Tuesday, 20 February 2018



''यादें ''

 यादें ! बीते वर्ष की 
बीते बहुत से  वर्षों 
की 
यूँ लगता है जैसे कि
बीते युगों के किसी जनम  की
जो !शायद था मेरा ?
कुछ साफ़ कुछ धुंधली
अक्सर चली आती हैं
अतिथि की मानिंद 
आती-जाती हैं
"अपनी" 
कीमती पोटली लिये !
थमा देती हैं वो पोटली
'' मुझे ''
चुपके से ?
अक्सर तब !
-जब होती हूँ ''मैं'' चौके में
हाँ! मिलती हूँ मैं अक्सर चौके में ही
डरती हूँ
-अतिथी की है पोटली
कोई चुरा ले कुछ तो !
पोटली दी है संभाल
तिजोरी में दिल की
 लगी हूँ बनाने मैं चूल्हे पे खाना ,
पर ये क्या ?
गांठें थी ढीली ,
बिखर गए मोती
यादों  के मोती ,
बीते पलों के मोती
बचपन की यादें ,
जवानी की यादें
पिता की कहानी -
वो माँ की जुबानी
यादें तुम्हारी 
उन पे मैं ''वारी''
झूलों में झूलूँ
बच्चों संग खेलूं
तेरे  संग जीवन ,
वो गुजरा जमाना
वही  था बस ''अपना''
अब है अफ़साना
पका रही हूँ- ;चूल्हे में खाना
गयी बुझ है लकड़ी,
हुये, कोयले भी ठंडे
धौंकूँगी ,फुँकनी  से ,
फूकूंगी जोरों से
पा सांसों की गर्मी 
भक से जला चूल्हा
 चिंगारी बन फैलीं
 ''अतिथि'' की यादे
भूखा ही गया जो  -
चौके से मेरे-
 न पी पाया चाय भी 
सवेरे सवेरे  
बनाई तो थी मैंने
 "नवाण के गुड़'' से
यादों का ये धुंवां
हवन का धुंवां ,
'सुलगती'
गीली लकड़ी का धुंवां--
'सब' धुंयें लाते हैं आँखों में पानी
बाहर आ गए हैं 'जलते अंगारे'
लेके हाथो में उनको ,
 चूल्हे में मैं डालूं
जलती नहीं मेरी 
अंगुलियां  कभी भी 
  यादों के धुवें से पर 
अब  आँखें हैं जलती ?
यादों की है समिधा ,
यादों की ही  बेदी 
न चूल्हा न लकड़ी 
पर  आँखों में पानी
शब्दों की ये पोटली  
आत्मीय है जो मेरी 
लगी   हैं कुलबुलाने
आत्मीय बनने को तेरी  ।। आभा।।

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