श्राद्ध में ब्राह्मण कैसा हो --महाभारत से --
स्वयं ही श्राद्ध कर्म कर सकें तो अतिउत्तम। किन्तु परन्तु हरकोई अपने से करने में सक्षम नहीं होता। कभी न कभी मनन होता है किसी अच्छे से ब्राह्मण को बुलवा के श्राद्ध कर्म करवाया जाये। ये भी पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा का ही द्योतक है। सभी कर्मकांड प्रसन्नता पूर्वक सम्पन्न होने पे हमारे मन को अपार संतुष्टि मिलती है और तब हम मन ही मन ये भी मान लेते हैं कि हमारे पितृ देवता भी अवश्य संतुष्ट हुये होंगे -बात भी यही होती है -बच्चे प्रसन्न तो पितर भी संतुष्ट।
अब बात उठती है कि ब्राह्मण कैसा हो। तो महाभारत में इसके विषय में पूरा अध्याय है।
"कीदृशयेभ्य परदातव्यं भवेच्श्राद्धं पितामह।
द्विजेभ्य कुरूशार्दूल तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।।"
----
युधिष्ठर पूछ रहे है भीष्म से ,श्राद्धके दान के लिए कैसे ब्राह्मण को निमंत्रण दिया जाये।
--भीष्म --
"ब्राह्मणान् न परीक्षेत क्षत्रियो दानधर्मवित्।
दैवे कर्मणि पित्र्ये तु न्यायमाहुः परीक्षणम्।।"
--राजन् ! क्षत्रियों को -देवकार्य ,धर्म या दान हेतु कर्मकांड के हेतु ब्राह्मण की परीक्षा नहीं करनी चाहिये किसी भी ब्राह्मण को बुलवा के श्राद्धापूर्वक कर्म में प्रवृत हो जाओ पर श्राद्ध कर्म और पितृयज्ञ हेतु ब्राह्मण की परीक्षा न्याय संगत मानी गयी है ---
अर्थात पितृयज्ञ या तो स्वयं करो और दान सुपात्र को जिसे उसकी आवश्यकता है दे दो -पर ब्राह्मण को निमंत्रित कर रहे हो तो उसकी पूर्ण जानकारी होनी आवश्यक है।
"श्राद्धे त्वथ महाराज परीक्षेद् ब्राह्मणान् बुध: |
कुलशीलवयोरुपेर्विद्ययाभिजनेन च।| "
कुल शील रूप आचरण विद्या और पूर्वजों के निवास स्थान की जानकारी होनी जरूरी है।
पितृयज्ञ हेतु ब्राह्मणों को दो श्रेणियों में रखा गया है -
१-पंक्तिदूषक-पंक्तिबाहर।
२-पंक्तिपावन- पांक्तेय।
अब पंक्तिदूषक में --रोगी ,अनपढ़ जुवारी ,गर्भ गिराने वाला ,पर स्त्रीगमन करने वाला ,हस्तरेखा या ज्योतिष से जीविका निर्वहन करने वाला ,मंदिर में पूजाकरके दान -दक्षिणा से जीविका चलाने वाला ,पिता से झगड़ा करने वाला और भी कई वर्जनाएं ---यहां तक कि जिसके छोटे भाई का पहले विवाह हो गया हो वो भी वर्जित है। -----
अब पंक्तिपावन -तृणाचिकेत नामक मंत्रों का ज्ञाता हो ---अग्नि मंत्र जो यम ने नचिकेता को बताये और नचिकेता के नाम पे ही यम ने इन मंत्रों का नामकरण नचिकेत मंत्र किया -
जो उपनिषदों-वेदों का परम्परा से ही ज्ञाता है -पीढ़ियों से श्रोत्रिय है ,सत्यवादी ,नियम पे चलने वाला ,कर्तव्यपरायण ,धर्मशील। क्रोध रहित ,जितेन्द्रिय और ऋत्विक हो -वेद की शिक्षा देता हो -
टोपी या पगड़ी पहन के भोजन न करे।
ये पढ़ने के बाद -कलयुग है ऐसा सोच के मंथन करने पे मुझे तो सारे ब्राह्मण पंक्ति बाहर ही लगने लगे ,युग का प्रभाव तो सभी में होगा न। वेदपाठी भी क्रोधी देखे हैं मैंने ,कर्तव्यपरायण और धर्मशील हठी और मानिनी हो जाते हैं।
शांतिकुंज वालों ने तो सभी को किताब और झोला पकड़ा के ब्राह्मण बना दिया है।
मैं तो पितृयज्ञ स्वयं ही करती हूँ ,भूलचूक को 'आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनं '-क्षमा प्रार्थना से क्षमा मिलने की संतुष्टि --क्यों मन में कल्पें ब्रह्म कैसा हो और दान -वो भी कलयुग की निति रीति से --रूड़की में थी तो कांजी हाउस ,मंदिर अनाथाश्रम -आपके पास काम करता गरीब -किसी बच्चे की वर्ष भर की फीस ,पौधे लगाना ,रक्त दान इत्यादि ----
बस यूँ ही महाभारत में श्राद्ध पढ़ते पढ़ते। आभा।
स्वयं ही श्राद्ध कर्म कर सकें तो अतिउत्तम। किन्तु परन्तु हरकोई अपने से करने में सक्षम नहीं होता। कभी न कभी मनन होता है किसी अच्छे से ब्राह्मण को बुलवा के श्राद्ध कर्म करवाया जाये। ये भी पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा का ही द्योतक है। सभी कर्मकांड प्रसन्नता पूर्वक सम्पन्न होने पे हमारे मन को अपार संतुष्टि मिलती है और तब हम मन ही मन ये भी मान लेते हैं कि हमारे पितृ देवता भी अवश्य संतुष्ट हुये होंगे -बात भी यही होती है -बच्चे प्रसन्न तो पितर भी संतुष्ट।
अब बात उठती है कि ब्राह्मण कैसा हो। तो महाभारत में इसके विषय में पूरा अध्याय है।
"कीदृशयेभ्य परदातव्यं भवेच्श्राद्धं पितामह।
द्विजेभ्य कुरूशार्दूल तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।।"
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युधिष्ठर पूछ रहे है भीष्म से ,श्राद्धके दान के लिए कैसे ब्राह्मण को निमंत्रण दिया जाये।
--भीष्म --
"ब्राह्मणान् न परीक्षेत क्षत्रियो दानधर्मवित्।
दैवे कर्मणि पित्र्ये तु न्यायमाहुः परीक्षणम्।।"
--राजन् ! क्षत्रियों को -देवकार्य ,धर्म या दान हेतु कर्मकांड के हेतु ब्राह्मण की परीक्षा नहीं करनी चाहिये किसी भी ब्राह्मण को बुलवा के श्राद्धापूर्वक कर्म में प्रवृत हो जाओ पर श्राद्ध कर्म और पितृयज्ञ हेतु ब्राह्मण की परीक्षा न्याय संगत मानी गयी है ---
अर्थात पितृयज्ञ या तो स्वयं करो और दान सुपात्र को जिसे उसकी आवश्यकता है दे दो -पर ब्राह्मण को निमंत्रित कर रहे हो तो उसकी पूर्ण जानकारी होनी आवश्यक है।
"श्राद्धे त्वथ महाराज परीक्षेद् ब्राह्मणान् बुध: |
कुलशीलवयोरुपेर्विद्ययाभिजनेन च।| "
कुल शील रूप आचरण विद्या और पूर्वजों के निवास स्थान की जानकारी होनी जरूरी है।
पितृयज्ञ हेतु ब्राह्मणों को दो श्रेणियों में रखा गया है -
१-पंक्तिदूषक-पंक्तिबाहर।
२-पंक्तिपावन- पांक्तेय।
अब पंक्तिदूषक में --रोगी ,अनपढ़ जुवारी ,गर्भ गिराने वाला ,पर स्त्रीगमन करने वाला ,हस्तरेखा या ज्योतिष से जीविका निर्वहन करने वाला ,मंदिर में पूजाकरके दान -दक्षिणा से जीविका चलाने वाला ,पिता से झगड़ा करने वाला और भी कई वर्जनाएं ---यहां तक कि जिसके छोटे भाई का पहले विवाह हो गया हो वो भी वर्जित है। -----
अब पंक्तिपावन -तृणाचिकेत नामक मंत्रों का ज्ञाता हो ---अग्नि मंत्र जो यम ने नचिकेता को बताये और नचिकेता के नाम पे ही यम ने इन मंत्रों का नामकरण नचिकेत मंत्र किया -
जो उपनिषदों-वेदों का परम्परा से ही ज्ञाता है -पीढ़ियों से श्रोत्रिय है ,सत्यवादी ,नियम पे चलने वाला ,कर्तव्यपरायण ,धर्मशील। क्रोध रहित ,जितेन्द्रिय और ऋत्विक हो -वेद की शिक्षा देता हो -
टोपी या पगड़ी पहन के भोजन न करे।
ये पढ़ने के बाद -कलयुग है ऐसा सोच के मंथन करने पे मुझे तो सारे ब्राह्मण पंक्ति बाहर ही लगने लगे ,युग का प्रभाव तो सभी में होगा न। वेदपाठी भी क्रोधी देखे हैं मैंने ,कर्तव्यपरायण और धर्मशील हठी और मानिनी हो जाते हैं।
शांतिकुंज वालों ने तो सभी को किताब और झोला पकड़ा के ब्राह्मण बना दिया है।
मैं तो पितृयज्ञ स्वयं ही करती हूँ ,भूलचूक को 'आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनं '-क्षमा प्रार्थना से क्षमा मिलने की संतुष्टि --क्यों मन में कल्पें ब्रह्म कैसा हो और दान -वो भी कलयुग की निति रीति से --रूड़की में थी तो कांजी हाउस ,मंदिर अनाथाश्रम -आपके पास काम करता गरीब -किसी बच्चे की वर्ष भर की फीस ,पौधे लगाना ,रक्त दान इत्यादि ----
बस यूँ ही महाभारत में श्राद्ध पढ़ते पढ़ते। आभा।
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