मैं भी मधुशाला
===============
यादें आज बनी हैं साकी
मोह बना जीवन हाला
अक्षर क्षर हो बरस रहे हैं
लिए तमन्नाओं का प्याला
यादों के रंग भर प्याले में
कूची डुबा -डुबा मन की
मन व्योम के प्रांतर के
कांटो- फूलों की खेती से
चुन -चुन बिम्ब ढूंढ-ढांड
जीवन को परिभाषित करती
उत्सर्गों के अवशेषों पे
कविता बनने जो मचली
मौन व्यथा ,मौन वांछा संग
नीरव मधु रंगों की छाया
शिशिर- हृदय की पीड़ाओं के
गायन- नर्तन की गूँजों सी
चित्रपटी की तृष्णा सी बहती
जीवन सरिता मधुशाला।
==================
सूरज की किरणों संग जो
सुबह सवेरे उठ जाती
सर्दी गर्मी पतझड़ सावन
सूरज संग ही चलती रहती
मुझमें हंसती मुझ संग रोती
साँसों में चातक बन रहती
सजग हमेशा कभी न थकती
बादल से भी वो है निर्मल
फूलों से भी वो है कोमल
अंगूर लता से ज्यादा भावुक
साकी से ज्यादा मदमाती
चलती फिरती पूर्ण कविता
माँ है मेरी मधुशाला।
==================
संकल्पों की कठिन वेदी पर
सुख-साधन जो उपजाता है
नीरस प्रथा वो बलिदानों की
जिसके शोणित में बहती
संतति के स्वप्न सलोने
साँसों में गुम्फित रहते
दुःख संतापों को सह कर जो
घर का जीवन रसमय करता
जिसकी सब इच्छाओं के शर
तुरीणों में ही सो जाते हैं
सुख दुःख - घोल रजत प्याली में
जो संतति हित गरल पान करे
चिरपरिचित सा देवदूत
वो पिता है मेरी मधुशाला।
=======================
मन चातक की प्यास है जो
सदियों से वो उर में रहता
स्मृति सिंधु वो चिर अनंत
मुझमे मचले लहरें बन कर
सुधि लहरें उसको छूने को
मुझमें बनती टूटा करतीं
आभा के सित सजल कणों को
छू वो इंद्रधनुष रंग देता
मन के सस्मित करुणित भावों
के अधरों का वागीश है वो
तन दीपक पर जल कर जिसने
युग - युग स्नेह का दान दिया
मिलन हेतु उस प्रियतम पर
मैंने साँसों को वार किया
युग- युग से ढूँढ रही जिसको
जो, मिला और फिर छोड़ गया
स्मृति कलश उस प्रियतम का
मुझमें ढ़लती मधुशाला।
===================
नियति है बहती रहती
समय बनी चलती रहती
बन अश्रु मुझे , विगलित करती
कविता बन अलकों में सोती
झंझा बन निलय उड़ा जाती
उषा की लाल चुनर झलमल
संध्या का इंगूरी आँचल
लग गले निशा के गहन पलों में
दिग्वधुओं को तारों के घूंघट की
झलमलझल -चंचलता देती
मधु ऋतू में फूलों का पराग
गुंजार वो चंचल भवरों की
बावरी आम की बौरों सी
मदभरी नार अंगूरों सी
हम सब को सदियों से नचा रही
वो प्रकृति मेरी मधुशाला।
=================
गूंगी घड़ियों की ध्वनि मुखर
टूटी साँसों का गीला पन
पात झरे तरु का वैभव
भूले गीतों का गान मदिर
व्योम के घर सजल बादल
जलद के उर चमक बिजुरी सी
आँखों में करुणा तोय लिये
पी कहां पपिहे सी टेर लिए
अधरों की प्यास बुझाने को
सरिता मधुजळ की बन बहती
वन तरु पे छायी वल्लरी
चाँद रात की किरण रेशमी
प्रेम -मिलन के बाजारों में
रूप धरे प्रियतम -प्रेयसी का
खोये प्रियतम को ढूंढ रही हूँ
बनी आज मैं मधुशाला।
===============
===============
यादें आज बनी हैं साकी
मोह बना जीवन हाला
अक्षर क्षर हो बरस रहे हैं
लिए तमन्नाओं का प्याला
यादों के रंग भर प्याले में
कूची डुबा -डुबा मन की
मन व्योम के प्रांतर के
कांटो- फूलों की खेती से
चुन -चुन बिम्ब ढूंढ-ढांड
जीवन को परिभाषित करती
उत्सर्गों के अवशेषों पे
कविता बनने जो मचली
मौन व्यथा ,मौन वांछा संग
नीरव मधु रंगों की छाया
शिशिर- हृदय की पीड़ाओं के
गायन- नर्तन की गूँजों सी
चित्रपटी की तृष्णा सी बहती
जीवन सरिता मधुशाला।
==================
सूरज की किरणों संग जो
सुबह सवेरे उठ जाती
सर्दी गर्मी पतझड़ सावन
सूरज संग ही चलती रहती
मुझमें हंसती मुझ संग रोती
साँसों में चातक बन रहती
सजग हमेशा कभी न थकती
बादल से भी वो है निर्मल
फूलों से भी वो है कोमल
अंगूर लता से ज्यादा भावुक
साकी से ज्यादा मदमाती
चलती फिरती पूर्ण कविता
माँ है मेरी मधुशाला।
==================
संकल्पों की कठिन वेदी पर
सुख-साधन जो उपजाता है
नीरस प्रथा वो बलिदानों की
जिसके शोणित में बहती
संतति के स्वप्न सलोने
साँसों में गुम्फित रहते
दुःख संतापों को सह कर जो
घर का जीवन रसमय करता
जिसकी सब इच्छाओं के शर
तुरीणों में ही सो जाते हैं
सुख दुःख - घोल रजत प्याली में
जो संतति हित गरल पान करे
चिरपरिचित सा देवदूत
वो पिता है मेरी मधुशाला।
=======================
मन चातक की प्यास है जो
सदियों से वो उर में रहता
स्मृति सिंधु वो चिर अनंत
मुझमे मचले लहरें बन कर
सुधि लहरें उसको छूने को
मुझमें बनती टूटा करतीं
आभा के सित सजल कणों को
छू वो इंद्रधनुष रंग देता
मन के सस्मित करुणित भावों
के अधरों का वागीश है वो
तन दीपक पर जल कर जिसने
युग - युग स्नेह का दान दिया
मिलन हेतु उस प्रियतम पर
मैंने साँसों को वार किया
युग- युग से ढूँढ रही जिसको
जो, मिला और फिर छोड़ गया
स्मृति कलश उस प्रियतम का
मुझमें ढ़लती मधुशाला।
===================
नियति है बहती रहती
समय बनी चलती रहती
बन अश्रु मुझे , विगलित करती
कविता बन अलकों में सोती
झंझा बन निलय उड़ा जाती
उषा की लाल चुनर झलमल
संध्या का इंगूरी आँचल
लग गले निशा के गहन पलों में
दिग्वधुओं को तारों के घूंघट की
झलमलझल -चंचलता देती
मधु ऋतू में फूलों का पराग
गुंजार वो चंचल भवरों की
बावरी आम की बौरों सी
मदभरी नार अंगूरों सी
हम सब को सदियों से नचा रही
वो प्रकृति मेरी मधुशाला।
=================
गूंगी घड़ियों की ध्वनि मुखर
टूटी साँसों का गीला पन
पात झरे तरु का वैभव
भूले गीतों का गान मदिर
व्योम के घर सजल बादल
जलद के उर चमक बिजुरी सी
आँखों में करुणा तोय लिये
पी कहां पपिहे सी टेर लिए
अधरों की प्यास बुझाने को
सरिता मधुजळ की बन बहती
वन तरु पे छायी वल्लरी
चाँद रात की किरण रेशमी
प्रेम -मिलन के बाजारों में
रूप धरे प्रियतम -प्रेयसी का
खोये प्रियतम को ढूंढ रही हूँ
बनी आज मैं मधुशाला।
===============
No comments:
Post a Comment