मैं हरी घास हूँ
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दूब घास हूँ मैं !
नहीं कुछ ख़ास हूँ मैं
रौंदते प्रात: मुझे तुम
ताजगी देती तुम्हें मैं
और हरियाली ये मेरी
चेतना देती तुम्हें है
काट देते हो मुझे तुम
रौंदते रहते मुझे
शून्य सब संवेदनायें
ना कोई अहसास तुमको
पर यदि मैं जी गयी
मैदान के कोने कहीं
निखर जाती और खिलती
सुंदर भी तो दिखती हूँ मैं
हरीतिमा की मैं, लघु प्रहरी
चेतना की बहन हूँ
प्यार और करुणा की सूरत
ताजगी की लहर हूँ
निशा के शबनमी आंसू
मेरे सर का ताज बनते
उषा का स्पर्श पा कर
हीरक कणों से हैं दमकते
रौंदते तुम मुझे प्रात:
नग्न पैरों से जो चलकर
मैं खिलखाती मुस्कुराती
आँखों की ज्योति को बढ़ाती
राणा की रोटी भी बनी मैं
खा जिसे , बलशाली बने वो
घास हूँ मैं !
गईया के दूध की खुराक हूँ
औषधि कई रोगों की मैं
दो जगह मुझको घर में सभी
रोप दो छोटी सी टहनी
छोटे से इक गमले में ही
मैं प्रकृति की हूँ बेटी
अनदेखे भी जी जाउंगी
सह कर उपेक्षा भी तुम्हारी
हरियाली घर में लाऊंगी
पूजन को गणपति के
मैं घर में ही मिल जाउंगी
और पितरों की स्वधा में
कुशा बन लहराऊंगी।।आभा।।
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