''यादें ''
यादें ! बीते वर्ष की
बीते बहुत से वर्षों की
यादें ! बीते वर्ष की
बीते बहुत से वर्षों की
यूँ लगता है जैसे कि
बीते युगों के किसी जनम की
जो !शायद था मेरा ?
कुछ साफ़ कुछ धुंधली
अक्सर चली आती हैं
अतिथि की मानिंद
आती-जाती हैं
"अपनी"
बीते युगों के किसी जनम की
जो !शायद था मेरा ?
कुछ साफ़ कुछ धुंधली
अक्सर चली आती हैं
अतिथि की मानिंद
आती-जाती हैं
"अपनी"
कीमती पोटली लिये !
थमा देती हैं वो पोटली
'' मुझे ''
चुपके से ?
अक्सर तब !
-जब होती हूँ ''मैं'' चौके में
हाँ! मिलती हूँ मैं अक्सर चौके में ही
डरती हूँ
-अतिथी की है पोटली
कोई चुरा ले कुछ तो !
पोटली दी है संभाल
तिजोरी में दिल की
लगी हूँ बनाने मैं चूल्हे पे खाना ,
पर ये क्या ?
गांठें थी ढीली ,
बिखर गए मोती
यादों के मोती ,
बीते पलों के मोती
बचपन की यादें ,
जवानी की यादें
पिता की कहानी -
वो माँ की जुबानी
यादें तुम्हारी
थमा देती हैं वो पोटली
'' मुझे ''
चुपके से ?
अक्सर तब !
-जब होती हूँ ''मैं'' चौके में
हाँ! मिलती हूँ मैं अक्सर चौके में ही
डरती हूँ
-अतिथी की है पोटली
कोई चुरा ले कुछ तो !
पोटली दी है संभाल
तिजोरी में दिल की
लगी हूँ बनाने मैं चूल्हे पे खाना ,
पर ये क्या ?
गांठें थी ढीली ,
बिखर गए मोती
यादों के मोती ,
बीते पलों के मोती
बचपन की यादें ,
जवानी की यादें
पिता की कहानी -
वो माँ की जुबानी
यादें तुम्हारी
उन पे मैं ''वारी''
झूलों में झूलूँ
बच्चों संग खेलूं
तेरे संग जीवन ,
वो गुजरा जमाना
वही था बस ''अपना''
अब है अफ़साना
पका रही हूँ- ;चूल्हे में खाना
गयी बुझ है लकड़ी,
हुये, कोयले भी ठंडे
धौंकूँगी ,फुँकनी से ,
फूकूंगी जोरों से
पा सांसों की गर्मी
झूलों में झूलूँ
बच्चों संग खेलूं
तेरे संग जीवन ,
वो गुजरा जमाना
वही था बस ''अपना''
अब है अफ़साना
पका रही हूँ- ;चूल्हे में खाना
गयी बुझ है लकड़ी,
हुये, कोयले भी ठंडे
धौंकूँगी ,फुँकनी से ,
फूकूंगी जोरों से
पा सांसों की गर्मी
भक से जला चूल्हा
चिंगारी बन फैलीं
चिंगारी बन फैलीं
''अतिथि'' की यादे
भूखा ही गया जो -
चौके से मेरे-
न पी पाया चाय भी
भूखा ही गया जो -
चौके से मेरे-
न पी पाया चाय भी
सवेरे सवेरे
बनाई तो थी मैंने
बनाई तो थी मैंने
"नवाण के गुड़'' से
यादों का ये धुंवां
हवन का धुंवां ,
'सुलगती'
गीली लकड़ी का धुंवां--
'सब' धुंयें लाते हैं आँखों में पानी
बाहर आ गए हैं 'जलते अंगारे'
लेके हाथो में उनको ,
हवन का धुंवां ,
'सुलगती'
गीली लकड़ी का धुंवां--
'सब' धुंयें लाते हैं आँखों में पानी
बाहर आ गए हैं 'जलते अंगारे'
लेके हाथो में उनको ,
चूल्हे में मैं डालूं
जलती नहीं मेरी
जलती नहीं मेरी
अंगुलियां कभी भी
यादों के धुवें से पर
यादों के धुवें से पर
अब आँखें हैं जलती ?
यादों की है समिधा ,
यादों की ही बेदी
न चूल्हा न लकड़ी
पर आँखों में पानी
शब्दों की ये पोटली
शब्दों की ये पोटली
आत्मीय है जो मेरी
लगी हैं कुलबुलाने
आत्मीय बनने को तेरी ।। आभा।।
आत्मीय बनने को तेरी ।। आभा।।
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