Wednesday, 26 December 2012

     फलक को छूने को पंख परवाज तो बनने लगे हैं लेकिन ,
     जालिम    शिकारी  का  हथियार  बहुत  पैना    है ......आभा ...।

Wednesday, 7 November 2012

yadon ke jharokhon se

                                 {   दुःख मधु से भरे दो नयन ,पारद झील में मानो राजहंस   }
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         नयनों की नीलम सी सुंदर दो झीलें ,
         मधु यादों के मोती तैरा करते इनमे .
               नयनों में नीर भरा जो यह .
               अश्रु नहीं कह सकती इनको ,
               ये तो मानसरोवर मेरे -
               स्वर्णिम यादों के तेरे ,
               राजहंस हैं इनमे तिरते .
        ब्रह्म कमल से  खिल - जाते हैं
        तेरी यादों के सब साये -------
        करुणा की यह नहीं बानगी  ,
        ये अश्रु मेरे आलम्बन हैं .
                 धरोहरें हैं ,कुछ -कुछ हैं सीखें .
                 साथ -साथ जो सुलझाई थीं ,
                 कठिन सरल जीवन की उलझन .
                 जो कुछ तूने सिखलाया था ,
                 वारूं मैं अपनी संतति पे ,
                 मधुसार सी वह स्नेहिल चितवन ।
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,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,आभा ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,यादों के राजहंस




     
                             
            

                                                              

Thursday, 25 October 2012

                        {  आज 11 महीने हो गए हैं अजय। लगता है अभी कहीं से सामने आ जाओग।  }
                         ....................................................................................................................
   कल तक साथ चली मैं जिसके ,आज वही है इक सपना .
   ये सपना ही संबल मेरा है , मेरे जीवन की अभिलाषा है   .
   सपनों का मोल भाव न होता ,सुख -दुःख में न तोले जाते   हैं .
   धरती में ज्यों पावन गंगा ,नयन- व्योम में ये मधु -रस हैं .
   गंगा की लचकीली लहरों में ,तिरते सपनों को देख रही मैं ,
   कुछ धवल कुछ नारंगी सा-रोमांचित करता प्रकाश वह ,
   स्वर्णिम रेशम सी किरणों संग नीलम से नील व्योम सेआकर
   गंगा की लहरों पर पड़ता ,झिलमिल स्वर्ण रजत सा मोहक --
   लहरों को ज्यों पहनाया हो ,इंगूरी स्वर्णिम आभूषण .
   स्वर्णिम लहंगा पहने लहरें -यूं इठलाती गोता खाती ,
   ज्यूँ नखरीली दुल्हन कोई -पी के आने की आहट पाती .
  क्या ही स्वर्णिम दृश्य बना है ,झिलमिल लहरें जगमग-जगमग .
   कितने रूप -कितने रंगों में -लहरों पर जब पडती किरणे ,
   रोम-रोम पुलकित होता है -सपनीली दुनियां ही है यह ,
    आज साँझ की इस बेला में -भुवन-भास्कर क्रोधित से हैं ,
    कुमकुम रंगीं स्वर्णिम किरणे जन-जन को अकुलाती हैं .
   पर जब गंगा की लहरों पर आतप ,स्वर्णिम रेशम निर्झर सा झरता ,
   ऊष्मा उस भुवन -भास्कर की पल में शीतल हो जाती है .
    गंगा की लहर- लहरपर छवि मैंने अपनी देखी है ,
    लहर -लहर में छवि पडती है ,हर-एक लहर में बिखर जाती है .
   पर गहरे पानी में देखी ,स्थिर छवि वहीँ खड़ी है !,
   गति विराम हों एक जगह गंगा की धारा में मैंने देखा ,
   जीवन के दो सपने ऊष्मा और शीतलता संग संग ,
   गति विराम हों एक ही तल परगंगा में ही सच होते हैं
   समाधिस्थ सी यह गंगा सदियों से यूँ ही बहती है ,
    तुम ही मेरी सिद्धि बनों माँ ,तुम जैसी ही मैं बन जाऊं ,
   गति-विराम परस्पर जी लूँ प्रेम पगा हो मेरा जीवन ,
   साधक बन कर रहूँ जगत में ,मुझे नहीं विश्राम चाहिए ,
   गतिशीलता निरन्तरता ,इस जीवन का प्रवाह चाहिए .
   गति ही मेरा मानदंड हो ,पथ ही लक्ष्य रहे मेरा
   मेरे नयनों के सपनों को तेरा ही वरदान मिले .
   सूरज के आतप की शीतलता का दान मिले ,
   मेरे जीवन की आभा को ,तेरा अमृत -गान मिले
   सुर संगीत मिले लहरों सा ,गति हो लहरों सी चंचल .
  मन की गहराई में प्रियतम की स्थिर छवि का अभिमान मिले .
  स्वप्न अजय हो मेरा लहर -लहर में छवि वही
   ज्वालाओं के पार खड़ा जो तू उस पथ की खेवनहार बने ,
   एक यही जीवन अभिलाषा पथ ही मेरा लक्ष्य बने .........................
...........................................................................................
  कितना आसाँ है कहना भूल जाओ ,
  कितना मुश्किल है पर भूल जाना .................................................
........................................................................श्रधान्जली अजय ............आभा


 












Wednesday, 3 October 2012

Vah Pitaa Hmara Pthprdrshk Brhm-Prem Ras -Dhara Hai

                                                                   {   पिता को समर्पित }
  

अपने जीवन में सब दो पिताओं को बहुत नजदीक से देख ते हैं।एक अपने पिताको और एक अपने बच्चों के पिता को दोनों की जिजीविषा और  कर्मठता ही हमारे परिवार का अधार  होती है। यह कविता मेरे  इन्ही कुछ भावो को प्रकट करती है ........................................................................................................................................
....................................................................................................................................................................
        जीवन के इस महा समर में ,घिर जाते हैं जब हम तम में ,
        राहू -केतु  बन विपदायें दावानल सी दहलाती हैं ,
        कर्मयोगि बन पथ को साधो ,निर्माणों का मार्ग दिखाता है .
        वह पिता हमारा! पथ-प्रदर्शक, ब्रह्म-प्रेम, रस-धाराहै ......................
 माँ के कोमल सुरभित भावों को ,जीवन पथ पर दृढ़ता देता है ,
 अटल विश्वास ,ध्रुव चेतना संग -असी- धारा पे चलना सिखलाता है ,
 अपने विवेक ,मर्यादा  औ अनुपम व्यवहारों से ---------------
 बाधाओं के गिरि शिखरों पर जो, हमको ,चलना सिखलाता है ,
           वह   पिता हमारा पथ-प्रदर्शक ,ब्रह्म-प्रेम ,रस-धारा है ........................
 तोड़ कर श्रृंगों का सीना ,सरिता बन बह जाओ तुम ,
  कोटि दावानलों की लौ में, शलभ बन जल जाओ तुम ,
  दृढ हृदय के सामने यातनायें भी थकेंगी
  जीवन की वैतरणी तरने को -स्थिति -प्रज्ञ बन जाओ तुम ,
कटु प्रहारों को सह कर जो ,दृढ रहना सिखलाता है ,
लक्ष्यपर चलते रहो ,उद्यम का मार्ग दिखाता है ,
       वह  पिता हमारा ,पथ -प्रदर्शक ,ब्रह्म -प्रेम ,रस -धारा है .................
  संतानों के लिये पिता -चिंता-दावानल में जलता है ,
  पर दृढ-प्रतिज्ञ सा धीर- वीर वह,तरुण तपस्वी लगता है ,
  ध्येय-निष्ठा से कर्म-वीर वह ,गरल  पान करता रहता ,
अपमानों या स्नेहों  की कभी नहीं नहीं चिंता करता।
   कर्मयोग के पथिक पिता तुम मुझको सम्बल देते हो
   चल उठ कर फिर शक्ति साधना ,उल्लासों से भर देते हो .
   अनुलेपन सा मधु-स्पर्श तुम्हारा ,नव जीवन भर देता है ,
श्रम-सागर मथने को उधत होऊं ,कर्तव्य दीक्षा  देते हो ,
     वह मुस्कान अनोखी है जो ,शिव का भाव जगाती है .
     मधुर हास्य वह पिता तुम्हारा ,मेरा सम्बल बन जाता है .
              आज मैं नैवेद्य बनकर ,
               श्रधा सुमन की लेखनी ले ,
               दृढ़ता की घंटियां बजाकर ,
               अर्चना के थाल में ,
               दीप पिता की सीखों के जलाये ,
               पद वन्दना करने हूँ आयी ,
               नमन पिता को करने हूँ आई


    





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Monday, 1 October 2012

Buddhaa hogaa teraa baap ...budhaape ki trunaayi

                                                                  {  बुढापे की तरुणाई }
                                                                   ...............................
भ्रर्तहरी जी कह गये वे नर पशू समान ,काव्य कला संगीत का जिन्हें नहीं है ज्ञान .              
जिन्हें नहीं है ज्ञान समझलो उनको ऐसे ,पूंछ -सींग से रहित जानवर होता जैसे .
आज आस पास बिखरे मेरे ऐसे ही कुछ पशु मायावी ,
हास्य रस का घोट गला बुद्धिमानों पर हावी .
इसीलिये हम हो गये आज मंच आसीन ,
हंसें हंसाये व्यंग करें अपने सुर में लीन .
अपने सुर में लीं सुनायें कविता ऐसी ,
चहके महफिल पढने सुनने वाले पीटें  ताली ,
कहें वाह-वाह कवियत्री क्या ही मृदुल ,मोहक ?भाषा वाली .
    तो मेरे बुद्धिमान कद्रदान ,अकलमान दोस्तों ,----
तरुणाई जब बुढापे की तरफ बढती है ,
कैसे-कैसे गुल खिलाती है ;-----------
क्या कहते हैं ?बच्चों को ही जवानी आती है ,
जी नहीं बुढापे भी तरुणाई छाती है .
बुढापे की तरुणाई ,पूरी तरह से खेली -खायी ,
बालों पे आई है चांदी उतर ,
दांत भी छोड़ रहे हैं साथ ,
चलें चार कदम तो फूलती है साँस ,
रह -रह कर उठता है दिल में दर्द .....
    शायद बूढा लगा है होने तन !!!तो क्या गम ???
मन में तो मेरे आज भी उठती है उमंग .
रूपसी कन्या हो या हो प्रौढा युवती ,
देख मन में आज भी हिलोरें उठती ,.
नाचने लगताहै मन का मोर ,मन गुनगुनाये ,
आज फिर जीने की तमन्ना है ,
मधुबन में राधिका नाचिरे ...
    अक्ल से लबालब है बुद्धिमान बुजुर्ग ,
पर क्या नाजुक मिजाज इश्क उठा पायेगा --
                    अक्ल का बोझ ?
60 साल के बूढ़े पर छाया कैसा रंग ,
मन में कैसी उठ रही तरुणाई की उमंग ,
जब अगल -बगल हों सुमुखि -सयानी ,नाजुक मुग्धा ,
छोड़ इन्हें कैसे कर लूँ मैं भज -गोविंदा .
नहीं -नहीं अभी नहीं अभी उम्र नहीं है होई ????
अब तो आई अक्ल है इश्क करन की मोहि .
आगे पीछे अब रहे मृग-नयनियों का अम्बार ,
गयी जवानी अब चढ़ा बुढउ को इश्क बुखार .
   जवानी में जो झिझकती थी हमसे ,---
अब तो वह भी करें ठिठोली ,,,,,,,
मन करता है इश्क से भरलू अपनी झोली ,
बूढा और बच्चा एक सा होता है लल्ला ,
बुढापे में अक्ल का हो जाता दिवाला .
बूढा जब सठियाय समझले यही समय है ,
इश्क के लिये बची बस कुछ ही उम्र है ,
उम्र रह गयी थोड़ी अब तो जोश दिखा दे ,
गयी जवानी को समेट ले चंग बजादे .
   देख किसी मुग्धा को जब तार दिल के झन्नायें ,
तुझे छूट  है जाकर तू उससे गपियाले
करते हुये तारीफ़ उससे हाथ मिलाले
अपनी नीरस जिन्दगी का रोना यदि तू रोय ,
खुद ही बात करेगी वो बेचारा जान के तोय .
तू छक के कर रसपान आखों से प्यारे ,
इससे ज्यादा आयेगा ना कुछ हाथ तुम्हारे .
यदि दिल आया कमसिन पर तो बेटी उसे बनाले ,
जन्म दिन पे गिफ्ट दे फिर घर में उसे बुलाले .
            श्रीमतीजी को साथ देख कर फंस जायेगी बेचारी ,
फिर तो सरे  आम तू उस को गले लगाले .
हैप्पी -बर्थ डे कह कर उसकी पप्पी ले प्यारे .
मन में ग्लानी भाव न तेरे आने पाये ,
इसके लिये हम तुम्हें बतायें एक उपाय,
अपनी सभ्यता संस्कृति को तू याद किये जा
पौराणिक आख्यानो में ऐसे प्रसंग हैं आये ,
तू शिक्षक है इसका तू अफ़सोस न करना ,
याद कर अपने अतीत को कभी न डरना ,
यह कमबख्त उम्र ही कुछ ऐसी होती है ,
बड़े-बड़े ज्ञानी को विज्ञानी कर देती है .
नारद -मुनी की घटना याद है ना तुझको ,
विश्व-मोहिनी के सौन्दर्य में जो वो ना आते ,
ना होते राम न हम रामायण गाते ,
ऋषि पराशर जो न केवट कन्या को पाते
तो कैसे वीत- वैराग्य के गीत बनाते
विश्वामित्र जैसे तपस्वी भी देख रह गये दंग ,
ऐसी रूपसी मेनका तुझमे भी जगाये तरंग .
जो जागी है तरंग तो क्या है बुराई ,
संस्कृति का पोषक है तू इसे अपनाले भाई .
और यदि होना चाहता है फेमस तू भइया
मटुकनाथ जुली से ले गुरु मन्त्र ता -ता थैया ..
इस कलयुग के तो वही विश्वामित्र मेनका ,
मचा दिया दोनों ने मगध यूनिवर्सिटी में तहलका .
तरह- तरह की एस-एम-एस, ई -मेल्स बूढों को आयें ,
रूपवान कमसिन कन्याएं एम,एम एस .भिजवायें ,
तरुण युवक सब यूनिवर्सिटी छोड़ कर भागे ,
बूढ़े ही बूढ़े रह गये अब क्या आगे .
और आज इस बूढों के दिन पे ,
घरवाली ने दी है सब को छूट
अपनी ढलती तरुणाई को 'फुल टाइम कर लो यूस
क्यूंकि ............................................
खूँटे की गाय है ,खूंटे पर ही आय ,
सुबह  दोपहर कहीं रहे सांझ घर में ही रम्भाय .
युवा जनों को प्रवचन अब न तुम पिलाओ ,
बूढों की बुद्धि भी शुद्धि ना करवाओ .
जीवन का संधि काल है इसका पर्व मनाओ।।।।।।
.......................................................................आभा


      ....................................................................................
.............................................................................................जूली मटुकनाथ के काल की एक कविता जो मैने आइ .आइ टी  रूडकी में संस्कृति लेडीस क्लब के मंच से पढ़ी थी।.आज सीनियर सिटीजन दे पर उन्हें अर्पित शायद कुछ हंसा सके।

काका से प्रेरणा लेकर




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Tuesday, 25 September 2012



वह  मेरा छोटा सा संसार ,
आंगन में मेरे हर सिंगार ,
झर- झर ,झरते कुसुम हजार .
अमृत रस निर्झर -सौरभ बयार .
इस हरसिंगार तले कान्हा .
गोपिन संग नित रास रचाते हैं .
प्रिय के पद वन्दन हेतु
धवल -वसंती मृदु फूलों की चादरसी  बिछ जाती है ,.
झर झर झरती सुरभित कलियाँ ,
राधा को सुरभित कर देती होंगी ,
प्रीती  पाश में बंधी गोपियाँ .
सुध -बुध अपनी बिसराती  होंगी .
बड़े सवेरे उठ कर हम तुम ,
चुपके से उपवन हो आते थे ,
आंगन में बिखरे फूलों को .
आंचल में भर लेते थे ,
छू कर पद रज कान्हा की ,
हम दोनों भी महका करते थे .
हमें दिखाई देते थे, मधुर नृत्य के इंगित !फूलों पर .
अब नहीं वह  आंगन मेरा ,पास नहीं तुम भी हो मेरे ,
पर कान्हा की मधुर बांसुरी ,गूंज रही है मेरे मन में .
कंकरीट के इस जंगल में याद तुम्हारी जब ,आती है ,
ख़्वाबों में ही संग मैं तेरे !हरसिंगार तक हो आती हूँ .
चुन कर कलियाँ नारंगी -धवल सुगन्धित वृक्ष तले से ,
मह -महकते आंचल में भर कर ,मैं !तुझ को कर देती हूँ अर्पण ,
कंकरीट के इस जंगल में मानस पारिजात समर्पित ,
श्रधा सुमन उस हरसिंगार के तेरे चरणों में हैं अर्पित .....
..............................................................................आभा ..........



 
                                                                 {  श्रधान्जली अजय
 वह मेरा छोटा सा संसार ,आंगन में मेरे हरसिंगार .
झर-झर ,झरते कुसुम हजार ,अमृत रस निर्झर सौरभ बयार .
नित्य रात्री हरसिंगार तले ,मोहन !राधे -गोपिन संग रास रचाने आते हैं ,
पारिजात !यह  पुष्प स्वर्ग का कान्हा ही वसुधा में लाये थे .
दिवस का अवसान स्वर्णिम ,उतर आताआंगन में मेरे
नव मधु का  फूलों का सौरभ भर भर चहुँ दिश में जाता तब ,
प्रीति  पाश में बंधे मोहन नित !राधा संग रास रचाने जब आते
छोटे -छोटे धवल -बसंती कुसुमों की चादर बिछाता ,
आंगन में मेरे यह हरसिंगार




 
                                                {..... . श्रधान्जली अजय .....25 सितम्बर .....10 महीने .....}
                                                 ......................................................................................
वह मेरा छोटा सा संसार ,आंगन में मेरे हरसिंगार .
झर-झर झरते सुमन हजार ,अमृत रस निर्झर  सौरभ बयार .
नित्य निशा में रास रचाने ,राधे-कृष्ण गोपिओं संग आते ,
धन-धन होकर पारिजात यह झरने लगते वसुधा पर तब ,
छोटे-छोटे धवल बसंती ,फूलों की चादर बिछ जाती ,
मधुर -सुगंध हरसिंगार की कर देती राधा जी को सुरभित ,
नित्य सवेरे उठ कर हम -तुम ,चुपके से उपवन हो आते ,
वसुधा में बिखरे फूलों को ,श्रधा नत आंचल में भर लेते .
उन फूलों की अनिर्वचनीय शांति ,रज-कण में आभासित होती ,
हमे दीखते थे  कान्हा के मधुर नृत्य के इंगित फूलों पर .
आज नहीं वह आंगन मेरा ,पास नहीं तुम भी हो मेरे ,
पर कान्हा की  मधुर बांसुरी ,गूंज रही है मन आंगन में .
कंकरीट के इस जंगल में याद तुम्हारी जब आती है ,
ख़्वाबों में ही संग मैं तेरे ,हरसिंगार तक हो आती हूँ .
चुन -चुन कर कलियाँ नारंगी -धवल सुवासित आंचल भर ,
अर्पित तुम को कर देती हूँ कंकरीट के इस जंगल में .
...................................................................................
............आभा ........................................................




 

Wednesday, 19 September 2012

                                                                 {  निशब्द मौन }
                                                                ..............................
मौन को सुनने लगी मैं ,
  निशब्द मौन हृदय तल में ,
  शान्ति नैसर्गिक -सरलता ,
  शिव -शाश्वत परम -पावन .
स्व-विहीन सत्ता यहाँ पर .
स्वरहीन है संगीत -मधुरम ,इक
लय-बद्ध शांति-गान सुंदर .
ध्वनि तिरोहित हो चली हैं ,
गहन मौन! गहनतम है ,
कोई नहीं ,मैं भी नहीं हूँ ,
पर रिक्त सा कुछ भी नहीं है
मौन है अस्तित्व-मय यह ,
ईश्वरीय सुवास है अब ,
है प्रवाह संगीत का इक ,
अनजान सा  मृदु- मधुर कोमल,
गहरा रही है शांति अनुपम ,
सुवास जो अनजान सी है ,
पहचान सी मेरी है इससे ,
जानती सदियों से हूँ मैं ,
इस गंध को ,संगीत को मैं ,
आलोक है इक अनोखा ,
मैं उतरने सी लगी हूँ ,
और गहरे में हृदय के ,
मैंने है चखा स्वाद अपने ,
अंतर-जगत का हृदय-तल का ,
अन्तश-चक्षुओं से है देखा ,
हृदय-तल का दृश्य अनुपम ,
है मनोरम -परिपूर्ण है यह ,
शाश्वत-है असीम है यह ,
मौन है बस मौन है यह ,
बस यहाँ मैं ही हूँ ,मैं बस ,
लय -बद्ध शान्ति स्वरहीन सरगम ,
मौन मेरे हृदय का ,
आज मुखरित हो रहा है ...आज मुखरित हो रहा है ......
..........................................................................
...............................आभा ......................................






 

Tuesday, 4 September 2012

                                                            {  नव सृजन करना ही होगा }
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प्रश्न है ना अब कोई भी ,
शून्यता है बस नयन में .
आंधियां सब शांत हैं ,विध्वंस है बस मन गगन में .
शांत तूफां हो गये सब ! नव सृजन करना ही होगा .
राह सारी कंटकित हैं ,पंथ पथरीला है     किंचित ,
और ज्वालाओं के आगे ,मंजिलें अपनी हैं निश्चित .
मेघों की छाया के संग -संग ,राह मैं अपनी बनाती ,
नित निशा देने है आती ,तम सजी प्रियतम की पाती .
स्नेह के मधु -पाग से ,सिंचित !  ये आमन्त्रण तुम्हारा ,
तारकों के जगमगाते ,अक्षरों से इसको ढाला .
चाँद में चितवन तुम्हारी ,चांदनी किरणे हैं झूला ,
डोलता मन जा रहा है कब चढूं मैं ये हिंडोला .
उस पार ज्वालाओं के मुझको ,लोक दिखता है तुम्हारा ,
पार कर लूँ दग्ध पथ को ,चिर मिलन हित चिर विदा लूँ .
प्रेम की मूरत बनी मैं घुल चलूं मैं ,मिट चलूं मैं ,
तप अपर्णा सा करूंगी तब ही तो शिव मिलन होगा .
शून्य मन में जब बसेगा तब ही तो नव -सृजन होगा .
व्योम जब निशब्द होगा ,तब तो शिव मिलन होगा .
.................................................................................
......................आभा .......................................

Sunday, 2 September 2012

श्रधान्जली
माँ तुम क्यूँ चली गयीं
एक सहारा तुम ही मेरा ,
छोड़ मुझे क्यूँ चली गयी।
  •  .                              तेरी वह स्नेहिल वाणी ,
  •                                           कैसे मैं सुन पाऊँगी ,
    1.                                 अपने दुःख दर्दों को माँ 
    2.                                 अब मैं किसे सुनाऊंगी 
  •                                           .दुःख में सुख की वर्षा थी तुम ,
  •                                            विपद ज्वाल में सरिता थीं .
  •                                            अन्धकार से इस जीवन की 
  •                                            तुम ही स्वर्णिम बाती थीं .
  •                                            अपने इन निर्मम हाथों से ,
  •                                           तुझे चिता पर रक्खा मैने ,
  •                                           तू मेरी शीतल छाया थी ,
  •                                           मैने दिया अग्नि रथ तुमको .
  •                                           कैसे शांत करूँ इस मन को ,
  •                                          जब विदा तुम्हें मैं कर आई .
  •                                          दूर देश से आई थी तुम ,
  •                                         वहीँ तुम्हें पहुंचा आई .
  •                                          बैठ ज्वाल -रथ पे माँ तुम ,
  •                                          पास पिता के चली गयीं 
  •                                          ज्वालाओं के पार देश से 
  •                                         आये पिता तुझे लेने ,
  •                                         मैने देखा है ,तू !खुश थी ,
  •                                         शांत मन और शीतल तन थी .
  •                                          कैसी ये छलना जीवन की,
  •                                          जिसने हमको जन्म  दिया 
  •                                          कर सर्वस्व निछावर अपना ,
  •                                           तन मन हम पे वार दिया .
  •                                           उसी मात को आज हमीं ने ,
  •                                           अग्नि रथ पे बिठा दिया ,
  •                                           और शांति हेतू फिर उसकी ,
  •                                           अंजुरी भर गंगाजल दिया ,
  •                                           करुणा भरे हृदय से हे माँ !
  •                                           हम सब तुझको नमन करें 
  •                                          स्नेहों के दृग -जल से माँ ,
  •                                           हम तेरा अभिषेक करें .
  •                                          रहो पिता के पास ख़ुशी से .
  •                                          दो आशीष हमें हर क्षण 
  •                                         सच के पथ पर चलें हमेशा .
  •                                         जीवन हो अपना पावन .
  •                                          ब्रह्म -मय संसार ये सारा .
  •                                         तूने ही यह दी थी सीख .
  •                                        मेरे ब्रह्म तुम्ही रहना .
  •                                        यह हाथ जोड़ कर मांगूं भीख .
  •                                         माँ !तूने मुझे कहा इक दिन था ,
  •                                     बेटी !बात मेरी इक रखना ध्यान 
  •                                     आंसूं तुम न बहाना मुझ -पर 
  •                                     बस इतना दे देना मुझको  मान .
  •                                      इसीलिये माँ !----------------
  •                                      लेखनी में अश्रु स्याही .
  •                                       अक्षरों के फूल लेकर
  •                                       भावना के मोतियों से .
  •                                        मैं कर रही श्रिंगार तेरा 
  •                                       अमर माँ बलिदान तेरा 
  •                                      युगों तक रहेगा नाम तेरा 
  •                                      माँ रहेगा नाम तेरा .................
  • .................................................................................
  • ................................ममतामयी माँ को अश्रु -पूरित भावों की श्रधान्जली ...............
  • ................................आभा ....................................................
                                                           
  • .
  •                                        

                                                             
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 .}

Friday, 24 August 2012

s.apnon kae upvn me jb bhi main tum sae milnae aati hun ..

                                                    ( हर क्षण सपना सपने में बस तुम )
सपनों के उपवन में जब भी मैं तुमसे मिलती हूँ ,
हर किसलय के अधरों की आभा सी बन कर खिलती हूँ .
जीवन के मरु ,नंदन कानन में ,याद तुम्हें जब करती हूँ ,
मैं रोती नहीं !........वारती ......मानस ...............मोती हूँ
..................................................................................
जब उपवन में दिख जाता है कोई काँटा ,
दुःख दर्द विरह की कसक और बढ़ जाती है ,
तब चुपके से आकर कानों में कह जाते तुम !
मेरे प्रांतर में क्यूँ कांटे ही देखूं मैं ?
हर डाली मैं मुस्कान तुम्हारी आली है ,
हर क्यारी में पद- चिन्ह तुम्हारे दिखते हैं ,
शीतल शबनम की बूंदें प्यास जगाती हैं .
सपनों में सरिता की लचकीली लहरें ,
मन उपवन के अरमानों को डस जाती हैं .
पर शांत किन्तु गंभीर वह नि:स्वन तेरा ,
भ्रमरों सा गुंजित होता है रंध्रों में मेरे ,
मैं बन कर कली हवा में इठला जाती हूँ ,
उपवन में खिलती और झूमती जाती हूँ .
जो पौध कीचकों  की रोपी थी संग तेरे ,
उन क्वणित कीचकों के सुर में आनंद पाती हूँ .
अनियंत्रित भावों से हृदय निनादित होता है ,
सपनों के उपवन में जब भी मैं तुमसे मिलती हूँ ,
दृग युगल सींचने लगते हैं उस उपवन को ,
अवसादों के झरते फूलों की माला पहने ,
वेदना विदग्ध सपनों को मैं समझाती हूँ -----------
मेरा प्रेम नहीं सम्मोहन की हाला --
मेरा प्रेम नहीं विरह ,कटु -रस का प्याला ,
मैं बढती जाती हूँ नभ की ऊँची चोटी पर ,
औ व्यथित चित्त को बोध युक्त कर पाती हूँ .
मैने व्यथित हो जान लिया ,
विरहा में जल ज्ञान लिया ,
तन -मन का वह पावन नाता ,
वह अंतिम सच पहचान लिया .
मैने आहुती बन कर देखा ,
यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है .
मिलने के पल दो चार यहाँ ,
तप यज्ञ कल्प तक चलता ह.
सपनों के उपवन में मैं जब भी तुमसे मिलती हूँ ,
हर किसलय के अधरों की आभा सी बन कर खिलती हूँ ..
...................................................................................
.....................................................................................आभा ... यादों के झुरमुट से .......................................................................................................................................................................................


 

Thursday, 23 August 2012

Jo tum detae saath mera

                                            (  जो तुम देते साथ मेरा सपनों का लोक बसा पाती ) 
                                             =================================
भावों से भरा हृदय मेरा ,
चित्र बनाने को आतुर ,
निर्जन से साधारण वन को ,
, उपवन कर देने को आतुर .
स्वप्न तैरते जो मन  नभ में ,
साकार उन्हें मैं कर पाती .
झरती संध्या के फूलों में ,
कुछ रंग सुनहरे भर पाती .
जो तुम देते साथ मेरा सपनों का लोक बसा पाती ..
               प्रतिध्वनी लौटने को आतुर,
               मेरे मन के पाषाणों से ,
               घन गर्जन करते रहते हैं ,
               सपनों के  मेघों मेहर क्षण .
               सुंदर प्रसून मन भावों के,
               अविरत झरने को जो उगते .
               बिखरे मोती से इन भावों को ,
               गायन का प्रतिकार दिला पाती .
                जो तुम देते साथ मेरा सपनों का लोक बसा पाती ..
मेरे मन के तूफानों ने ,
अविरल चलते झंझावत ने ,
सुख नीड़ों को अंजाम दिया
हिम सर्द सरीखी हिम नद ने ,
लावे सी जलती श्वासों के
विध्वंसों को निर्वाण दिया
उस वितथ -वितत आडम्बर को ,
सच का पाथेय दिखा पाती .
जो तुम देते साथ मेरा सपनों का लोक बसा पाती ..
                 झरती संध्या के फूलों में ,
                 कुछ रंग सुनहरे भर पाती .
                 स्वप्न तैरते मन नभ में ,
                 साकार उन्हें मैं कर पाती ,
                  जो तुम देते साथ मेरा सपनों का लोक बसा पाती ..
........................................................................................................
.....................................आभा ....................................................


 
                                                (  मैं हरी घास हूँ )

                  घास हूँ मैं ,
                  नहीं कुछ ख़ास हूँ मैं .
                  रौंदते प्रात: मुझे तुम ,
                  ताजगी देती तुम्हें मैं .
                  और हरियाली ये मेरी ,
                  चेतना देती तुम्हें .
                  काट देते हो मुझे तुम ,
                  रौंदते रहते मुझे ,
                  शून्य सब संवेदनायें ,
                  ना कोई अहसास तुमको .
                  पर यदि मैं जी गयी ,
                  मैदान के कोने कहीं ,
                  निरख जाती और खिलती ,
                  सुंदर भी क्या लगती हूँ मैं .?-------------------------------आभा -------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

Wednesday, 22 August 2012

ek thaa bachpan mera bachpan

                                                       मेरा बचपन
                    इक था बचपन मेरा बचपन ,
                    सरल सुकोमल निश्छल मादक .
                    नव कोमल सृजन के अंकुर ,
                    सुंदर भावों से परिपूरित .
स्वच्छ व्योम से निश्छल मन में ,
उमड़ -घुमड़ बादल से सपने ,
इंद्र धनुषी रंगों वाले ,
मृग छौनों के संगों वाले .
                     पल -पल बनते और बिखरते ,            
                     नित्य नये आकार वो धरते .
                     पंखों से भी कोमल -कोमल ,
                     हिम फाहों से सजते सपने .
छूलूं मैं ये गगन उछल कर ,
पार करूँ अंबुद तैर कर .
नीड़ बना लूँ शिखरों पर मैं ,
औ बारिश में आग जलाऊं .
                        बचपन भी क्या बचपन था वह ,
                        सारा जगत पाँव के नीचे .
                        आंगन में खेला करते थे ,
                        कितने सच्चे निश्छल बच्चे .
पर जग को जब मैने अपनाया ,
बचपन गया जगत को पाया .
मधुर सुकोमल सपने सारे ,
खो गये कहीं दूर हमारे .
                           बौर आम पर जब भी देखे
                           मन हर्षाया -----------------
                           चलो आम का सीजन आया .
                           इंद्र-धनुष जब बना गगन में ,
                           सोचा बारिश अच्छी होगी .
पार करें यदि अंबुद को तो ,
धन का प्रश्न सामने आया .
पर्वत शिखरों पर चढ़ने को ,
बुकिंग कराने जाना होगा .
बारिशें पीने पर हमको ,
वाइरल से पछताना होगा .
                              काश आज मन बचपन होता,
                              निश्छल होता चंचल होता .
                              नव कोमल सृजन के अंकुर
                              सुंदर भावों से परिपूरित .
जीवन की संध्या बेला में ,
जब यादों में खो जाती हूँ ,
देख-देख बच्चों को अपने ,
अपना बचपन दोहराती हूँ
                                  बचपन तो अब भी बचपन है ,
                                  मैं ही उसको छोड़ चुकी थी ,
                                  विगत स्मृतियों के झूलों में ,
                                  मन मेरा अब भी बचपन है .
---------------------------------------------------------------आभा ----------------------------------------------
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
 
---------------------------------------------------मेरी माँ ------------------------------------------------------------
                 उषा की अरुणिमा है माँ ,
                 निशा का विश्राम ---माँ .
नित्य जिस पर पग धरें हम ,
गोद वसुधा की वही  माँ .
दे जनम मुझको बनाया ,
जगत से मुझको मिलाया .
इस क्षुद्र से व्यक्तित्व की ,
निष्पत्ति औ निस्वन है माँ .
                   जब कभी उल्लसित हुई मैं ,
                   माँ ने भी उल्लास बांटा .
                   डगमगाई जब कभी भी !-
                   निसा ,तृष्टि ,संतोष है माँ .
जगत को जिसने बनाया ,
उसकी भी पहचान है माँ .
पल -पल बदलती सृष्टि को ,
सृष्टि का वरदान है माँ .
                      हर पोर एक दीपक है माँ का ,
                      हर रोम एक बाती है उसकी ,
                      स्नेह की चितवन संजोये ,
                      कान्हा का अंजाम है माँ .
स्पर्श है ममता भरा ,
संघर्ष में साहसी बनाये .
हाथ सर पे रख यदि दे .
पंख लग जाते दुखों को .
                       वेदना की घन घटायें ,
                       क्षार में मधुसार है माँ .
                       शून्य के निश्वास में ,
                        श्वास का रोमांच है माँ .
हर साँस मेरी रागिनी ,
माने ही तो इस को सजाया .
कंटकित से इन सुखों के ,
परित्रास में परित्राण है माँ
-------------------------------
--------------------------------------आभा


,
                         
    

Wednesday, 18 July 2012

Shradhanjali....by abha

घोर तम निविड़ निशा ,चन्द्रहीन इक रात ,
नभ में उजले-उजले तारकगण ,और धरा पर उद्दुगन झलमल .
शांत धूमिल पर कुछ श्रांत ,खड़ी आंगन में वृक्षों की पांत -----
अलसाई सी सोच रही थी ,अंधियारे में छिपी हुई है -------------
-----------उषा एक उज्वल निर्मल सी ---------------------------
जान न पायी इस जीवन में उषा नहीं अब आने वाली ------
प्राची में सूरज ने जो कुंकुम बिखराया ,---------------------------
मेरे घर से ही था सूरज ने ,वो कुंकुम चूर्ण चुराया ----------------
अरुणोदय की वो लालिमा ,आयी करने वैभव-हीन मुझे ..

सुबह हुई क्या सुला गयी ,चिर-निद्रा में मेरे जीवन-धन को ,
ध्वस्त हुआ मंदिर मेरा ,सो गये चेतना के सब पाश .
सुबह बनी अभिशाप ,जगत की ज्वालाओं मूल ,
ईश का जो वरदान ,मैं कभी न सकती उसको भूल .
एक पहेली इस सुबह ने ,जीवन मेरा बना दिया ,
ढूंढ़ रही हूँ उस अपने को जो तिमिर गर्भ में खो गया .
ज्योति का प्रतिबिम्ब वह जीवन में फिर ना आयेगा
होगी न अब मेरी सुबह ,औ न प्रभात ही आयेगा .
हास्य का वह मधुर पर्याय ,शीतलता का वह उन्माद ,
मेरे मृग-छौनों का आलम्बन ,छोड़ गया था उनको आज .
हर-पल साथ रहते थे जो ,वो पिता ,आज कहाँ गये ?
करुण क्रन्दन और चीतकार ,पर ,शांत पिता की तरह खड़े .
अविरल विषाद इन आँखों से ,वर्षा-ऋतू बन बहता जाता ,
पर दग्ध हृदय से रुद्ध कंठ से माँ को सब समझाते हैं ,
पिता हमारे साथ खड़े हैं बस ,अब मन के भीतर चले गये ,
प्रतिनिधि बनकर वे पिता के,  मेरा आलम्बन बन जाते हैं .
आलोक रश्मि से बुनी उषा-अंचल ने ही, मेरा आंचल छीन लिया .
प्राची के फैले मधुर राग ने ही ,मुझे विराग किया
अब प्रभात की शीतल वायु ,आतप बन मुझे जलाती है ,
पर बच्चों की स्नेह दृष्टि उस पर जल बरसाती है .
निशब्द मौन विजन उषा ,हर रोज जगाने आती है ,
स्नेहसिक्त जिजीविषा पिताकी ,भी वह साथ ही लेकर आती है .
माँ बनाया प्रकृती ने ,पिता मुझे तुम बना गये ,
स्नेह सिक्त हो सींचू सब को ,वो पथ मुझको दिखा गये .----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------श्रधान्जली   अजय को ------------------------आभा ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


Tuesday, 17 July 2012

Shradhanjali....

आराधन को प्रिय तेरे !-------
हृदय शूल के अक्षत लायी हूँ .
भावों के चंदन से महका कर !-----
मैं तुझे सजाने आयी हूँ .--------

साँसों की डोरी के अगरु जला ,---
सुरभित साँसों से महका कर ,----
दीप जला कर स्नेह सुधा का ,----
अश्रु जल का तेल डाला .----------
अभिषेक तेरा अश्रु जल-कण से ही करने आयी हूँ .
प्रिय तेरे आराधन को मैं हृदय शूल के अक्षत लायी हूँ .
रंग बिरंगे ,हंसते रोते ,
कुछ काँटों और कुछ पराग से ,
चुन-चुन कर स्वप्न सुमन ,
मैं ,भावों की क्यारी से लायी हूँ ,
दो नयन  पुजारी तेरे हैं ,
,देह पुजारन है तेरी ,-----------
उस पैर करुना का शंख बजा ,
आरत हरण को आई हूँ .-----------------------------------
जिन क्षणों में चले गये तुम ,
वे क्षण ही जीवन धन हैं मेरे ,
सुमधुर यादों की माला ही ,
अर्चन वंदन को लायी हूँ .
प्रिय तेरे आराधन को में हृदय शूल के  अक्षत लायी हूँ .
भावों के चन्दन से महकाकर मै तुझे सजाने आयी हूँ .----------------

सब के लिए अमावस की रात काली होती है ,मेरे लिये अमावस की सुबह काली है जो अजय को मुझ से छीन ले गयी 
मेरी और बच्चों की श्रधान्जली अजय को.--------------------------आभा ------------


जिन 

Sunday, 15 July 2012

जीवन के चढ़ाव व् उतार में नारी का अन्तर्द्वन्द ----------

            है शून्य सा पसरा हुआ ,ज्यों थम गयी हो जिन्दगी .
आहट है ये तूफान की ,या थम गया तूफ़ान है .
चाह है ना ही कोई ,आह ,सोच ना ख्याल है ,
बाहर से दिखती शून्यता ,पर भीतर कहीं भूचाल है .
मन क्लांत है पर शांत है ,यह क्या विरोधाभास है ?
भावों कि आंधियो पे ये कैसा ?धूल का अम्बार है .
भीतर हैं अंधड़ चल रहे ,बाहर से मैं निश्चल सी हूँ ,
मन में भयंकर आंधियां ,खुद की समझ बेहाल है .
गुजर गया जीवन यूँ ही ,कब आया ?कब चला गया ?
मैं रास्ते सी देखती जाते उसे ही रह गयी .
जीवन मैं थी जो ऊर्जा, वो बाँट दी सब में मैने ,
ना ,सोच वर्तमान की ,ना चिंता भविष्य की ही करी .
था क्या पता आयेगा इक दिन ----------शिथिल तू हो जायेगी ,सा
औ फिर समझने को तुझे ,कोई नहीं रह जायेगा .
सोच सबकी है स्वयम की औ अपनि हैं परेशानियां
जो समझे व्यथा तेरी ,वो है यहाँ कोई नहीं .
दूर कर तू आज भी दुशवारिया परिवार की .
है तू धरती ,है तू सीता ,राधा भि तू रुक्मणि भी है ,
तू कर सदा तप सती सा तू ही ???तो जगत जननी है .
-----------क्या धरती केवल जड़ है ?
--------सीता केवल अर्धांगिनी है ?
राधा औ रुक्मणी बस संगिनी कान्हा की हैं ?
नारी नहीं बस माँ ,बहन औ संगिनी का नाम है ,
नारी तो वो है ,टिका जिस से की ये संसार है .
पर आज कैसे शांत मन की आँधियों को मैं करूँ ?
इक शून्य सा जाता पसर है ,क्लांत हो जाता है मन .
थक चुकी शायद मैं हूँ ,पर हौसला बाकी अभी .
पति ,बच्चे ,समाज सबके लिये जीती रही ,
नारी के  भी हैं शिकवे गिले ,है यहाँ समझे कोई
चाहा यदि रोना कभी ,गम अपना लिये हाजिर कोई ,
गम मेरे ,खुशियाँ मेरी ,मोहताज हैं घर की मेरे ,
खुद रीती होकर भी मैं ,सारे घर का ताज हूँ --------------
सारे घर का ताज हूँ ----------------------------------
-----------------------------------------------------------
-----------आभा ----------------------


Thursday, 12 July 2012

prarthna

सावन में शंकर भोले बाबा से मेरी विनती -----------

प्रभु हाथ मेरा पकड़ो ,-------छूटे ये फिर कभी ना .
दर पे तेरे हूँ आई ,-----वरदान दो दरश का .
जन्मों की मैं हूँ प्यासी तव चरणों की लगन है ,
बस दिल ही इक मैं लायी ,खाली है झोली मेरी .
शिकवा है ना शिकायत ना मुझको कोई गिला है ,
हुआ धन्य मेरा जीवन, तेरा प्यार जो मिला है .
जो भी मुझे मिला है तेरे दर से ही मिला है .
बनकर के दीप पथ का ,जग को मैं दूँ उजाला ,
औरों के अश्क पोंछूं छ्लकू ज्यों रस का प्याला .
तेरी कृपा हो शंकर ,विष-पान भी करूँ मैं 
जीवन दिया है तुने तुझ पे ही वार दूँ मैं .

--------------------आभा ---------------------शिवोहम -शिवोहम -2-3-4-5

sard jajbat

मानव  को परिवार और समाज में रहते हुए रिश्तों को जीते हुए कई बार कडवी सच्चाइयों से रु- बरु होना पड़ता है .परिवार में समरसता बनाये रखना आसन नही होता है मन में उठते हुए विद्रोहको ठंडा पानी डाल कर जमा कर बर्फ बना देना होता है
यही जीवन है इन्ही भावों को उधृत करती एक रचना ----------------

मानव मन के झंझावत को ,
मन में उमड़े तूफानों को ,
बांध  तोड़ कर बहना चाहे ,
सरिता की उद्दात लहर को ,
किसने समझा ,किसने जाना .

पर्वत शिखरों पर पड़ी बर्फ ,
पिघल-पिघल कर --
जल धरा बन कर  ,सबको जीवन दे जाये गी ,
मेरे मन की बर्फ पिघल कर क्या ,
मुझको जीवन दे पायेगी ?


शिखरों पर पड़ी बर्फ एक सर्द नदी बन जायेगी ,
पर मेरे मन की बर्फ पिघल कर ,
लावे सी बह जायेगी .-------------------------
इस बर्फ की अग्नि में -------!!!
कितने जीवन जल जायंगे .?
एक जरा सी हलचल से ,
भूकंप हजारों आयेंगे .

मन में उमड़े तूफानों को ,
यादों के इस झंझावत को ,
सर्द बर्फ से ढक लूं मैं ,
ना ही छेडू ना ही कुरेदूं ,
बस  अंतरमन में रख लूँ मैं .
--------------------------------
इस जीवन संघर्ष को पर्व मान कर जीलूं मैं
बर्फ बहे ना लावा बनकर
हिमालय सी बन जाऊं मैं
अंतर्मन के तूफानों को
सर्द बर्फ से  ढक दूँ मैं

Tuesday, 3 July 2012

sahaj hamaen hona hi hoga

  1.                                                                                       सब मिथ्या है ,निरुदेश्य है प्रकृति यदि ,
  2.                                                                                        हम क्यूँ चलें उदेश्य लेकर ?------------
  3. सुना है जीवन का इक ध्येय होना चाहिये ?
  4. ध्येय यदि छोड़ सको यही बड़ा उदेश्य यहाँ .
  5. प्रकृति जैसे बन जायें --तो ही जीवन सच्चा जीवन .
  6. मनुज अप्राकृतिक हो गया है ,प्रकृति से टूटा नाता है .
  7. निज स्वारथ में अँधा होकर ,सब कुछ पकड़े बैठा है ,
  8. सब छोडने काही  ध्येय हमें बनाना होगा  ------------
  9. -------------सोचो ------------------------------------
  10. फूल खिला अपनी रौ में ,नहीं किसी के लिये खिला
  11. राही ले सुगंध उसकी फूल की ऐसी चाह नही .
  12. सुन्दरता का मिले मैडल ,पूजा की माला में गुंथा जाये ,
  13. सजे सेज पर कहीं किसी की ,या बालों की शोभा हो जाये ,
  14. नही ध्येय खिलने का यह की बाजारों में बेचा जाये ,
  15. फूल खिला ,निरुदेश्य खिला ,चाह नही अभिलाष नहीं ,
  16. गर फूल खिले किसी प्रिय के कारण --प्रिय न आये -?
  17. फूल बंद ही रहना चाहे ,फिर वह प्रिय आये तो??
  18. बंद रहने की आदत मजबूत हुई तो !---------------
  19. फूल नही फिर खिल पायेगा !---फूल सहज है ,
  20. ध्येय हीन है ,चाह नही अभिलाष नही है ,
  21. तब ही पूरा खिल सकता है ,
  22. पैरों में चुभ गया जो कांटा ,कांटे से ही निकलेगा ,
  23. पर फिर दोनों काँटों को फेंक कहीं पर देना होगा .
  24. सोचो यदि दूसरे कांटे को रखदें वहाँ जहाँ पहला था
  25. बोलें हम ,धन्य हो तुम ,मुक्ति मुझे पीड़ा से दी तुमने ,
  26. अनर्थ बड़ा तब हो जायेगा ,दोनों को ही तजना होगा ,सहज
  27. सहज गर हम हो जायें तो सहज को भी तजना होगा ,
  28. भाव सहज होने का भी अटकन पैदा कर  सकता है ,
  29. प्रकृति जैसा यदि होना है तो ध्येय विहीन होना ही होगा
  30. गीता का भी ज्ञान यही है ,निरुदेश्य हो कर्म करें हम
  31. ध्येय विहीन ,अर कर्म प्रधान जीवन हो अपना ,
  32. अपने को पहचान गये यदि ,खिलना शुरू हो जायेगा
  33. खुशबू फैलेगी ,
  34.                प्रज्ञां बाहर आयेगी
  35.                 सारी विभूतियाँ अंतरतम की
  36.                  एक -एक कर खिल जायेंगी
  37.                   खुद भी महकोगे तुम फिर दुनिया को भी महकाओगे

Monday, 2 July 2012

Shradhanjali....by abha

मेरे नयनो के आंसू ही आज मेरा श्रृंगार बने
मेरे स्वप्नों मेंआ - आकर ,रंगों के बादल से छा कर ,
तुम देते हो विस्तार मुझे .----------------------------
मेरे स्वप्नों में आ -आकर ,स्वप्नों के इन्द्र-धनुष बनकर ,
तुम देते हो आकार मुझे .-----------------------------------
हर स्वप्न तुम्हारी सीखों का, इक छंद दिखाई देता है ,
हर साँस तुम्हारी यादों का विस्तार दिखाई देती है ,
इन पलकों को मूंद -मूंद ,ढुलका कर आंसू बूंद -बूंद ,
देता है समय सवांर मुझे .-----------------------------------
मेरे नयनो के आंसू ही आज मेरा श्रृंगार बने .

                  ------------आभा ------------------------------

Saturday, 30 June 2012

Shradhanjali....


              श्रधान्जली        

              शून्य में निश्वाश अपना ही सुनाई दे रहा था ,
               आंधियाँ निशब्द थीं ,बिजलियाँ गिरती नहीं 
               गीत सारे खो चुके थे ,दीप सारे बुझ चुके थे .
               आसमा खामोश ,संध्या मौन ,------------
               चाँद भी शीतल नहीं था .तारकों की झिलमिलाहट ,
               भीरूपन लगती थी उनका .------------------
               एक तारे में तभी छाया तुम्हारी दी दिखाई ,
                जिन्दगी लय बन गयी तब ,दीप सारे जगमगाये .
                स्नेह की सरिता बनी मैं ,रजकणो का पहन आँचल 
                स्वप्न  दृगों में सजाये ,कंटकों को चूमती हूँ .
                रजकणो से खेलती हूँ ,--------------------------------
                शलभ के झुलसे परों को -------------------------------
                आंसुओं से सींचती हूँ ---------

                                                        आभा 



Saturday, 12 May 2012

Remembering aiai

Ve alingan ea pass the smriti chapla thi aaj kahan aur madhur vishvaash are woh pagal man ka moh reha vanchit jeevan bena semarpan yeh abhiman akinchan ka kabhi de diya tha kuch maina eisa aab anuman reha---------shredha suman for ajai i m writing my first post                                                                            from kamayani