Tuesday, 20 February 2018

" पंछी की साध "
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लहरों उछलो आओ पास मेरे
मैं ठिठका हूँ मुझे उछाह दो
शिशु हूँ ,मुझे प्यार दो
संभालो मुझे
लहर की नाव पे बिठा लो
कि
छोर तक जाना है मुझे -
क्या होगा उस पार ?
खड़ा सोच रहा मैं !
नीलम सा ये सागर औ
 भोर-सांझ के रंग
मछली भी होंगी !
भूखा न रह पाऊंगा -
शिशु हूँ  ;
 उस पार की दुनिया
कैसी है जाननी है मुझे
ऐ लहर ! एक वादा भी लेना है मुझे ;
 ले जाएगी उस पार
तो इसपार भी लाना होगा
सुनी है माँ से कहानी बहुत
मुझे भी उसको किस्सा सुनाना है
ऐ लहर इतनी ऊँची न उछल
शिशु हूँ फिसलने का डर है
नहीं ! मैं  नहीं डरता ,
पर  ; माँ दुःखी होगी -
सुन ! रहने दे आज नहीं
आज तुझे अपने पे काबू नहीं
सागर के हिंडोले में
पेंग ऊँची बहुत तेरी
शिशु हूँ '
अभी चलना सीख रहा हूँ
कल ही तो  ! ऊँचा उड़ने
की लालसा में -
पिता ने  सीख मुझे दी
उड़ो खूब ऊँचे उड़ो
पर जल्दी ठीक नहीं है
कच्चे हैं अभी पंख
थोड़ा धीरज धरो ,
परवाज भी मिलेगी
शक्ति अर्जन करो -
ऐ लहर उड़ूँगा में तेरे संग एक  दिन
आ तब तक हम यहां
छप-छप करें
तू  उसपार की कहानी सुना मुझे
मैं तुझे प्यार से देखा करूं यूँ ही।आभा। 

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