद्ध होते हैं ये ग्रामीण बोलचाल के प्रतीक हैं और शायद निरर्थक से प्रतीत होने वाले शब्दों के उच्चारण का शरीर में पड़ने वाला प्रभाव ही इनका विज्ञान है एक ऐसी विधा जो आज अपनी अंतिम साँसें ले रही है। ….
वैदिक अथवा अन्य तांत्रिक विद्याओं की तरह इनमे ध्यान ,न्यास ,तर्पण ,मार्जन ,पूजा ,अर्चना। शुद्धि पवित्रता की आवश्यकता नहीं होती। . ……………।
ये मन्त्र स्तुति परक नहीं हैं ,वरनमन्त्र के देव को साधक द्वारा चुनौती पूर्ण भाषा में आज्ञा दी जाती है।
और साथ ही सौगंध और चुनौती दे कर मन्त्र से काम लिया जाता है ,ये शायद इसलिए कि देवाधिदेव महादेव ने यदि स्वयं ही इन मन्त्रों को बनाया है तो वो इनकी स्तुति क्यूँ करेंगे ,आज्ञा ही देंगे और यदि मन्त्र कहना मानने में आनाकानी करे तो धमका देंगे। इन मन्त्रों की सबसे प्रमुख विशेषता है गुरु भक्ति और गुरु पे अंध-विश्वास। ……। तीन लोक नव खंड में गुरु ते बड़ा न कोई ,करता करे न करीसके ,गुरु करे से होई। . … आत्म शक्ति ,खुद पे , अपने मन्त्र पे अपने गुरु पे गुरुर की हद तक विश्वास ये शाबर मन्त्रों की सफलता की मुख्य कड़ी है। …. और शाबर मन्त्रों के अंत में शब्द साचा ,पिंड काचा ,फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा पूर्ण आत्म विश्वास के साथ कहा जाता है अर्थात शब्द को इश्वर की वाणी के रूप में स्वीकार किया जाता है। … कुछ शाबर मन्त्र जो मेरे संज्ञान में है। ………………………………….
१। … पीलिया झाड़नेका , …………… जिसको पीलिया हुआ है उसके सर पे कांसे की कटोरी में तिलका तेल रखे और कुशासे उस तेल को चलाते हुए नीचे लिखे मन्त्र को सात बार लगातार तीन दिन तक पढ़े। …………. "ॐ नमो वीर बेताल कराल ,नारसिंहदेव ,नार कहे तू देव खादी तू बादी,पीलिया कूंभिदाती,कारै-झारै पीलिया रहै न एक निशान ,जो कहीं रह जाय तो हनुमंत जातिकी आन। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति,फुरो मन्त्र ,ईश्वरो वाचा।'' ………………
२। … आधा सर दर्द [माइग्रेन ]मिटाने का ………………………''वन में ब्याई अंजनी ,कच्चे बन फूल खाय। हाक मारी हनुमंत ने इस पिंड से आधा सीस उतर जाय। ''
३। …लकवा ठीक करने का मन्त्र। ………. ॐ नमो गुरुदेवाय नम:. ॐ नमो उस्ताद गुरु कूं ,ॐ नमो आदेश गुरु कूं ,जमीन आसमान कूं ,आदेश पवन पाणी कूं ,आदेश चन्द्र -सूरज कूं ,आदेश नव नाथ चौरासी सिद्ध कूं ,आदेश गूंगी देवी ,बहरी देवी ,लूली देवी ,पांगुलीदेवी ,आकाश देवी ,पटल देवी ,उलूकणीदेवी ,पूंकणीदेवी ,टुंकटुकीदेवी ,आटीदेवी ,चन्द्र -गेहलीदेवी ,हनुमान जाति अन्जनीका पूत ,पवन का न्याती ,वज्र का कांच वज्र का लंगोटा ज्यूँ चले ज्यूँ चल ,हनुमान जाति की गदा चले ज्यूँ चल ,राजा रामचन्द्र का बाण चले ज्यूँ चल,गंगा जमुना का नीर चले ज्यूँ चल ,कुम्हार को चाक चले ज्यूँ चल गुरु की शक्ति ,हमारी भक्ति ,चलो मन्त्र ईश्वरो वाचा। …… ४ सर्व रोग मारक शिव मन्त्र ,…………वन में बैठी वानरी अंजनी जायो हनुमंत ,बाला डमरू ब्याही बिलाई आँख की पीड़ा ,मस्तक पीड़ा ,चौरासी ,वाई ,बली -बली भस्म हो जाय ,पके न फूटे ,पीड़ा करे ,तो गोरखजाति रक्षा करे गुरु की शक्ति मेरी भक्ति ,फुरो मन्त्र ,ईश्वरो वाचा। ……………………।
५ बिच्छूका डंक उतरना , ……………… ''ॐ नमो आदेश गुरु का ,काला बिच्छू कंकरीयाला ,सोना का डंक ,रुपे का भाला,उतरे तो उतारूँ ,चढ़े तो मारूं।नीलकंठ मोर ,गरुड़ का आयेगा ,मोर खायेगा तोड़ ,जा रे बिच्छू डंक छोड़ ,मेरी भक्ति ,गुरु की शक्ति फुरो मन्त्र ,ईश्वरो वाचा। ………. इस मन्त्र का १०८ झाडा नीम की डाल का लगाना है। ……………………… सर्प के विष को उता रने के कई सारे मन्त्र हैं मैं एक लिख रही हूँ , ………………. ॐ नमो पर्वताग्रे रथो आंती,विटबड़ा कोटि तन्य बीरडर पंचनशपनं पुरमुरी अंसडी तनय तक्षक नागिनी आण,रुद्रिणी आण,गरुड़ की आण। शेषनाग की आण ,विष उड़नति,फुरु फुरु फुरु ॐ डाकू रडती ,भरडा भरडती विष तू दंती उदकान ''….
६.…. नजर उतारने का मन्त्र। ……………''ॐ नमो सत्य नाम आदेश गुरु को ,ॐ नमो नजर जहाँ पर पीर न जानि ,बोले छल सों अमृत बानी। कहो कहाँ ते आयी ,यहाँ की ठौर तोहे कौन बताई। कौन जात तेरी का ठाम,किसकी बेटी कहो तेरो नाम ,कहाँ से उड़ीकहाँ को जाया ,अब ही बस करले तेरी माया।मेरी बात सुनो चित्त लगाय,जैसी होय सुनाऊँ आय। तेलन तमोलन चुहडी चमारी ,काय थनी ,खतरानी कुम्हारी। महतरानी,राजा की रानी ,जाको दोष ताहि सर पे पड़े ,हनुमत वीर नजर से रक्षा करे। मेरी भक्ति ,गुरु की शक्ति फुरो मन्त्र ,ईश्वरो वाचा।'' … इस तरह इतने शाबर मन्त्र हैं की पूरा एक बड़ा ग्रन्थ बन जाए। स्वमूत्र चिकित्सा भी शाबर मन्त्रों पे ही आधारित है ,जिसमे शिवजी ने पार्वती को इसके नियम बताये हैं। ….इन शाबर मन्त्रों के रहस्य को समझना बहुत ही मुश्किल है. आज ये विधा अपनी समाप्ति की ओर है। इसमें गुरु का ही महत्व है वो ही बताता है किकिस मन्त्र को कैसे सिद्ध करना है और कितनी बार पढना है। . और एक सबसे अहं बात ये मन्त्र कमाई का जरिया नहीं बन सकते। ये तो सेवा और कल्याण के लिए होते हैं … अवश्य शब्दों से निकलने वाली तरगें ही इनके पीछे का विज्ञान होंगी और कितने बार और किस वृक्ष की छाया में बैठ के इन्हें बोलना है। … मैंने देखा है की जैसे सांप के काटने की दवाई उसके ही जहरसे बनती है वैसे ही इन शाबर मन्त्रों में भी रोग के मुताबिक़ ही शब्द बोले जाते हैं और उच्चारण में उतार चढाव, आवाज की दृढ़ता और तीव्रता होती है। कैंसर के मन्त्र में तो जो शब्द हैं सुन के ही लगता है मानो, सर्जरी हो रही है ,…। काश ये विधा आज भी जीवित हो कहीं। …. तो शोध का विषय बन जाए। मुझे पता है बुद्धि जीवियों को ये बकवास लगेगी पर यदि दिमागी घोड़े दौड़ाएंगे और सोच को विस्तृत करेंगे तो इन शाबर मन्त्रों में वही चमत्कार है जो घंटे ,घडियाल। शंख ,मृदंग और वीणा मे या यूँ कहें संगीत में होता है। … शिव शक्ति को समर्पित।,,,,,,,,,, आभा ,,,,,,,,,,,,
Sunday, 15 September 2013
आज दिमाग को आराम फरमाने का आदेश दिया है ... बुद्धिजीवियों वाले कोई विचार नहीं इंटरटेन करने है , विचार हैं की उछल-कूद मचा रहे है ...मैं इन्हें शट-अप कर रही हूँ ...अरे छुट्टी दी है तो चुप बैठो न क्यूँ मल्टीनेशनल कम्पनियों के नुमाइंदों की मानिंद work from home ,करने को विवश हो पर अफ़सोस ये दिमाग जब अपने को बुद्धिजीवी मानने लगता है तो क्या शांत बैठ सकता है ,----सो कुछ तो सोचना ही पड़ेगा पर विषय भिन्न होगा ...जीवन को समझते ही जो मूलभूत भावना मन में आती है उसकी चर्चा ...अनुभूतियों में लिपटी अत्मानुभूति ..काव्य जीवन का आधार इश्क उस अज्ञात से! उसे जानने की कोशिश चंद शायरों की जुबानी .....मिलन की तडप महादेवी के शब्दों में .
अलि कहाँ सन्देश भेजूं ,
मैं किसे सन्देश भेजूं ,
एक सुधि अनजान उनकी ,
दूसरापहचान मन की ,
पुलक का उपहार दूँ या अश्रु भार अशेष भेजूं ....................प्रसाद के शब्दों में इश्क की पीड़ा ...........'.......................................................................................
.अरे बतादो मुझे दया कर,कहाँ प्रवासी है मेरा ,उसी बावले से मिलने को डालरही हूँ मैं फेरा ..'.......................प्रेम समस्त काव्य का आधार है ,करुना की भावना ,श्रृंगार हो या वियोग ,इश्क का कारखाना है .............सो आज विचार इस इश्क पर ही केन्द्रित ......
.........इश्क अख्तियार करो कि इश्क ही कारखाना पर मुसल्लत है ; अगर इश्क न होता तो तमाम निजाम दरहम -बरहमहो जाता ;बे इश्क की जिंदगानी बवाल है और इश्क में दिल खोना अस्लेकमाल है इश्क ही बनाताहै ;इश्क ही बिगाड़ता है कहते हैं आलममें जो कुछ भी है इश्क का जहूर है;आग सोजे इश्क है ;पानी रफ्तारे इश्क है ;ख़ाक करारे इश्क है ;हवा इजतरारे इश्क है ; मौज इश्क की मस्ती है ;हयात इश्क की होशियारी है ;रात इश्क का ख़्वाब है ;दिन इश्क की बेदारी है ;यहाँ तक किआसमानों की हरकत हरकते इश्की है इश्क की इन्तहां रब की यारी है ;........... शायर कहो ,कवि कहो या संत और सूफी कहो ...जब अपने को पहचान जाता है और प्रभु से मिलन हो जाता है तो उसकी अवस्था क्या होती है .........जब मैं था तब हरी नहीं ,अब हरी हैं मैं नाहि,सब अंधियारा मिट गया दीपक देख्या माहीं; ..................
मेरे तो बस गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ;...................................................
मूर्छित थीं इन्द्रियाँ ,स्तब्ध जगत ;
जड़ चेतन सब एकाकार ;
शून्य विश्व के उर में केवल ;सांसों का आना जाना ;
......इश्क ही इश्क है जहाँ देखो ;
सारे आलम में भर रहा है इश्क ;
इश्क माशूक, इश्क आशिक है ;
यानी अपना ही मुब्तला [११ ]है इश्क ;
कौन मकसद को इश्कबिन पहुंचा ;
आरजू इश्क ,मुद्दआ है इश्क ;
दर्द खुद ही ,खुद ही दवा है इश्क ,
सच्चे हैं शायरां,खुदा है इश्क ;....मीर ]
और प्रसाद के शब्दों में --------------
जिसमें सुख -दुःख मिलकर मन के उत्सव आनंद मानते हों ,
उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं ....
हाँ यही है अनंत काल से शुरू हुई मन की यात्रा ,,जिसमे कितने ही किस्से-कहानियाँ समाई है ,जिसमे मीरा समा गयी ,राधा अपने को भूल गयी ,प्रहलाद और ध्रुव ने खोकर अपने को ;उस प्रभु को सबकुछ प्राप्त किया ;यही है इश्क ,प्रेम लगन ...जहाँ सब कुछ खोकर पाना होता है ..
.शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना की को लगा यह मरण का बहाना ......
ओफोह मैंने तो दिमाग को छुट्टी दे के आराम करने भेजा था और यूँ ही इश्क की दास्तान यद् आ गयी; बैठे -ठाले दिमाग को आराम देने का इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता है ......सब बुझे दीपक जला लूँ ! घिर रहा तम आज दीपक -रागिनी अपनी जला लूँ ...........अजय को श्रधान्जली स्वरूप ...आभा .......
अलि कहाँ सन्देश भेजूं ,
मैं किसे सन्देश भेजूं ,
एक सुधि अनजान उनकी ,
दूसरापहचान मन की ,
पुलक का उपहार दूँ या अश्रु भार अशेष भेजूं ....................प्रसाद के शब्दों में इश्क की पीड़ा ...........'.......................................................................................
.अरे बतादो मुझे दया कर,कहाँ प्रवासी है मेरा ,उसी बावले से मिलने को डालरही हूँ मैं फेरा ..'.......................प्रेम समस्त काव्य का आधार है ,करुना की भावना ,श्रृंगार हो या वियोग ,इश्क का कारखाना है .............सो आज विचार इस इश्क पर ही केन्द्रित ......
.........इश्क अख्तियार करो कि इश्क ही कारखाना पर मुसल्लत है ; अगर इश्क न होता तो तमाम निजाम दरहम -बरहमहो जाता ;बे इश्क की जिंदगानी बवाल है और इश्क में दिल खोना अस्लेकमाल है इश्क ही बनाताहै ;इश्क ही बिगाड़ता है कहते हैं आलममें जो कुछ भी है इश्क का जहूर है;आग सोजे इश्क है ;पानी रफ्तारे इश्क है ;ख़ाक करारे इश्क है ;हवा इजतरारे इश्क है ; मौज इश्क की मस्ती है ;हयात इश्क की होशियारी है ;रात इश्क का ख़्वाब है ;दिन इश्क की बेदारी है ;यहाँ तक किआसमानों की हरकत हरकते इश्की है इश्क की इन्तहां रब की यारी है ;........... शायर कहो ,कवि कहो या संत और सूफी कहो ...जब अपने को पहचान जाता है और प्रभु से मिलन हो जाता है तो उसकी अवस्था क्या होती है .........जब मैं था तब हरी नहीं ,अब हरी हैं मैं नाहि,सब अंधियारा मिट गया दीपक देख्या माहीं; ..................
मेरे तो बस गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ;...................................................
मूर्छित थीं इन्द्रियाँ ,स्तब्ध जगत ;
जड़ चेतन सब एकाकार ;
शून्य विश्व के उर में केवल ;सांसों का आना जाना ;
......इश्क ही इश्क है जहाँ देखो ;
सारे आलम में भर रहा है इश्क ;
इश्क माशूक, इश्क आशिक है ;
यानी अपना ही मुब्तला [११ ]है इश्क ;
कौन मकसद को इश्कबिन पहुंचा ;
आरजू इश्क ,मुद्दआ है इश्क ;
दर्द खुद ही ,खुद ही दवा है इश्क ,
सच्चे हैं शायरां,खुदा है इश्क ;....मीर ]
और प्रसाद के शब्दों में --------------
जिसमें सुख -दुःख मिलकर मन के उत्सव आनंद मानते हों ,
उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं ....
हाँ यही है अनंत काल से शुरू हुई मन की यात्रा ,,जिसमे कितने ही किस्से-कहानियाँ समाई है ,जिसमे मीरा समा गयी ,राधा अपने को भूल गयी ,प्रहलाद और ध्रुव ने खोकर अपने को ;उस प्रभु को सबकुछ प्राप्त किया ;यही है इश्क ,प्रेम लगन ...जहाँ सब कुछ खोकर पाना होता है ..
.शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना की को लगा यह मरण का बहाना ......
ओफोह मैंने तो दिमाग को छुट्टी दे के आराम करने भेजा था और यूँ ही इश्क की दास्तान यद् आ गयी; बैठे -ठाले दिमाग को आराम देने का इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता है ......सब बुझे दीपक जला लूँ ! घिर रहा तम आज दीपक -रागिनी अपनी जला लूँ ...........अजय को श्रधान्जली स्वरूप ...आभा .......
आज दिमाग को आराम फरमाने का आदेश दिया है ... बुद्धिजीवियों वाले कोई विचार नहीं इंटरटेन करने है , विचार हैं की उछल-कूद मचा रहे है ...मैंने शट-अप कर रही हूँ ...अरे छुट्टी दी है तो चुप बैठो न क्यूँ मल्टीनेशनल कम्पनियों के नुमाइंदों की मानिंद work from home ,करने को विवश हो पर अफ़सोस ये दिमाग जब अपने को बुद्धिजीवी मानने लगता है तो क्या शांत बैठ सकता है ,----सो कुछ तो सोचना ही पड़ेगा पर विषय भिन्न होगा ...जीवन को समझते ही जो मूलभूत भावना मन में आती है उसकी चर्चा ...अनुभूतियों में लिपटी अत्मानुभूति ..काव्य जीवन का आधार इश्क उस अज्ञात से और उसे जानने की कोशिश चंद शायरों की जुबानी .....मिलन की तडप महादेवी के शब्दों में .
अलि कहाँ सन्देश भेजूं ,
मैं किसे सन्देश भेजूं ,
एक सुधि अनजान उनकी ,
दूसरापहचान मन की ,
पुलक का उपहार दूँ या अश्रु भार अशेष भेजूं ....................प्रसाद के शब्दों में इश्क की पीड़ा ...........'.अरे बतादो मुझे दया कर,कहाँ प्रवासी है मेरा ,उसी बावले से मिलने को डालरही हूँ मैं फेरा '..........प्रेम समस्त काव्य का आधार है ,करुना की भावना ,श्रृंगार हो या वियोग ,इश्क का कारखाना है .............सो आज विचार इस इश्क पर ही केन्द्रित ..
.........इश्क अख्तियार करो कि इश्क ही कारखाना पर मुसल्लत [१ ]है ; अगर इश्क न होता तो तमाम निजाम [२ ]दरहम -बरहम[३ ]हो जाता ;बे इश्क की जिंदगानी बवाल है और इश्क में दिल खोना अस्लेकमाल है इश्क ही बनाताहै ;इश्क ही बिगाड़ता है कहते हैं आलम [४ ] में जो कुछ भी है इश्क का जहूर[५ ] है;आग सोजे [६ ] इश्क है ;पानी रफ्तारे इश्क है ;ख़ाक करारे इश्क है ;हवा इजतरारे [७ ] इश्क है ; मौज इश्क की मस्ती है ;हयात [८ ]इश्क की होशियारी है ;रात इश्क का ख़्वाब है ;दिन इश्क की बेदारी[९ ] है ;यहाँ तक किआसमानों की हरकत हरकते इश्की[१० ] है इश्क की इन्तहां रब की यारी है ;........... शायर कहो ,कवि कहो या संत और सूफी कहो ...जब अपने को पहचान जाता है और प्रभु से मिलन हो जाता है तो उसकी अवस्था क्या होती है .........जब मैं था तब हरी नहीं ,अब हरी हैं मैं नाहि,सब अंधियारा मिट गया दीपक देख्या माहीं; ..................
मेरे तो बस गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ;...................................................
मूर्छित थीं इन्द्रियाँ ,स्तब्ध जगत ;
जड़ चेतन सब एकाकार ;
शून्य विश्व के उर में केवल ;सांसों का आना जाना ;
......इश्क ही इश्क है जहाँ देखो ;
सारे आलम में भर रहा है इश्क ;
इश्क माशूक, इश्क आशिक है ;
यानी अपना ही मुब्तला [११ ]है इश्क ;
कौन मकसद को इश्कबिन पहुंचा ;
आरजू इश्क ,मुद्दआ है इश्क ;
दर्द खुद ही ,खुद ही दवा है इश्क ,
सच्चे हैं शायरां,खुदा है इश्क ;....मीर ]
और प्रसाद के शब्दों में --------------
जिसमें सुख -दुःख मिलकर मन के उत्सव आनंद मानते हों ,
उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं ....
हाँ यही है अनंत काल से शुरू हुई मन की यात्रा ,,जिसमे कितने ही किस्से-कहानियाँ समाई है ,जिसमे मीरा समा गयी ,राधा अपने को भूल गयी ,प्रहलाद और ध्रुव ने खोकर अपने को ;उस प्रभु को सबकुछ प्राप्त किया ;यही है इश्क ,प्रेम लगन ...जहाँ सब कुछ खोकर पाना होता है ..
.शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना की को लगा यह मरण का बहाना ......
ओफोह मैंने तो दिमाग को छुट्टी दे के आराम करने भेजा था और यूँ ही इश्क की दास्तान यद् आ गयी; बैठे -ठाले दिमाग को आराम देने का इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता है ......सब बुझे दीपक जला लूँ ! घिर रहा तम आज दीपक -रागिनी अपनी जला लूँ ...........अजी को श्रधान्जली स्वरूप ...आभा .......
अलि कहाँ सन्देश भेजूं ,
मैं किसे सन्देश भेजूं ,
एक सुधि अनजान उनकी ,
दूसरापहचान मन की ,
पुलक का उपहार दूँ या अश्रु भार अशेष भेजूं ....................प्रसाद के शब्दों में इश्क की पीड़ा ...........'.अरे बतादो मुझे दया कर,कहाँ प्रवासी है मेरा ,उसी बावले से मिलने को डालरही हूँ मैं फेरा '..........प्रेम समस्त काव्य का आधार है ,करुना की भावना ,श्रृंगार हो या वियोग ,इश्क का कारखाना है .............सो आज विचार इस इश्क पर ही केन्द्रित ..
.........इश्क अख्तियार करो कि इश्क ही कारखाना पर मुसल्लत [१ ]है ; अगर इश्क न होता तो तमाम निजाम [२ ]दरहम -बरहम[३ ]हो जाता ;बे इश्क की जिंदगानी बवाल है और इश्क में दिल खोना अस्लेकमाल है इश्क ही बनाताहै ;इश्क ही बिगाड़ता है कहते हैं आलम [४ ] में जो कुछ भी है इश्क का जहूर[५ ] है;आग सोजे [६ ] इश्क है ;पानी रफ्तारे इश्क है ;ख़ाक करारे इश्क है ;हवा इजतरारे [७ ] इश्क है ; मौज इश्क की मस्ती है ;हयात [८ ]इश्क की होशियारी है ;रात इश्क का ख़्वाब है ;दिन इश्क की बेदारी[९ ] है ;यहाँ तक किआसमानों की हरकत हरकते इश्की[१० ] है इश्क की इन्तहां रब की यारी है ;........... शायर कहो ,कवि कहो या संत और सूफी कहो ...जब अपने को पहचान जाता है और प्रभु से मिलन हो जाता है तो उसकी अवस्था क्या होती है .........जब मैं था तब हरी नहीं ,अब हरी हैं मैं नाहि,सब अंधियारा मिट गया दीपक देख्या माहीं; ..................
मेरे तो बस गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ;...................................................
मूर्छित थीं इन्द्रियाँ ,स्तब्ध जगत ;
जड़ चेतन सब एकाकार ;
शून्य विश्व के उर में केवल ;सांसों का आना जाना ;
......इश्क ही इश्क है जहाँ देखो ;
सारे आलम में भर रहा है इश्क ;
इश्क माशूक, इश्क आशिक है ;
यानी अपना ही मुब्तला [११ ]है इश्क ;
कौन मकसद को इश्कबिन पहुंचा ;
आरजू इश्क ,मुद्दआ है इश्क ;
दर्द खुद ही ,खुद ही दवा है इश्क ,
सच्चे हैं शायरां,खुदा है इश्क ;....मीर ]
और प्रसाद के शब्दों में --------------
जिसमें सुख -दुःख मिलकर मन के उत्सव आनंद मानते हों ,
उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं ....
हाँ यही है अनंत काल से शुरू हुई मन की यात्रा ,,जिसमे कितने ही किस्से-कहानियाँ समाई है ,जिसमे मीरा समा गयी ,राधा अपने को भूल गयी ,प्रहलाद और ध्रुव ने खोकर अपने को ;उस प्रभु को सबकुछ प्राप्त किया ;यही है इश्क ,प्रेम लगन ...जहाँ सब कुछ खोकर पाना होता है ..
.शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना की को लगा यह मरण का बहाना ......
ओफोह मैंने तो दिमाग को छुट्टी दे के आराम करने भेजा था और यूँ ही इश्क की दास्तान यद् आ गयी; बैठे -ठाले दिमाग को आराम देने का इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता है ......सब बुझे दीपक जला लूँ ! घिर रहा तम आज दीपक -रागिनी अपनी जला लूँ ...........अजी को श्रधान्जली स्वरूप ...आभा .......
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