Sunday, 25 February 2018

जज्बात 

 मीठी झील का मोती ,कृत्रिम है कहलाता  
मुझे  खारा ही रहने दो , हूँ मैं सीप सागर की 
ये खारे अश्रु आँखों के ,हैं- शर्तें  मोती होने की 

गमे उल्फत की जुंबिश ही इन्हें  अनमोल करती है 

===============================
नखरे तेरे बहुत ,
हमनवा मेरे हैं कम ,
कुछ तो सुधर ऐ जिंदगी 
सुनती कहां  है ये ! 
===============
मोती हैं ये अश्कों के,सुलगते राज हैं दिल के 
जुल्मत में इन्हें रखूं , मोती  ये मेरेदिल के 
अयां गर हो गये जग में जालिम लूट ही लेंगें 
फना हो जायेगी सीपी ,हैवानों के मकतल में ||
=========================
साज ऐ गम में मुस्कुराहट का गुमां हो तुझे 
सौ बार साज छेड़ के हम तो लुटा किये 
=========================
आज फिर उस गली से होके गुजरी 
आज फिर निगाहों ने उनको ढूंढा 
आज फिर हवाओं से फिजाओं से हुई बातें 
आज फिर  मैंने उनका पता पूछा 
तेरी गली की हवा की छुवन में भी 
गर्म भाप की सोंधी सी तेरी खुशबू है 
 है  रिहायश तेरी  मेरे भीतर ही है सनम 
याद तुझको दिलाने की चाहत में 

========================







Saturday, 24 February 2018



यूँ ही बैठे ठाले की बकवास --बाजारू sms के शोर से निकले कुछ बेफजूल से उदगार --लिखने को पौधी जगह है तो लिख डाले ---
आवेगी एक बला तेरे सर कि सुन ऐ सबा ,
जुल्फे -सियह का उसके अगर तार जाएगा --
--- अब समय बदल गया है। अब तो बाजार हावी है घर आंगन की फिजाओं में। जुल्फ वालों की क्या औकात क़ि कोई उनकी वजह से परेशान हो ,अब तो रात दिन के मैसेज ,SMS ,ई मेल्स ,ने ले ली है ज़िम्मेदारी सभी को बौरा देने की ,क्या पता आम भी अब इन्ही से परमीशन लेके बौराता हो  ।
जन्मदिन को आप याद रखना चाहें या नही ,मनाने का इरादा हो या नही पर बाजार आपको एक पखवाड़े पहले से ही याद दिलाना शुरू कर देता है। Happy birthday in advance --और दे दमादम फ़ोन ,मैसेज ,SMS ,ई मेल --सब जगह ऑफर --वो भी स्पेशल ,जन्मदिन की छूट के साथ -- गहनों से लेकर इलेक्ट्रोनिक तक ,एक बैडरूम से लेकर तीन बैडरूम फ्लैट तक ,जिस भी दुकान ,मॉल में कभी घुसी होउंगी या जिस भी होटल में खाना खाया होगा ,सभी मेहरबान हैं ,कद्रदान बन के बुला रहे है --भाई आ जाओ --क्या पता फिर ये समा कल हो न हो
मानो कह रहे हों --
''गर्चे कब देखते हो पर देखो
आरज़ू है कि तुम इधर देखो '' ---
अरे ना मुरादों --खरीददारी किसे बुरी लगती है ,पर पल्ले नावा भी तो हो ,केवल गिफ़ट -के लिये बुलाओ तो शायद हमारे दीदार भी हो जाएँ। वरना तो अब हम खुद में ही खोये रहते है ,बाजार लुभाता नही है हमे --
''स्वर्ग को भी आँख उठा देखते नही
किस दर्ज़े सिरे चश्मे हैं हमारी उमर के लोग --[दर्जे-सीरे -चश्म = संतुष्ट ]
--- अव्वल तो मैं सनद हूँ फिर ये मेरी जुबां भी है --परेशान होना मेरी फितरत में है नही ,लालच नही रहा जवानी में भी कभी ,अब रंग उड़ गया तो तुम कसीदा पढोगे -जी बाजार की भी अपनी एक चाल होती है --कितनी काल ब्लॉक करें --दिन भर फिर भी आती ही है --जन्मदिन का आना न हुआ ये तो पैदा होने के वक्त से भी बड़ी मुसीबत हो गयी --वैसे भी बाजार महाशय हम तो अब बुढ़ायेंगे ही --पर तुम्हें क्या ,बेचो-बेचो और इतने सारे कॉल्स के बाद उस दिन एक फूल भी नही भेजोगे ---
-- इस बाजारवाद से त्रस्त होने पे मन के उदगार रेख्ते बन गये --दिन में दसियों बार दसियों तरीके से याद दिलाता है ये बाजार ---चल उठ कि कुछ खरीददारी करने चलें तू कुछ दिनों में ही पैदा होने वाली है। उफ़ ये तो धरती में पदार्पण से भी बड़ी चक्कल्ल्स हो गयी ---क्या करें --
''हस्ती अपनी हुबाब की सी है ,
यह नुमाइश सुराब की सी है ''-----हुबाब =बुलबुला ,,,सुराब -मृगतृष्णा।
----और ये बाजार है कि ---
मुस्कुरा करके मेरी हालत पे दिल जलाने की बात करता है -
इश्क के इन्तहां पे आकर ,बीते दिनों में लौट जानेकि बात करता है। --------बाजार से परेशान आत्मा की व्यथा -
---- एक तरफ बाजार ,पखवाड़ा पड़ा है अभी पैदा होने को --पर इसे डर है कहीं पैदा होते ही मर गयी तो क्या होगा --    ----बाजार को पता है ये भेड़चाल का युग है '' गतानुगतिको लोकः न लोक़ः पारमार्थिकः ''और ''सर्वो हि मन्यते लोक आत्मानं निरूपद्रवम् '',पर मुझे अनुभव है --दूरतः पर्वताः रम्याः ---पास जाने पे ही कठिनाई का पता चलता है --माना बाजार मनुष्य की उत्सवधर्मिता को भुनाता है --पर कुछ लोग मेरे जैसे भी होंगे ही जो नितांत अकेले में उत्सव मनाने की कला को जानते होंगे -----यूँ ही बैठे ठाले की बकवास --बाजारू sms के शोर से निकले कुछ बेफजूल से उदगार --लिखने को पौधी जगह है तो लिख डाले ---
मैं भी मधुशाला 
===============
यादें आज बनी हैं साकी 
मोह बना जीवन हाला 
अक्षर क्षर हो बरस रहे हैं 
लिए तमन्नाओं का प्याला
यादों के रंग भर प्याले में
कूची डुबा -डुबा मन की
मन व्योम के प्रांतर के
कांटो- फूलों की खेती से
चुन -चुन बिम्ब ढूंढ-ढांड
जीवन को परिभाषित करती
उत्सर्गों के अवशेषों पे
कविता बनने जो मचली
मौन व्यथा ,मौन वांछा संग
नीरव मधु रंगों की छाया
शिशिर- हृदय की पीड़ाओं के
गायन- नर्तन की गूँजों सी
चित्रपटी की तृष्णा सी बहती
जीवन सरिता मधुशाला। 

==================
सूरज की किरणों संग जो 
सुबह सवेरे उठ जाती 
सर्दी गर्मी पतझड़ सावन 
सूरज संग ही चलती रहती 
मुझमें हंसती मुझ संग रोती 
 साँसों में चातक बन रहती 
सजग हमेशा कभी न थकती 
बादल से भी वो है निर्मल 
फूलों से भी वो है कोमल 
अंगूर लता से ज्यादा भावुक 
साकी से ज्यादा मदमाती 
चलती फिरती पूर्ण कविता 
माँ है मेरी   मधुशाला। 
==================
संकल्पों की कठिन वेदी पर 
सुख-साधन जो उपजाता है 
नीरस प्रथा वो बलिदानों की 
जिसके शोणित  में बहती 
संतति के स्वप्न सलोने 
साँसों में गुम्फित रहते 
दुःख संतापों को सह कर जो 
घर का जीवन रसमय करता 
जिसकी  सब  इच्छाओं के शर  
तुरीणों में ही सो जाते हैं 
सुख दुःख - घोल रजत प्याली में 
जो संतति हित  गरल  पान करे 
चिरपरिचित सा देवदूत 
वो पिता  है मेरी मधुशाला। 
=======================

 मन  चातक की प्यास है जो 
सदियों से  वो उर में रहता   
स्मृति सिंधु वो  चिर अनंत 
मुझमे मचले लहरें बन कर 
सुधि लहरें उसको छूने को
  मुझमें  बनती टूटा करतीं
 आभा के सित  सजल कणों को 
छू  वो  इंद्रधनुष रंग देता 
मन के सस्मित करुणित भावों 
के अधरों का वागीश है वो 
  तन दीपक पर जल कर  जिसने 
युग - युग  स्नेह का दान दिया 
मिलन हेतु उस प्रियतम पर 
मैंने साँसों को वार  किया 
युग- युग से ढूँढ रही जिसको 
जो, मिला और फिर छोड़ गया 
स्मृति कलश उस प्रियतम का 
मुझमें ढ़लती मधुशाला। 
===================
 नियति है बहती रहती 
 समय बनी चलती रहती 
बन अश्रु मुझे , विगलित करती 
कविता बन अलकों में सोती 
झंझा बन निलय  उड़ा जाती 
उषा की लाल चुनर झलमल  
संध्या का इंगूरी आँचल   
लग गले निशा के गहन पलों में  
दिग्वधुओं को तारों के घूंघट की 
झलमलझल  -चंचलता देती 
मधु ऋतू में फूलों का पराग 
गुंजार वो चंचल भवरों की 
बावरी आम की बौरों सी 
मदभरी  नार   अंगूरों सी 
हम सब को  सदियों से नचा रही 
वो प्रकृति मेरी मधुशाला।  
=================
गूंगी घड़ियों की ध्वनि मुखर 
टूटी साँसों का गीला पन 
पात झरे तरु का वैभव 
भूले गीतों का गान मदिर 
व्योम के घर सजल बादल 
जलद के उर चमक बिजुरी सी 
 आँखों में करुणा तोय लिये 
पी कहां पपिहे सी टेर लिए 
अधरों की प्यास बुझाने को 
सरिता मधुजळ की बन बहती 
वन तरु पे छायी  वल्लरी 
चाँद रात की किरण रेशमी 
प्रेम -मिलन के बाजारों में 
रूप धरे प्रियतम -प्रेयसी का 
खोये प्रियतम को ढूंढ रही हूँ 
बनी आज मैं मधुशाला। 
===============































 गूगल -बाबा -
============
गूगल बाबा ,गूगल बाबा ,
मुझको बना दिया है आभा 
नेट में ढूंढो मेरा नाम ,
एक क्लिक से होगा काम ,
गली गाँव शहर देश क्या 
दुनिया भर के नामों में 
तुम पहचाने जाओगे यदि 
गूगल पर आ जाओगे ,
फेसबुक ,बलॉगर ट्वीटर 
बहुत सारे पोर्टल यहां पर 
याहू भी कर सकते हो 
इंस्टाग्राम है मस्त यहां 
मन की बात करो ट्विटर पे 
गरियाओ हल्के हो जाओ 
ब्लागर में जाकर तुम 
किस्से कहानी कह आओ। 
कितना अच्छा लगता है 
सुंदर सपना लगता है 
दुनिया में कोई भी -
मुझसे अब मिल सकता है 
अरबों- खरबों की भीड़ में 
मेरा अलग वजूद यहां 
नाम मेरा तुम टाइप करो 
एक क्लिक में मुझसे मिल लो 
ऑन लाइन आ जाओ सब 
इस आकाश पे टिमटिमाओं सब। 
गूगल अर्थ पे जाओ तुम 
गाँव गली भी मिल जायेगी 
और जरा सी सर्च करो 
अंगने में माँ ,
खेतों में बापू दिख जायेगा। 
एक क्लिक की बात है प्यारे 
भीड़ में अलग नजर आओगे 
आओ ऑन लाइन हो जाएँ ,
पढ़े पढायें देश बनाएं 
एक क्लिक में हो शॉपिंग 
एक क्लिक में सारे काम 
प्रदूषण भी होगा कम 
ईधन भी बच जायेगा 
समय अलग बचेगा जो 
काम हमारे आएगा -----आभा --
'' ऊर्ध्वमूलो वाक्शाख ऐषोअश्वत्थ: सनातन ''
ज्ञान नचिकेता को जब ,
यम से जीवन का मिला था ,

विश्व है अश्वत्थ वृक्ष --
बस यही उसने कहा था । 
वृक्ष के मूल में ब्रह्म ! 
ब्रह्मा ,देव ,पितर,मनुज ,
पशु-पक्षी प्रकृति -
तने , शाख, फूल , पर्ण इसके ! 
वृक्ष ब्रह्म  में सम्पूर्ण सृष्टि। 
 प्राण यूँ ही वृक्ष जगत के 
वृक्ष हैं अमृत सृष्टि के 
मन-प्राण - कल्याण सबके । 
मेरे अंगने का अलबेला 
वृक्ष आज मुझसे ये बोला -
ये घनी छाँव मेरी -
ये अमलतास के झुमके 
तारों से टिमटिम कुसुम नीम के 
 पीपल के पातों की हवा ये --कट जायेंगे यदि वृक्ष यूँ ही ,संतति कैसे हमें पहचानेगी ?संतति के लिये- इक सेल्फी ले ले 
आज मेरे साथ बिटिया -
चल तू इक सेल्फी लेले !
सृष्टि का हम ताप हरते 
प्रकृति माँ के हम ही गहने 
वृष्टि की भी चाह हम ही हैं 
बुलबुलों का ठौर हैं हम । 
गर्मी से त्रस्त -आतप मनुज को 
छाँव शीतल भी हमीं है । 
कर आचमन जल इस धरा का ,
बादलों को हम ही देते ,
लग गले फिर बादलों के ,
नेह से धरती भिगोते । 
बांधते हम इस धरा को ,
पर्वतों को रेतियों को 
बलशाली  सागर के तीरे 
हम ही सैनिक बन खड़े है । 
तूफ़ान अर सुनामियों से -
आदम को हमने ही बचाया 
उसने स्व विकास के हित 
कुल्हाड़ा हमपे ही चलाया । 
हम हैं पादप ! 
प्राण वायु !
छाँव शीतल !
प्रेम-शांति औ अहिंसा 
का संदेश लेकर उड़ चला जो -
उस शांति दूत खग का बसेरा । 
उत्सव का जब भी लो तुम संकल्प ,
रोप लो इक वृक्ष उस पल !
प्रकृति माँ हर्षाएगी अर -
संतति भी बच जायेगी । 
एक काटो हजार रोपो -
अब यही संकल्प होवे ,
वृक्ष ही से ये धरा है 
वृक्ष ही है ब्रह्म जग में !
वृक्ष ही कान्हा की बंसी -
राधा-गोपियों का रास भी ये 
साथ वन में सीता का दिया ,
पंचवटी ,चित्रकूट ,अशोक-वाटिका
भी वृक्षों से । 
वृक्ष ही से पूर्वज हमारे ,
संतति भी वृक्ष चाहे ,
वृक्षारोपण हो यज्ञ अपना ,
इस पीढ़ी का ये कर्म होवे । 

नील व्योम में उड़ रहा जो 
सांध्य बेला में वो पक्षी 
मेरे अंक में विश्राम लेगा !
मैं वृक्ष ! 
मैं जगत की भूख हरता ,
मैं जगत की प्यास हरता ,
मैं ही पलना हूँ तुम्हारा ,
औ अंत में मैं ज्वाल रथ हूँ ,
ओ !धरा के वासियों ,
कर आचमन तुम ये शपथ लो !
एक काटो-हजार रोपो ,
ये ही हो , संकल्प अब से ,
इस घड़ी से ,
इसी पल से ,
मैं उठूं इक वृक्ष रोपूं ,
एक खग को दूँ बसेरा 
शांति का संदेश दूँ 
वृष्टि को आमन्त्रण मेरा !
हो यही शुभ-संकल्प मेरा-
हो यही शुभ-संकल्प मेरा ॥आभा ॥

Mana

धरती माँ का पुनः संस्थापन 
=================
स्वप्नाभिलाषी तुम कहो ,

मैं तो यही बस मानती हूँ ,
हाथ तुम हाथों में दे दो ,
कारवां बनना ; नियति है ,
प्यार के दो शब्द बोलो 
गाँठ उर की खोल देंगे 
ध्येय ; हो कल्याण सबका !
लक्ष्य ,ये लेकर चलेंगे ,
अहिंसा धर्म परम् है 
इसी से, मानवता बचेगी 
विश्व जीवन ज्योति जागे 
सृष्टि को यौवन मिले 
हर रंग हर बिम्ब की 
सृष्टि को सौगात देदें 
आज हम सौगन्ध ये लें 
हाथ में ले हाथ सबका ,
छोड़ के धर्मों के पहरे ,
तोड़ के जाती के बन्धन 
एक हो धरती को बचाएं 
कुछ तुम तजो  ,कुछ मैं तजूं 
सुखों को कुछ कम करें 

प्रकृति के नजदीक आएं 
वृक्ष रोपें ,गाँव बसाएं
शस्यश्यामल धरती माँ को 

उसका खोया गौरव दिलवाएं 
कुछ समय लगेगा माना 
पर करना ही होगा हमें
इस धरा का  पुनः संस्थापन -
हम करें पुनः संस्थापन।।आभा।। 
-

Wednesday, 21 February 2018

''रुदन  में  आनंद  के  क्षण  ''
===================
अलि  ; है मुझे अहसास  इसका -
जन्म-जन्मांतर  से  सदा ही -
तू    रहा    है    साथ   मेरे !
रुदन  में  आनन्द  के  क्षण  
मूक  से  फिर  मुखर  होना  
बालपन  की  रुनझुनों  में  
ममता  बना  था , साथ  मेरे  ,
तू    रहा   है    साथ   मेरे  !
अनुराग  हर  वय  का  है  अपना  
स्वप्न  का  व्यवसाय  जीवन  
उन्नति , गती   जब , हो  गयी  
पिता    सा    संबल    बना  ,
तू    रहा    तब   साथ   मेरे  !
शत कामनाओं  के वो  अंधड़ 
कोलाहल  , कलरव  लगे  जब  
हर  लक्ष्य  हर  ध्येय  में  भी  
तू   ही    तो    था   साथ   मेरे  !
कंटकों   का   रूप   लेकर  
गन्तव्य  के  वो  पथ  जो  आये  
पग  ने  मंजिल  ढूंढ  ही  ली  ,
तू    सदा    था    साथ  मेरे  !
पूछती   अब  मैं  स्वयं  से  -
चिर-पिपासित   हृदय  क्यूँ   ये  ?
क्या  यही  पाथेय  मेरा  ?
क्यों  तुझे  न  जान  पायी  ?
क्यों  नहीं  पहचान  पायी  
तू  तो  सदा  था  साथ  मेरे  !
गोधूलि  की  बेला   सुहानी  -
स्वर्णिम उजियारे से सज्जित  
आँचल , दिशाओं  ने  है  ओढ़ा  
कज्जल  निशा  के  आगमन  का  
है   यही   संदेश    मुझको 
तू  अभी  भी  साथ  मेरे  !
अलि ! यूँ    ही  रहना,  साथ  मेरे  !
जब  चढ़ूँ   मैं   ज्वाल  रथ  पे 
वह्नि   हो    प्रचण्ड    जाये  , 
चिंगारियों  से   सेज  जगमग,
ज्यूँ  ;  बादलों  के  बीच  बिजली  
अलि !   बादलों  से  झांकना  तू  ;
मेघ   के   अश्रु   में   ढलकर  
चिर -पिपासित  हृदय  को  तू  
मिलन   का  उत्सव  बनना  !
अलि!  तू  मेरे   ही  साथ  रहना  !
तू   रहा    है   साथ   मेरे  ! 
पितुमात , प्रियतम  और   बच्चे  
 अन्य    सारे   रिश्ते    नाते  ;
प्रवृत्तियां -  दायित्व  -जीवन  
बस एक  कम्पन  एक  थिरकन  
सांस  बनके  मिट्टी  के  तन  में  
तू    रहा    है    साथ    मेरे  ,
क्यूँ  जांनने   में  देर  करदी  ?
क्यों   न  तुझे , पहचान  पायी  ?
गर  तुझे  पहचान  जाती  
संगीत  हो  जीवन  ये  जाता  
मैं  जरा कुछ   संवर  जाती  
प्यार  की  मूरत   हो  जाती  
अलि  ;   अब तुझे  मैं  जानती  हूँ   
तू  सदा  था  साथ  मेरे  
मेरी  साँसों  में  छिपा था  !
जीवन  मेरा  तुझको  समर्पित  
ध्येय  ये ;   तुझको  मैं  जानूं
लोल  मैं  वीणा की तेरी
तेरे दर्शन  की मैं भिक्षुक
अली मैं तेरी ही सहेली ।। आभा।।    ...... 
.. 






   






















अपनी भी बन 
=========

तेरे- काम के घंटे कम न होगें 
पर सोच तू -तू भी कुछ है 
समय चुरा स्वयं को दे 
तुझ को भी खुद की जरूरत है 
तू नही अकिंचन -
पूरा  घर ही है   ऋणी तेरा 
इसीलिए तू गृहिणी है
ममता माया का बल है -
तू क्षमा,शक्ति कल्याणी है
पूरे घर को राह दिखाती तू-
क्यूँ नही स्वयं को सुन पाती है ?
अपने दिल के दरवाजे पे
दे दस्तक अपने लिए जरा
अब सुन अपने हिय की भी तू
खुद को भी खुद ही तोल जरा
चल उठ कि कुछ समय चुरा
अपने हेतु कुछ नियम बना
मैं अब प्रतिदिन सैर पे जाउंगी
वर्जिश कर कुछ पौष्टिक खाऊँगी
अपनी काया को पुष्ट बना
जो  सबको सिखलाती  है तू
वो ही अब तू भी अपना
तू नारी है तू सबला है
अबला का ताज तू- फेंक आज -

 नारी जो  अरि नहीं होती 
  तू खड़ी स्वयं की अरि  बनकर
अब अपने से  स्नेह तू कर 

कुछ समय स्वयं को भी दे दे
तू  सृष्टि को रचती सकती है 
चटानों सी दृढ रहती है   
तो उठ  खुद को पहचान जरा 
अपनी नजरों में मान बढ़ा 
हँस के गम सह ले सभी मगर
गमको अपना मुक्क़दर  न बना।।आभा।।
मजदूर ======
म ====ओष्ठ्य
ज ====तालव्य
द =====दंत्य
ऊ ====कंठस्थ
र =====मूर्धन्य
-------- जिव्हा ,तालु ,मूर्द्धा ,कंठ ,दंत ,ओष्ठ के संयोग से निकलने वाली ध्वनियों के अनुसार ही व्यंजनों का वर्गीकरण किया गया है। मजदूर एक ऐसा शब्द है जिसमे हर वर्ग के व्यंजन हैं --तो जो सबको लेकर बना वो समष्टि ही होगा और समष्टी में संघर्षो की कहानियां न हों ये तो हो ही नहीं सकता --व्यष्टि समष्टि के गर्भ से उपजती है और बड़े गर्व से मजदूर को मजदूर कहने का हक हथिया लेती है। पर उसे नहीं मालूम ये शब्द अपने आप में ही पूर्ण है कैसे देखिये ---
मजदूर -सर्वनाम तो है ही पर यदि  हम व्यक्ति विशेष को नाम से नहीं ''मजदूर'' के नाम से ही पहचानते हैं तो उसे संज्ञा भी कह सकते है [ व्याकरणाचार्य मुझे माफ़ करें ]
मजदूर आ रहा है--एकवचन
मजदूर आ रहे हैं --बहुवचन --स्थितप्रज्ञ -जैसे का तैसा रहा सदियों से और ऐसा ही रहेगा सदियों तक  ,एक वचन में भी और बहुवचन में भी - चाहे कितने ही मजदूर दिवस मना लो ,कितनी ही कॉन्फ्रेंस कर लो ,कितने ही नारे ''दुनिया के मजदूरों एक हो '' टाइप लगा लो --अरे  मजदूर की नियति में तो व्याकरण ने ही रलेमिले हालात लिख दिए हैं हाजरात --आप उसके हाल क्या सुधारेंगे हाँ उसकी आड़ में दोचार जगह समोसे गुलाबजामुन की प्लेटें डकार आएंगे और हो सके तो अपने झोले में चम्मच भी चुरा लाएंगे।
अब देखिये मजदूर शब्द में जाती -लिंग का भी फर्क नहीं है --मजदूर स्त्रीलिंग ,पुल्लिंग दोनों है --तो क्या बदलेंगे आप यहां तो सब मिलीजुली संस्कृति है जनाब --सुबह सब अपने बच्चों को छोड़ काम पे चले जाते है --पीछे सभी के बच्चे खेलते कूदते ,मिटटी में लोटते कूड़े के ढेरों या आलिशान अट्टालिकाओं से निकले  मलबे के पहाड़ों पे फिसलते चढ़ते ,एवरेस्ट पे चढ़ने उतरने का आनंद लेते हैं ,अपने जीने के लिए खुशियां ढूंढते इन बच्चों में अधिकतर बच्चे सायं माबाप के आने  तक  रोते हुए सो चुके होते है ,भूख से बिलखते बच्चों की भूख की गवाही  ---उनके मिटटी सने  चेहरे पे  आंसू की लकीर देती है। क्या बदलसकेंगे इन हालातों को --नहीं बदलने को नीयत चाहिए होती है  --न कि खुद को झोला छाप दिखा इन गरीबों को विद्रोही बनाने की कुचेष्टा।
मजदूर ---सर्वनाम है पर इस शब्द से ही निर्धनता ,गरीबी लाचारी और शोषित का बोध होता है तो इसे भाववाचक संज्ञा भी कह सकते हैं ---अब सोचने की बात ये है की जिस शब्द में ही करुणा है --वहां करुणा के दोनों पक्ष संयोग वियोग होंगे ही और ये जिसकी जिंदगी के हिस्से होंगे उसे वो अपनी स्तिथि के अनुसार ही परिभाषित करेगा सो कोई भी इनकी स्थिति कैसे बदल सकता है।
मजदूर --तो बस इतना हो जाये --ये जहां काम करते हैं वहां इन्हें मूलभूत सुविधाएं मिल जायें ,इनके बच्चों को भी राष्ट्र का भविष्य माना जाये --बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा का दायित्व उस सेठ का हो जहां वो काम करता है ---सरकारें यदि सख्ती दिखायें तो मजदूर भी मुख्य धारा में आ सकता है ---और यकीन जानिये वो अपना काम और अच्छी तरह से करेगा ---दिवस मनाने में खर्च  करोड़ों रुपयों को भी इनके बच्चों को दिया जा सकता है ---पर बिल्ली के गलेमे घंटी कौन बांधेगा ? यहां तो रस्में रस्मअदायगी ही होती हैं बस -----मजदूर दिवस ----










  संक्षेप में फ्यूंली -टेक्सास में रहते हुए फ्यूंली फ़ूलने लगी ,अन्वार में पहाड़ों से मिलती जुलती ,  मेरे घर जैसी ही , वैसी ही जैसी मेरे देश में ---सबै भूमि गोपाल की तामे वही समाय --तेरा- मेरा देश और तेरा -मेरा भगवान ये तो मनुष्य की शरारतों का परिणाम है ----
''कबीर सोच बिचारिया ,दूजा कोई नाहिं।
आपा बार जब चीन्हिया। उलटि समाना मांहि।।''-----
एक थी फ्यूंली -- लडबडी पहाड़ी  बांद। बर्फ सी सफेद। गालों और होंठों की रंगत मानो दूध में जंगली गुलाबों का अर्क  मिला दिया गया हो। पहाड़ों की घटाओं को चुनौती देतीं काली जुल्फें।आँखीं पैनी दथुड़ी की धार जैसी ,नाक तड़तड़ी उकाल सी , बादलों के बीच कौंधने वाली बिजली सी चपल। माँ की दुलारी ,पिता की पोथली --पहाड़ी ढलानों में गायें चराती निश्चिंत  गाती - गुनगुनाती -कांसे की थकुली सी खनखनाती आवाज बिखेरती  ,स्वर्ग की अप्सरा सी।  एक दिन एक राजकुमार से आंखें मिलीं प्यार हुआ और ब्याह के महलों में आ गयी ,पिता ने कहा-  जा मेरी पोथली -मैत का मान रखना -- फ्यूंली आ गयी सपनों के महल में -सपनों के राजकुमार के पास।  पहाड़ों की बिटिया , प्रकृति की सहेली  वनों में  उन्मुक्त चहचहाने वाली पोथली ,कुम्हलाने लगी  महलों में --ढेर सा  प्यार ,ढेर सी देख भाल   फिर  भी बीमार।  मैत जा नहीं सकती ,पिता की सीख।  -धीरे -धीरे क्षरती गयी और सिधार गयी --पर अपनी अंतिम ख्वाहिश बता गयी --मेरे फूल चुनो तो पहाड़ों में बिखरा देना ,मेरी आत्मा वहीं बसती  है --रोते हुये राजकुमार ने बिखरा दिये पहाड़ों -जंगलों में फूल ------कुछ  फूल हवाओं संग सरहदें पार कर गये --- पहाड़ों संग,टेक्सास में भी फूलती है फ्यूंली चैत में ----- देख के अपने देस की खुद भी लगती है और   बाडुली  भी गले लगती है ---------

Tuesday, 20 February 2018

बूढ़े हुए  कलम दवात 
=====================

भोजपत्र की भृगु संहिता ,
ताम्रपत्र अर शिलालेख 
बीते युग के हैं शुभंकर 
तस्वीरों में  अब हुए कैद। 
तख्ती की लिपाई-सुखाई 
सरकंडे-बांस की कलम बनाई 
घिस-घिस कोयला स्याही बनाई 
और कलम की कत्  लगाई। 
पेन्सिल इसी बीच में आयी 
अशुद्धि पे  रबर चलाई 
होल्डर-निब-चेलपार्क की स्याही 
कलम-कोयले की हुई विदाई। 
 फाउंटेन पेन ने किया धमाल 
रंग-बिरंगी  इंक  की, चली बयार 
कुछ छूटा कुछ अपनाया 
सभ्यता को ये  नियम ही भाया। 
अब  जाना था चंदा पे ,
अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण शून्य 
पेन से इंक का देख रिसाव 
बालपैन का हुआ आविष्कार 
 फिर तो परीक्षा ,बैंक पढ़ाई
 कार्यालय और कोर्ट कचहरी
बालपेन का जलवा छाया 
सुलेख ,हुआ  अब धाराशाही 
मोती जैसे अक्षर वाली 
लेख से , व्यक्तित्व पढ़ने वाली 
विद्या देखो हुई पराई -
कुछ और ! सभ्य हुये हम आज!
छूटे कागज कलम  दवात ,
बालपैन  पेन्सिल नहीं लुभाते 
 "कीबोर्ड" से ही अब करें लिखाई  
टपटप होती यहां लिखाई 
एक सा ही सुलेख है भाई 
घसीट अब कोई नहीं मारता 
सुलेख में नंबर नहीं हैं कटते 
बुद्धि तेज और तेज हो गयी 
लेखन अब कमजोर हो गया 
तख्ती वाली आत्मनिर्भरता ,
कलम-निब की कत् बनाना 
पेन्सिल छीलने  की कुशलता 
कागज न फ़टे -----
रबर पे संयमित दबाव बनाना !
बीते दिन की बातें हैं
पिछली पीढ़ी की यादें हैं 
अब तो सब यांत्रिक ही है ,
अक्षर अब बोलते नहीं हैं 
अहसासों को तोलते नहीं हैं
डिजिटल ; कलयुग का उपहार 
डिजिटल ; कलयुग का व्यवहार
कम नहीं हुआ पर देखो 
 अब भी ,पुस्तकों का व्यापार 
तेरे-मेरे उसके जैसों  को   
 अभी भी है पुस्तक से प्यार। .....
मेरी कॉपी में प्रतिदिन 
 अक्षरों की बूंदा-बांदी होती है 
नई -नवीन पुस्तक नित ही 
मेरे रेक की शोभा बनती है 
नेट में है संभावना अपार 
बच्चे करते इससे प्यार 
मुझको भी है इससे प्यार 
पर ?
पाठकीय सुख नहीं है इसमें 
पृष्ठ-स्मृति हेतु मोरपंख को 
पुस्तक चिन्ह बना के रखना 
देने को किसी प्रिय को 
फूल पन्नों के बीच सुखाना 
ताज़ी मृत  तितली के पर 
सीधे कर -पुस्तक में रख -
"विद्यामाता मुझको आ " -कहना 
अब सपनों की ही बातें हैं 
मुस्कानों की ये यादें हैं  
राह विकास की  है  मुश्किल  
और विकास ;  मन की चाहत है 
संवेदना -भाव -प्रेम 
ये विकास के नहीं हैं साथी। 
एक ऊँगली की टपटप पे 
पूरा विश्व समाहित है अब 
पर कुछ मेरे जैसे भी 
लिखना और पुस्तक पढ़ना 
सांस लेने सा लगता  जिनको।।आभा।।














बाट निहारूं  
==========

मिलें अवनि- अम्बर जहाँ पर ,
क्या  ! वहीं रहते हो मुरारी ?
 अवनि-अम्बर मिल रहे हैं
निशब्द मेरे मन गगन में 
 अब तो आ जाओ मुरारी। 
 सामने अम्बुद  ये गहरा ,
सुप्त सुधियों की ये  लहरें   
आ तीर पर  कानों में कहतीं 
ज्वाल मैं , तू अम्बु  शीतल।  
 मन की गहराई में पीड़ा 
मूंगे के  पर्वत सी खड़ी  है  
और अस्थिर ये गगन है 
कर्म -भूमि ,पुण्य -भूमि 
उसपार ही तो मिल सकेगी। 
तैर कर जाना है मुझको

 बिन डांड और पतवार के ही .
अक्षि का निक्षेप ही है 
तू कूल में देता दिखाई।
कर्म के इस व्योम पर 

नक्षत्र यों बिखरे पड़े हैं ,
रोकने मुझको खड़े हैं 

मोह के बंधन ये सारे।
आज अर्जुन मैं बनी हूँ ,

कृष्ण बन जाओ मुरारी .
आज थामो बांह मेरी ,

संग हो लूँ मैं तुम्हारे।
किस तरह सूनी हैं राहें ,

मेघ बन कर मैं खड़ी हूँ
राह कोई सूझती ना 

मन मरुत भी पथ न पाता।
घिर गयी हूँ मैं तिमिर में 

,हारना ना चाहती हूँ
मरूकणों के तप्त पथ पर   

वेदना बन गल रही हूँ। 
चेतना  थकने लगी अब 
 ये भेद भी मैं जानती हूँ
अवनि अम्बर के मिलन पर

 सज चुका है रथ तुम्हारा।
स्वर्ण दिखता है गगन में !

क्या  ! आ रहे हो तुम मुरारी ?
नील अम्बर में पीताम्बर 

अब सुशोभित हो रहा है ,
 गूंजने तो अब लगी है 

कानो में बंसीधुन तुम्हारी। 
उषा निशा बन कर  खड़ी है
मुखर मन को करो प्रिय तुम   
तक रही हूँ राह प्रियतम 
लय ताल वाला नृत्य दे दो। 
अब तो आ जाओ मुरारी  ।।आभा।।
.......
मुहम्मद -गोरी ,मुहमद -गजनी ,मुहमद- कासिम,  ऐबक,  तुगलक, तैमूरलंग नादिर शाह, अहमद शाह अब्दाली बाबर ,अकबर औरंगजेब एवं  अन्य क्रूर शासकों की प्रताड़ना तथा बर्बरता की कहानियां रूह कंपाने वाली  हैं।  अकेले औरंगजेब ने  ही हजारों मंदिर तोड़े , बिहार, बंगाल, उड़ीसा , राजस्थान,  महाराष्ट्र, हैदराबाद,कर्नाटक  गुजरात,  उत्तरप्रदेश , पंजाब  और अन्य कई स्थानों में  हजारों मंदिर तुडवाये गए  मूर्तियों को नष्ट-भ्रष्ट किया गया और उन्ही ईंट पत्थरों से वहाँ मस्जिदों का निर्माण करवाया। इनमें से काशी विश्वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर और उज्जैन के अन्य मंदिर भी शामिल हैं। यह सब इस्लाम, अल्लाह और पैगम्बर के नाम पर किया गया।
---विडंबना --मुट्ठी भर आतातायी अत्याचार ,लूटपाट ,हिंसा ,बलात्कार करते रहे ,मंदिर तोड़ते रहे अपने मजहब के नाम पे और हम अपने धर्म के नाम पे आरती घंटे घड़ियाल बजाते रहे प्रभु को पुकारते रहे --आर्त कंठ से भजन गाते रहे --जब प्रभु नहीं आये तो सोमनाथ ,अयोध्या ,मथुरा ,काशी का लुटना ''प्रभु की ऐसी ही इच्छा थी'' मान के देखते रहे। मुट्ठी भर यवन भारत के टुकड़े कर पाकिस्तान बनवा गए हम भारत की कुंडली लेके बैठ गए ,हमारे तो भाग्य में ही टूटन लिखी थी।
 मानसरोवर चीन ले गया ,हिंगलाज की भवानी पाकिस्तानियों के कब्जे में है ,अमरनाथ पे आतंकवादियों का साया है।
ये तीर्थ स्थान मूर्ति पूजा का ही स्थान नहीं हैं ,ये हमारी -सांस्कृतिक -सामाजिक -धार्मिक -आध्यात्मिक -मनोवैज्ञानिक -राजनैतिक और लोकतांत्रिक और बौद्धिक विकास की यात्रा की विरासतें है जिन्हें हमने अपनी कायरता से खो दिया या खोने जा रहे हैं। 
समाज में हर व्यक्ति लड़ाका नहीं हो सकता जो छीना झपटी कर ले पर अपने स्व के अस्तित्व पे बात आये तो भाईचारे और मिलबांट के खाने वाले भी अपने लिए उठ खड़े होते हैं -
तीर्थ यात्राओं पे प्रश्न चिन्ह लगाना ,उसे मूर्ति पूजा कहके खारिज करना ये सब प्रवृत्तियां ही आतंकवादी को पोषित करती हैं। 
हम ईश्वर को नहीं माने न सही ,अपने को तो मानते हैं न ,और हम हैं तो हमारे पूर्वज भी रहे ही होंगे। अपने सम्मान पे जरा सी भी ठेस हमें बर्दाश्त नहीं होती तो अपने पूर्वजों की सांझी विरासत जो सदियों से ही नहीं युगों से हमारे विकास की पहचान है को हमसे कोई भी छीन ले और हम भगवान की मर्जी कहके अपने घरों में आराम फ़रमायें ,फेसबुक पे अपनी प्रोफ़ाइल पिक बदलें , बुद्धिजीवी ,आतंकवादी और उनके समर्थकों को सही ठहराने के लिए अपने अनेकों तर्क कुतर्क दें। इस बुद्धिविलासिता  ( mental luxury ) की क्षुधा पूर्ति के लिये अपने जैसे कुछ लोगों की वाहवाही ही अपना ध्येय बना लें --