ओशो से प्रथम परिचय
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सुना है जीवन का इक ध्येय होना चाहिये
ध्येय यदि छोड़ सको यही बड़ा उदेश्य यहाँ
प्रकृति जैसे बन जायें --तो ही जीवन सच्चा जीवन
मनुज अप्राकृतिक हो गया है ,प्रकृति से टूटा नाता है
निज स्वारथ में अँधा होकर ,सब कुछ पकड़े बैठा है
सब छोडने काही ध्येय हमें बनाना होगा
सोच रही हूँ
फूल खिला अपनी रौ में
नहीं किसी के लिये खिला
राही ले सुगंध
फूल की ऐसी चाह नही
सुन्दरता को मिले सराहना
गुंथ जाये पूजा की माला में
सजे सेज पर कहीं किसी की
बालों की शोभा हो जाये
या बाजारों में बेचा जाये
ये कुछ उसकी आस नही
फूल खिला ,निरुदेश्य खिला
चाह नही अभिलाष नहीं
सोच रही हूँ
प्रियके लिए ही खिले फूल ! अर प्रिय न आये
कली बंद ही रहे दिनों तक
आदत बंद रहने की ; मजबूत हो गयी !
फूल नही फिर खिल पायेगा
फूल सहज है ,ध्येय हीन है
चाह नही अभिलाष नही है
तब ही पूरा खिल सकता है
पैरों में चुभ गया जो कांटा
कांटे से ही निकलेगा
दोनों काँटों को फिर
फेंक कहीं पर देना होगा
सोच रही हूँ
आभार मान के कांटे को पैरों में ही संजोलूं तो !
मुक्ति पीड़ा से दी मुझको
तू मेरा मुक्ति दाता है
औरसंजोलूं उसको भी जो
पीड़ा देनेवाला है
अनर्थ बड़ा तब हो जायेगा
जीवन काँटों से भर जाएगा
लाभहानि अर सुख दुःख
दोनों को ही तजना होगा
सहज
सहज यदि हम हो जायें तो
सहज को भी तजना होगा
भाव सहज होने का भी
अटकन पैदा कर सकता है
प्रकृति सी प्रकृति चाहें तो
तो ; ध्येय विहीन होना होगा
गीता का भी ज्ञान यही है
निष्काम हो हम कर्म करें
ध्येय विहीन ,पर कर्मठ जीवन
कर्म प्रधान अर पूर्ण समर्पित
अपने को पहचान गये यदि
प्रज्ञा बाहर आयेगी
सब विभूतियाँ अंतरतम की
फूल सी खिल-खिल जायेंगी !!आभा!!
ध्येय यदि छोड़ सको यही बड़ा उदेश्य यहाँ
प्रकृति जैसे बन जायें --तो ही जीवन सच्चा जीवन
मनुज अप्राकृतिक हो गया है ,प्रकृति से टूटा नाता है
निज स्वारथ में अँधा होकर ,सब कुछ पकड़े बैठा है
सब छोडने काही ध्येय हमें बनाना होगा
सोच रही हूँ
फूल खिला अपनी रौ में
नहीं किसी के लिये खिला
राही ले सुगंध
फूल की ऐसी चाह नही
सुन्दरता को मिले सराहना
गुंथ जाये पूजा की माला में
सजे सेज पर कहीं किसी की
बालों की शोभा हो जाये
या बाजारों में बेचा जाये
ये कुछ उसकी आस नही
फूल खिला ,निरुदेश्य खिला
चाह नही अभिलाष नहीं
सोच रही हूँ
प्रियके लिए ही खिले फूल ! अर प्रिय न आये
कली बंद ही रहे दिनों तक
आदत बंद रहने की ; मजबूत हो गयी !
फूल नही फिर खिल पायेगा
फूल सहज है ,ध्येय हीन है
चाह नही अभिलाष नही है
तब ही पूरा खिल सकता है
पैरों में चुभ गया जो कांटा
कांटे से ही निकलेगा
दोनों काँटों को फिर
फेंक कहीं पर देना होगा
सोच रही हूँ
आभार मान के कांटे को पैरों में ही संजोलूं तो !
मुक्ति पीड़ा से दी मुझको
तू मेरा मुक्ति दाता है
औरसंजोलूं उसको भी जो
पीड़ा देनेवाला है
अनर्थ बड़ा तब हो जायेगा
जीवन काँटों से भर जाएगा
लाभहानि अर सुख दुःख
दोनों को ही तजना होगा
सहज
सहज यदि हम हो जायें तो
सहज को भी तजना होगा
भाव सहज होने का भी
अटकन पैदा कर सकता है
प्रकृति सी प्रकृति चाहें तो
तो ; ध्येय विहीन होना होगा
गीता का भी ज्ञान यही है
निष्काम हो हम कर्म करें
ध्येय विहीन ,पर कर्मठ जीवन
कर्म प्रधान अर पूर्ण समर्पित
अपने को पहचान गये यदि
प्रज्ञा बाहर आयेगी
सब विभूतियाँ अंतरतम की
फूल सी खिल-खिल जायेंगी !!आभा!!
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