Tuesday, 20 February 2018

बाट निहारूं  
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मिलें अवनि- अम्बर जहाँ पर ,
क्या  ! वहीं रहते हो मुरारी ?
 अवनि-अम्बर मिल रहे हैं
निशब्द मेरे मन गगन में 
 अब तो आ जाओ मुरारी। 
 सामने अम्बुद  ये गहरा ,
सुप्त सुधियों की ये  लहरें   
आ तीर पर  कानों में कहतीं 
ज्वाल मैं , तू अम्बु  शीतल।  
 मन की गहराई में पीड़ा 
मूंगे के  पर्वत सी खड़ी  है  
और अस्थिर ये गगन है 
कर्म -भूमि ,पुण्य -भूमि 
उसपार ही तो मिल सकेगी। 
तैर कर जाना है मुझको

 बिन डांड और पतवार के ही .
अक्षि का निक्षेप ही है 
तू कूल में देता दिखाई।
कर्म के इस व्योम पर 

नक्षत्र यों बिखरे पड़े हैं ,
रोकने मुझको खड़े हैं 

मोह के बंधन ये सारे।
आज अर्जुन मैं बनी हूँ ,

कृष्ण बन जाओ मुरारी .
आज थामो बांह मेरी ,

संग हो लूँ मैं तुम्हारे।
किस तरह सूनी हैं राहें ,

मेघ बन कर मैं खड़ी हूँ
राह कोई सूझती ना 

मन मरुत भी पथ न पाता।
घिर गयी हूँ मैं तिमिर में 

,हारना ना चाहती हूँ
मरूकणों के तप्त पथ पर   

वेदना बन गल रही हूँ। 
चेतना  थकने लगी अब 
 ये भेद भी मैं जानती हूँ
अवनि अम्बर के मिलन पर

 सज चुका है रथ तुम्हारा।
स्वर्ण दिखता है गगन में !

क्या  ! आ रहे हो तुम मुरारी ?
नील अम्बर में पीताम्बर 

अब सुशोभित हो रहा है ,
 गूंजने तो अब लगी है 

कानो में बंसीधुन तुम्हारी। 
उषा निशा बन कर  खड़ी है
मुखर मन को करो प्रिय तुम   
तक रही हूँ राह प्रियतम 
लय ताल वाला नृत्य दे दो। 
अब तो आ जाओ मुरारी  ।।आभा।।
.......

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