Wednesday, 21 February 2018

  संक्षेप में फ्यूंली -टेक्सास में रहते हुए फ्यूंली फ़ूलने लगी ,अन्वार में पहाड़ों से मिलती जुलती ,  मेरे घर जैसी ही , वैसी ही जैसी मेरे देश में ---सबै भूमि गोपाल की तामे वही समाय --तेरा- मेरा देश और तेरा -मेरा भगवान ये तो मनुष्य की शरारतों का परिणाम है ----
''कबीर सोच बिचारिया ,दूजा कोई नाहिं।
आपा बार जब चीन्हिया। उलटि समाना मांहि।।''-----
एक थी फ्यूंली -- लडबडी पहाड़ी  बांद। बर्फ सी सफेद। गालों और होंठों की रंगत मानो दूध में जंगली गुलाबों का अर्क  मिला दिया गया हो। पहाड़ों की घटाओं को चुनौती देतीं काली जुल्फें।आँखीं पैनी दथुड़ी की धार जैसी ,नाक तड़तड़ी उकाल सी , बादलों के बीच कौंधने वाली बिजली सी चपल। माँ की दुलारी ,पिता की पोथली --पहाड़ी ढलानों में गायें चराती निश्चिंत  गाती - गुनगुनाती -कांसे की थकुली सी खनखनाती आवाज बिखेरती  ,स्वर्ग की अप्सरा सी।  एक दिन एक राजकुमार से आंखें मिलीं प्यार हुआ और ब्याह के महलों में आ गयी ,पिता ने कहा-  जा मेरी पोथली -मैत का मान रखना -- फ्यूंली आ गयी सपनों के महल में -सपनों के राजकुमार के पास।  पहाड़ों की बिटिया , प्रकृति की सहेली  वनों में  उन्मुक्त चहचहाने वाली पोथली ,कुम्हलाने लगी  महलों में --ढेर सा  प्यार ,ढेर सी देख भाल   फिर  भी बीमार।  मैत जा नहीं सकती ,पिता की सीख।  -धीरे -धीरे क्षरती गयी और सिधार गयी --पर अपनी अंतिम ख्वाहिश बता गयी --मेरे फूल चुनो तो पहाड़ों में बिखरा देना ,मेरी आत्मा वहीं बसती  है --रोते हुये राजकुमार ने बिखरा दिये पहाड़ों -जंगलों में फूल ------कुछ  फूल हवाओं संग सरहदें पार कर गये --- पहाड़ों संग,टेक्सास में भी फूलती है फ्यूंली चैत में ----- देख के अपने देस की खुद भी लगती है और   बाडुली  भी गले लगती है ---------

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