विक्रमी संवत का नव वर्ष ,प्रकृति के नव सृजन का समय --चैत्र मास -और कलेंडर का नव वर्ष जनवरी यानी शीत से कँपकँपाती प्रकृति ,एक में प्रकृति का उत्फुल आनन्द , श्रृंगार करे हुए ऋतुराज की आरती उतारने आयी नववधू के रूप में प्रकृति और एक में धवल हिम की साडी पहने तप करती नव यौवना तपस्विनी --दोनों पावन ,दोनों निर्मल --एक काम--सृजन का प्रतीक ,एक शिव के लिए तप करती अपर्णा का प्रतीक ---मनाइये दोनों को --सहजता से --दोनों अपने स्थानों की सभ्यता के प्रतीक हैं ---लो आया नव वर्ष
लाव लश्कर संग ----
पतझड़ का हो रहा अंत
दिगम्बर हुई डालों पे
झाँक रहे नव द्रुम मनोहर
बांज बुरांस अशोक
गुलमोहर फूले
रक्तवसना नववधू प्रकृति
सुगन्धित समीर से आरक्त ,
खेत पहने सोना चांदी की चूनर ,
बासन्ती साड़ी पे- रंगों भरी
पिचकारी की फुलकारी
गदराई गेहूं की बाली ,
बौराई अमराई ,
पलाश दहके ,टेसू महके
कोयलिया कुहुके
नील व्योम का नीला निस्वन
कलियाँ करती जादू टोना
मानो उत्सव का आवाह्न
देख श्रृंगार ऋतुराज का
भर अंजुरी फूलों की
रति उतरी करने आरती --
मंगल कलश पराग के ढुलके
भँवरें गुनगुन गान सुनाएँ
लो नव वर्ष है आया
चैत्र शुक्ला प्रतिपदा -
धरती पे आये --
राम चन्द्र संग चारों भाई
प्रकृति भी दे रही बधाई
नव सृजन -नव कलेवर
नव उत्सव ,यही है विक्रमी संवत
अवतरण तिथि
श्री ''राम '' की
और लो नव वर्ष आया
लाव लश्कर संग आया ------
आयी जनवरी ,शीत भारी ,
ओढ़ कुहरे की रजाई ,
शिथिल जगती लेती जम्हाई
पेड़ दिगम्बर रूप धारें ,
फाल इसको कहते सारे
आलस औ तम --सूर्य हारा
हड्डियां तक कँपकपायें
पशु-पक्षी सब कसमसाये
न सृजन ना ही है उत्सव
अलाव को सब घेर बैठे।
धवल हिम की सर्द साड़ी
ज्यूँ कुँवारी विधवा हुई हो ,
सर्द अहसासों में डूबी
संगमरमर की ऋचा सी
स्वप्न बुनती जा रही हो ,
वेदनाओं की ऋचायें
स्वयं को समझा रही हो
इस समय को उत्सव बनायें
उदासियों के श्वेत घेरे
सर्द अहसासों के फेरे
डस न ले इंसान को।
मौन मन की वाटिका में ,
कुछ पुष्प बातों के बिखेरें ,
आगमन है शीत का --
हम विजन में मंगल उतारें
शरद की इस ऋतु में ,
नव वर्ष के गीत गायें
आज झूमें ,खिलखिलायें ,
उंघती सी इन छलकती प्यालियों में
प्राण अपने हम उड़ेलें
अर नया इक गीत गायें
उंघती सी इस ऋतु में
फाल की इन डालियों में
धवल हिम की चादरों संग
पच्छिम का कोई गीत गायें
हिम ढकी इन वादियों के
मरमरी कोमल बदन के
बांकपन को - भर नजर हम आज चूमे ,
एक अल्हड़ बांकपन औ
सर्दी भरा अहसास लेकर
पच्छिम का न्यू ईयर मनाएं
शरद की चांदनी की
सेज में हम गुनगुनायें।
आज हम न्यू ईयर मनाएं ॥ ----
विक्रमी संवत का नव वर्ष ,प्रकृति के नव सृजन का समय --चैत्र मास -और कलेंडर का नव वर्ष जनवरी यानी शीत से कँपकँपाती प्रकृति ,एक में प्रकृति का उत्फुल आनन्द , श्रृंगार करे हुए ऋतुराज की आरती उतारने आयी नववधू के रूप में प्रकृति और एक में धवल हिम की साडी पहने तप करती नव यौवना तपस्विनी --दोनों पावन ,दोनों निर्मल --एक काम--सृजन का प्रतीक ,एक शिव के लिए तप करती अपर्णा का प्रतीक ---मनाइये दोनों को --सहजता से --दोनों अपने स्थानों की सभ्यता के प्रतीक हैं ----आभा ॥
पतझड़ का हो रहा अंत
दिगम्बर हुई डालों पे
झाँक रहे नव द्रुम मनोहर
बांज बुरांस अशोक
गुलमोहर फूले
रक्तवसना नववधू प्रकृति
सुगन्धित समीर से आरक्त ,
खेत पहने सोना चांदी की चूनर ,
बासन्ती साड़ी पे- रंगों भरी
पिचकारी की फुलकारी
गदराई गेहूं की बाली ,
बौराई अमराई ,
पलाश दहके ,टेसू महके
कोयलिया कुहुके
नील व्योम का नीला निस्वन
कलियाँ करती जादू टोना
मानो उत्सव का आवाह्न
देख श्रृंगार ऋतुराज का
भर अंजुरी फूलों की
रति उतरी करने आरती --
मंगल कलश पराग के ढुलके
भँवरें गुनगुन गान सुनाएँ
लो नव वर्ष है आया
चैत्र शुक्ला प्रतिपदा -
धरती पे आये --
राम चन्द्र संग चारों भाई
प्रकृति भी दे रही बधाई
नव सृजन -नव कलेवर
नव उत्सव ,यही है विक्रमी संवत
अवतरण तिथि
श्री ''राम '' की
और लो नव वर्ष आया
लाव लश्कर संग आया ------
आयी जनवरी ,शीत भारी ,
ओढ़ कुहरे की रजाई ,
शिथिल जगती लेती जम्हाई
पेड़ दिगम्बर रूप धारें ,
फाल इसको कहते सारे
आलस औ तम --सूर्य हारा
हड्डियां तक कँपकपायें
पशु-पक्षी सब कसमसाये
न सृजन ना ही है उत्सव
अलाव को सब घेर बैठे।
धवल हिम की सर्द साड़ी
ज्यूँ कुँवारी विधवा हुई हो ,
सर्द अहसासों में डूबी
संगमरमर की ऋचा सी
स्वप्न बुनती जा रही हो ,
वेदनाओं की ऋचायें
स्वयं को समझा रही हो
इस समय को उत्सव बनायें
उदासियों के श्वेत घेरे
सर्द अहसासों के फेरे
डस न ले इंसान को।
मौन मन की वाटिका में ,
कुछ पुष्प बातों के बिखेरें ,
आगमन है शीत का --
हम विजन में मंगल उतारें
शरद की इस ऋतु में ,
नव वर्ष के गीत गायें
आज झूमें ,खिलखिलायें ,
उंघती सी इन छलकती प्यालियों में
प्राण अपने हम उड़ेलें
अर नया इक गीत गायें
उंघती सी इस ऋतु में
फाल की इन डालियों में
धवल हिम की चादरों संग
पच्छिम का कोई गीत गायें
हिम ढकी इन वादियों के
मरमरी कोमल बदन के
बांकपन को - भर नजर हम आज चूमे ,
एक अल्हड़ बांकपन औ
सर्दी भरा अहसास लेकर
पच्छिम का न्यू ईयर मनाएं
शरद की चांदनी की
सेज में हम गुनगुनायें।
आज हम न्यू ईयर मनाएं ॥ ----
विक्रमी संवत का नव वर्ष ,प्रकृति के नव सृजन का समय --चैत्र मास -और कलेंडर का नव वर्ष जनवरी यानी शीत से कँपकँपाती प्रकृति ,एक में प्रकृति का उत्फुल आनन्द , श्रृंगार करे हुए ऋतुराज की आरती उतारने आयी नववधू के रूप में प्रकृति और एक में धवल हिम की साडी पहने तप करती नव यौवना तपस्विनी --दोनों पावन ,दोनों निर्मल --एक काम--सृजन का प्रतीक ,एक शिव के लिए तप करती अपर्णा का प्रतीक ---मनाइये दोनों को --सहजता से --दोनों अपने स्थानों की सभ्यता के प्रतीक हैं ----आभा ॥
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