Tuesday, 20 February 2018

हमारी राणी जिसे हम देवी मानते हैं उसे नाचते हुए क्यों दिखाया -
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मैं पिक्चर नहीं देखती -बच्चों की बहुत जिद पे पिछले बीस वर्षों बाद दंगल देखने गयी थी और मुझे ''बापू सेहत के लिए तू तो हानि कारक है ''गाने के सिवा पूरी पिक्चर वाहियात लगी -
ये पद्मावती पे विवाद ---वो भी पिक्चर के गाने में हीरोइन को नाचते देख के --क्या मजाक है। पहले तो ये एक पिक्चर है -बिना नाच-गाने के हिंदी पिक्चर की कल्पना भी नहीं की जा सकती। रानी क्यों नाची वो नचनिया थोड़े ही थी -अरे तुम मौजूद थीं क्या उसके समय में ,हाँ नई तो बोल तो ऐसे रहे हैं जैसे ये उस वक्त मौजूद थे -क्यों नहीं नाच सकती रानी ?
भारतीय अस्मिता तो उत्सवधर्मी है। वेद वेदांग पुराण सभी गेय हैं। चैतन्यमहाप्रभु से लेकर अनेकों संतों ने गायन वादन नृत्य से ही अपने प्रभु को रिझाया। भजगोविंदम सुनकर स्वयं ही कदम थिरकने लगते हैं।
हमारे देवाधिदेव महादेव तो स्वयं नटराज हैं ,तांडव से लेकर सृजन सभी उनके नर्तन का ही फलित है।
मेरे कान्हा का महारास ,गोपिका गीत सुनो कभी ! जिसे पढ़ सुन के आज भी तन मन की सुध बुध नहीं रहती।
---क्यों  रखना  चाहते हैं हम अपने पितरों को केवल त्याग और बलिदान की मूर्ति बना के ? क्या वो भी आपके मेरे तरह के  सामान्य मानव-मानवी  नहीं थे जो रोते -हँसते ,नाचते -गाते  कभी कोमलता से कभी वीरता से  समाज में रहते थे अपना कर्तव्य निभाते थे।
हमें राम -सीता के लिए विलाप करते तो स्वीकार्य हैं ,लक्ष्मण के लिए रोते  स्वीकार्य हैं पर उन्ही राम को कोई  यदि माँ सीता से अभिसार करते हुए दिखा दे तो  हम असहज हो जाते हैं ,समाज और संस्कारों की दुहाई देने लगते हैं ,ऐसे ही रूढ़िवादी स्वार्थी असहिष्णु समाज को कोई भी धोबी बंधक बना लेता है और माँ सामान सीता को आक्षेपों का शिकार होना पड़ता है।
यहां तक कि जब कालिदास ने शिव-पार्वती के अभिसार को लिखना चाहा -तो उनके रोगग्रस्त होने की बात फैला के उस ग्रंथ को उनकी संतति ने पूर्ण किया ऐसा इतिहास बना डाला।
तुलसी बाबा इस समाज के डर से -वाल्मीकि रामायण में सुंदरकांड में हनुमान जी ने रावण के महलों का जो आँखों देखा वर्णन किया उसे नहीं लिखा -जो हनुमान जी की चारित्रिक दृढ़ता का एक मात्र सशक्त प्रमाण है।
क्यों हम ये मान लें कि रानी पद्मिनी और राणा के जीवन में आनंद ,उल्लास , उत्साह के क्षणों में गायन वादन और नृत्य के लिए कोई जगह नहीं थी।
एक बुजुर्गवार जो अपने को रानी पद्मिनी की 37 वीं पीढ़ी का बता रहे थे के मुहं से सुना --हमारे यहां औरतें नचनिया नहीं होतीं फिर  वो तो रानी थीं -अरे तुम रूढ़िग्रस्त हो तो अपने पुरखों को क्यों बदनाम कर रहे हो भले मानस। रानियां और नचनियां दोनों कोमल भावों की मल्लिका होती हैं ,ये भेद तुम्हारे कुत्सित दिमाग की खोज है वरना रानियां तो नचनियाओं को भी अपनी सखी मानती थी -अनेकों उदाहरण मौजूद हैं -पर पढ़े कौन -
जो रानी गोरा -बादल को मनाने के लिये अपनी तथाकथित मर्यादा को छोड़ सकती है ,जो रानी अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए हँसते हुए जौहर कर सकती है --यहां जौहर और सती में अंतर् समझना होगा --क्यूँ न ये कल्पना की जाये कि जैसे उस वीरांगना ने मर्यादों की सीमा का उलंघन कर बादल-गोरा को अपने पक्ष में लिया और महाराणा को छुड़वाया वैसे ही उसने  अनेकों वीरांगनाओं को जौहर के लिए तैयार करने के लिये कालबेलियों द्वारा किये जाने वाले नृत्य का सहारा न  लिया होगा -- वो नाचते- नाचते विशाल अग्नि कुंड में कूद गयी हों।
---मुझे भंसाली या किसी भी फ़िल्मी व्यक्ति से कोई सहानुभूति नहीं है -समाज को विकृत करने और परिवार रूपी इकाई जो हमारे भारत की रीढ़ है को तहसनहस करने में इन फ़िल्मी भांडों का ही हाथ है -आर्ट तो हम इसे बिलकुल भी नहीं कह सकते -पर ये एक इंडस्ट्री तो है ही जो कई लोगों को रोजगार देती है।
इस इंडस्ट्री को किसी सेना के लोगों की रूढ़िवादिता या सरकार को बदनाम करने के लिए विपक्ष और मीडिया के एजेंडे के हवाले तो नहीं ही किया जा सकता।
फिल्मकारों का कोई एजेंडा हिन्दुओं के खिलाफ है तो आप उनकी पिक्चर फ्लॉप करवाइये ,मत देखिये ,उनकी कमर खुद -ब -खुद टूट जायेगी पर हिन्दू धर्म को असहिष्णु मत बनने दीजिये।
और अंत में ---ये जो छत्राणियां नंगी तलवारें लेके अपने संस्कारों को बचाने बैठी हैं --आपको अपनी किट्टी पार्टी में घूमर नृत्य करती हुई दिखाई देंगी ये मैं शर्तिया कह सकती हूँ --
चिट्टियां कलाइयां ,चिकनी चमेली ,कजरारे कजरारे पे ठुमके लगाने वाली क्या घूमर से बच पाएंगी --यकीन नहीं होता तो आने वाले शादी के सीजन में देख लेना --










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