देश का दुर्भाग्य है कि सभ्य मूल्यों के विनाश की अपेक्षा निजी प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा को बड़ा खतरा माना जा रहा है ।
चाहते क्या हैं नेता, चाहता क्या है मीडिया ?.........
हमारे धर्म का मूल है,ब्रह्मचर्य ,आत्मनियन्त्रण । हम तब तक दूसरों पे शासन नहीं कर सकते !जब तक अपने पर शासन
करना न सीख लें। हम हिंदुस्थानी हैं ऒर हमारी धरती का धर्म हिन्दू ही है ।हिन्दू धर्म केवल साम्प्रदायिकता या रीतिरिवाज निभाना नहीं है,वह तो व्यक्तित्व का निखार है --जो हम हैं --उससे बेहतर कुछ बनना --जगत के अंतिम रहस्य में भाग लेने के लिए तैयार होना -- समाज की बेहतरी के लिए हमें धार्मिक होना ही पड़ेगा ।
.......बिन भय होय न प्रीति गुसाई .......
भय भी आवश्यक है ,--यदि हमारे पूर्वजों ने --पीपल के भूत का भय ,बरगद पे ईश्वर का भय ,नीम को काटने से पाप लगने
का भय या भिन्न -भिन्न व्रत और तीर्थों को न करने से विनाश का भय न दिखाया होता तो ये वृक्ष और ये प्रकृति क्या हम
अपनी संतानों के लिए संरक्षित कर पाते ।
हमें धर्म की ओर लौटना ही पड़ेगा ।राज्य धर्म -निरपेक्ष हो लेकिन धार्मिक हो ,उसका अपना एक धर्म हो ,जिस भूमि पे वह
खड़ा है ! वहां के धर्म का पालन करे ,और अन्य धर्म भी उसके अंचल में ख़ुशी और स्वतंत्रता से रहें , शायद यही हमारे
निति- नियंताओं की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा भी रही होगी जो प्रकारांत में हिन्दू -धर्म के विरोध में परिभाषित होने लगी।
समाज में आई विकृतियों को सुधारने के लिए हमें धार्मिक होना ही पड़ेगा ,आत्मा में आस्था पुनर्संस्थापन करना ही पड़ेगा हमारी आर्थिक दीनता ने आज हमें धुनी हुई कपास की तरह बिखरा दिया है ,सच्ची देश भक्ति और अपनी अंतरात्मा का आज आभाव हो गया है ..स्वामी विवेकानंदजी के शब्दों में ...........
चाहते क्या हैं नेता, चाहता क्या है मीडिया ?.........
हमारे धर्म का मूल है,ब्रह्मचर्य ,आत्मनियन्त्रण । हम तब तक दूसरों पे शासन नहीं कर सकते !जब तक अपने पर शासन
करना न सीख लें। हम हिंदुस्थानी हैं ऒर हमारी धरती का धर्म हिन्दू ही है ।हिन्दू धर्म केवल साम्प्रदायिकता या रीतिरिवाज निभाना नहीं है,वह तो व्यक्तित्व का निखार है --जो हम हैं --उससे बेहतर कुछ बनना --जगत के अंतिम रहस्य में भाग लेने के लिए तैयार होना -- समाज की बेहतरी के लिए हमें धार्मिक होना ही पड़ेगा ।
.......बिन भय होय न प्रीति गुसाई .......
भय भी आवश्यक है ,--यदि हमारे पूर्वजों ने --पीपल के भूत का भय ,बरगद पे ईश्वर का भय ,नीम को काटने से पाप लगने
का भय या भिन्न -भिन्न व्रत और तीर्थों को न करने से विनाश का भय न दिखाया होता तो ये वृक्ष और ये प्रकृति क्या हम
अपनी संतानों के लिए संरक्षित कर पाते ।
हमें धर्म की ओर लौटना ही पड़ेगा ।राज्य धर्म -निरपेक्ष हो लेकिन धार्मिक हो ,उसका अपना एक धर्म हो ,जिस भूमि पे वह
खड़ा है ! वहां के धर्म का पालन करे ,और अन्य धर्म भी उसके अंचल में ख़ुशी और स्वतंत्रता से रहें , शायद यही हमारे
निति- नियंताओं की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा भी रही होगी जो प्रकारांत में हिन्दू -धर्म के विरोध में परिभाषित होने लगी।
समाज में आई विकृतियों को सुधारने के लिए हमें धार्मिक होना ही पड़ेगा ,आत्मा में आस्था पुनर्संस्थापन करना ही पड़ेगा हमारी आर्थिक दीनता ने आज हमें धुनी हुई कपास की तरह बिखरा दिया है ,सच्ची देश भक्ति और अपनी अंतरात्मा का आज आभाव हो गया है ..स्वामी विवेकानंदजी के शब्दों में ...........
''..किसी देश का स्थाई भाव राजनितिक प्रभुत्व होता है ,किसी का आर्थिक वैभव ,किसी का केंद्र -बिंदु कलात्मक अभिव्यक्ति होता है।भारत का मूल तत्व या स्थाई स्वर धर्म है ,हमारे राष्ट्रीय जीवन --संगीत का यही वह स्वर है ,जिसके चारों ओर हमारे गुणों का विकास होगा ।यदि हम किसी अन्य दिशा -राजनितिक या औद्योगिक प्रगति को अपना लक्ष्य बनायेंगे तो वहां भी धर्म की शक्ति से हम सबको अपने गुण -कर्म और स्वभावानुसार अपना मार्ग चुनना होगा .प्रत्येक राष्ट्र को भी चुनना होगा ,हमारा देश यह चुनाव युगों पूर्व कर चूका है ।वह है धर्म का चुनाव--आत्मा में आस्था --के मार्ग का चुनाव हमें इस मार्ग से कोई विचलित नहीं कर सकता है ।हम अपना स्वभाव कैसे छोड़ सकते हैं "..
हमें अपने बच्चों को अपनी धार्मिक विशेषताओं से अवगत करवाना ही होगा ।त्याग धृति ,धैर्य ,क्षमा और ब्रह्मचर्य के महत्व का पुनर्संस्थापन हमें अपने घरों से ही करना पड़ेगा ,समाज में कड़े कानून का भय ,और घरों में नैतिक मूल्यों का कोड़ा अब ये ही दो तरीके हैं समाज को सुधार ने के ।व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा से तो हमें मुक्त होना ही पड़ेगा ,अन्यथा अंत विध्वंसकारी ही होगा ...आभा ---..
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