विजयदशमी -दुर्गमात्मस्वरूपिणी आत्मा में दुर्गा को स्थापित कर राम द्वारा रावण का संहार -
सोच रही थी खड़ी अपनी बालकनी में - करोड़ों वर्षों से आज भी हर वर्ष ये चरित्र जन समाज को चेतना दे रहे हैं। वही चरित्र पर प्रतिवर्ष उन्हें देखने को जन मानस में वही उल्लास -
पहले घर घर में रामायण पढ़ी जाती थी। घरों में जन्मदिन होने पे तो अखंड रामायण होती थी। धीरे -धीरे पश्चिमी संस्कृति और बाजारवाद समाज पे हावी होने लगा और लोग रामायण को भूलने लगे। आज जो भी रामायण भारत के अस्सी प्रतिशत लोगों को मालूम है वो रामानंद सागर की रामायण है या टीवी व्हाट्स आप की रामायण है - क्यों नहीं पढ़ना चाहते लोग ये अचरज की बात है।
अभी मैं ये सोच ही रही थी की पटाखों की आवाज आने लगी तो जल गया रावण।
जय श्री राम का उद्घोष टीवी में भी और बाहर मैदान में भी ,सभी सोच रहे हैं बुराई जल गयी।
तभी मुझे रावण दिखाई दिया --
मैंने उसे इशारे से अपने घर बुला लिया। बिठाया और चाय का वक्त था तो चाय के साथ पकौड़े और दशहरे के मोती चूर के लड्डू खिलाये।
तृप्त हो के रावण ने अपना चिर परिचित अट्टहास किया और बोला
हा हा हा हा हा हा ---देखो जला आये मुझको , भुलावे में हैं । बच्चू मैं तो पुतलों से निकल इन सभी के सर पे आ बैठा था ,ढोल नगाड़े डीजे के शोर से सभी का सर भारी था तो मैंने किसी को अहसास ही न होने दिया की ये भार मेरा भी है। अरे मेरे ग्रेट -ग्रेट -ग्रेट -ग्रेट ---ग्रैंड सनों [मैं तुम्हारा पूर्वज ही तो हूँ न ]
तुम्हें पता है---रामजी कौन हैं -नहीं न मैं बताता हूँ -------रामजी हमारी आत्मा हैं ,और उस आत्मा का हृदय है जगद्जननी माँ सीता ,स्नेह करुणा और ममता की मूर्ति।और मैं रावण हूँ अहंकार ! जब ये सर चढ़के बोलता है न तो आत्मा से हृदय को छीन लेता है मानव हृदयहीन हो जाता है।
ये जो आजकल तुम सबने लिखना शुरू किया है न ,रावण विद्वान था ,चरित्रवान था ---राम तेरे राज्य का रावण आज के आदमी से अच्छा था ,बेटेजी ; मुझे बताओ तो 125 करोड़ के देश में एक करोड़ ने भी रामायण पढ़ी हैं ? पढ़ते तो मालूम चलता न, कि मैं अहंकारी था ,लंगोट का कच्चा था ,अपनी पुत्रवधू रम्भा पे कुदृष्टि डाली थी ,उसी का श्राप था जिससे डर के मैंने किसी स्त्री को उसकी आज्ञा के बिना अपने महल में लाना और उसे छूना बंद कर दिया था [सो मैं कायर और डरपोक भी था ] वो अलग बात है कि अधिकाँश स्त्रियों को मैं डरा धमका के बस में कर लेता था ,पर सीता तो शक्ति थीं ,उन्हें कौन डरा सकता था।
विद्वान की जहां तक बात है तो जो व्यक्ति अपने आराध्य देवाधिदेव शिव के भी आराध्य प्रभु राम को न पहचान पाया वो क्या विद्वान ! और विडंबना देखो तुम सब की ,जिस विभीषण ने आत्मसाक्षात्कार से रामजी को पहचान लिया और कुल की रक्षा की उसे तुम सब घरका भेदी कहते हो। अरे मेरे अहंकार ने तो कुल के विनाश की तैयारी कर दी थी वोतो विभीषण के कारण कुछ बंधु-बांधव बच गए और कुल की स्त्रियों की भी रक्षा हो सकी।
मैं देख रहा हूँ , आजकल राम तो केवल वाल्मीकि या तुलसी के द्वारा रचा गया एक चरित्र मात्र रह गया है ,जिसके जन्म स्थान को भी प्रमाण की दरकार है एवं रावण सजीव होके अपने दस ही नहीं सहस्त्र सिरों के साथ समाज में घूम रहा है ,उसपर भी तुम लोग बड़े जोर शोर से कहते हो ,रावण दहन --बुराई पर अच्छाई की जीत ,बेटे है कहां अच्छाई ?
मुझे अपने विषय में बहुत कुछ कहना है ,पर आज नहीं ,आज राम लखन सीता की बात।
तो मैं कह रहा था -राम हमारी आत्मा है चेतनतत्व ;जिसके होने से हम हैं। सिया हमारा हृदय है ,स्नेह ,करुणा ममता की नदी जो हमें ये अनुभव करवाती हैं कि हम चेतन हैं। रावण अहंकार है जो हमारी आत्मा से हृदय को चुरा के उसे जड़ बना देता है। लक्ष्मण हमारी सजगता है ,जो अहंकार को दूर रखती है ,हमें विनम्र और गतिशील बनाये रखती है। हनुमान हमारी बुद्धि हैं जो हमें ,शक्ति ,साहस ,शौर्य सुमति ,सिद्धि और निधियां देते हैं। भरत धर्म हैं ,धैर्य हैं ,विनय हैं ,प्रेमी हैं और मानव की चेतनता की रीढ़ हैं ,जिनको सहारा देने को शत्रुहंता शत्रुघ्न सदैव ततपर रहते है।
तो आज मैं रावण ,दशानन ये घोषणा करता हूँ कि ---''इस ब्रह्माण्ड में जब तक सीताराम रहेंगे ,लाख पुतले फूँको ,रावण भी रहेगा। ----मैं राम के होने से हूँ पर राम में नहीं हूँ ; बस यही मेरा दुर्भाग्य है ''
कृष्ण ने कहा है न गीता में
ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं ते मयि।।
सात्विक पिता का दुष्ट पुत्र हो तो पिता उसमें होते हुये भी नहीं होता -वैसे ही मैं राम के होने से हूँ पर राम में नहीं हूँ ;
-----रामदरबार हमारा ये शरीर ही है ,इसमें हम रावण को सर पे बिठा दें और राम की चेतना को जड़ के दें यही समझ बुद्धि है ---तो बेटे रावणी प्रवृतियों को जलाओ ,न की मेरा पुतला फूँको ---पुतला तो तुम अपने विरोधियों का भी फूँकते हो जुलूस निकालके और ट्रैफिक जाम करके ---तो क्या विरोधी जल जाता है।
रावण को महिमामंडित मत करो , तो अब मैं चलता हूँ ,अगले वर्ष फिर आऊंगा मुझे पूरा विशवास है तुम मुझे यहीं पे मिलोगे मेरा पुतला फूँकते हुए --जयश्री राम --हैप्पी दशहरा।
विद्वान की जहां तक बात है तो जो व्यक्ति अपने आराध्य देवाधिदेव शिव के भी आराध्य प्रभु राम को न पहचान पाया वो क्या विद्वान ! और विडंबना देखो तुम सब की ,जिस विभीषण ने आत्मसाक्षात्कार से रामजी को पहचान लिया और कुल की रक्षा की उसे तुम सब घरका भेदी कहते हो। अरे मेरे अहंकार ने तो कुल के विनाश की तैयारी कर दी थी वोतो विभीषण के कारण कुछ बंधु-बांधव बच गए और कुल की स्त्रियों की भी रक्षा हो सकी।
मैं देख रहा हूँ , आजकल राम तो केवल वाल्मीकि या तुलसी के द्वारा रचा गया एक चरित्र मात्र रह गया है ,जिसके जन्म स्थान को भी प्रमाण की दरकार है एवं रावण सजीव होके अपने दस ही नहीं सहस्त्र सिरों के साथ समाज में घूम रहा है ,उसपर भी तुम लोग बड़े जोर शोर से कहते हो ,रावण दहन --बुराई पर अच्छाई की जीत ,बेटे है कहां अच्छाई ?
मुझे अपने विषय में बहुत कुछ कहना है ,पर आज नहीं ,आज राम लखन सीता की बात।
तो मैं कह रहा था -राम हमारी आत्मा है चेतनतत्व ;जिसके होने से हम हैं। सिया हमारा हृदय है ,स्नेह ,करुणा ममता की नदी जो हमें ये अनुभव करवाती हैं कि हम चेतन हैं। रावण अहंकार है जो हमारी आत्मा से हृदय को चुरा के उसे जड़ बना देता है। लक्ष्मण हमारी सजगता है ,जो अहंकार को दूर रखती है ,हमें विनम्र और गतिशील बनाये रखती है। हनुमान हमारी बुद्धि हैं जो हमें ,शक्ति ,साहस ,शौर्य सुमति ,सिद्धि और निधियां देते हैं। भरत धर्म हैं ,धैर्य हैं ,विनय हैं ,प्रेमी हैं और मानव की चेतनता की रीढ़ हैं ,जिनको सहारा देने को शत्रुहंता शत्रुघ्न सदैव ततपर रहते है।
तो आज मैं रावण ,दशानन ये घोषणा करता हूँ कि ---''इस ब्रह्माण्ड में जब तक सीताराम रहेंगे ,लाख पुतले फूँको ,रावण भी रहेगा। ----मैं राम के होने से हूँ पर राम में नहीं हूँ ; बस यही मेरा दुर्भाग्य है ''
कृष्ण ने कहा है न गीता में
ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं ते मयि।।
सात्विक पिता का दुष्ट पुत्र हो तो पिता उसमें होते हुये भी नहीं होता -वैसे ही मैं राम के होने से हूँ पर राम में नहीं हूँ ;
-----रामदरबार हमारा ये शरीर ही है ,इसमें हम रावण को सर पे बिठा दें और राम की चेतना को जड़ के दें यही समझ बुद्धि है ---तो बेटे रावणी प्रवृतियों को जलाओ ,न की मेरा पुतला फूँको ---पुतला तो तुम अपने विरोधियों का भी फूँकते हो जुलूस निकालके और ट्रैफिक जाम करके ---तो क्या विरोधी जल जाता है।
रावण को महिमामंडित मत करो , तो अब मैं चलता हूँ ,अगले वर्ष फिर आऊंगा मुझे पूरा विशवास है तुम मुझे यहीं पे मिलोगे मेरा पुतला फूँकते हुए --जयश्री राम --हैप्पी दशहरा।
दशानन पटाखों की आवाज से उड़ते कबूतरों संग फिर से मेरे घर में घुस आया। आपको बताऊं वो आज भी वैसा ही था जिसे देख रामजी भी कह उठे आह कितना सुंदर व्यक्तित्व ,इसे देख तो इसे मारने की इच्छा ही न हो। शायद अहंकार इतना ही प्यारा होता है जब सर चढ़ जाता है --बस कुछ गप्पें मारी हमने।
रावण बोला कल से तो पंचक हैं चलो ये भी ठीक है ये आज ही पुतले का दहन कर रहे हैं वरना एक सर के पांच के हिसाब से कितने सारे पुतलों का दहन करना पड़ता और इतनी ही ब्रह्म हत्याओं का पाप लगता सो अलग -हाहाहाहाहा -
रावण ने हलुवा खाया और चलता बना दूसरे वर्ष आने को कह के -----
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