'' ऊर्ध्वमूलो वाक्शाख ऐषोअश्वत्थ: सनातन ''
ज्ञान नचिकेता को जब ,
यम से जीवन का मिला था ,
विश्व है अश्वत्थ वृक्ष --
बस यही उसने कहा था ।
वृक्ष के मूल में ब्रह्म !
ब्रह्मा ,देव ,पितर,मनुज ,
पशु-पक्षी प्रकृति -
तने , शाख, फूल , पर्ण इसके !
वृक्ष ब्रह्म में सम्पूर्ण सृष्टि।
प्राण यूँ ही वृक्ष जगत के
वृक्ष हैं अमृत सृष्टि के
मन-प्राण - कल्याण सबके ।
मेरे अंगने का अलबेला
वृक्ष आज मुझसे ये बोला -
ये घनी छाँव मेरी -
ये अमलतास के झुमके
तारों से टिमटिम कुसुम नीम के पीपल के पातों की हवा ये --कट जायेंगे यदि वृक्ष यूँ ही ,संतति कैसे हमें पहचानेगी ?संतति के लिये- इक सेल्फी ले ले
आज मेरे साथ बिटिया -
चल तू इक सेल्फी लेले !
सृष्टि का हम ताप हरते
प्रकृति माँ के हम ही गहने
वृष्टि की भी चाह हम ही हैं
बुलबुलों का ठौर हैं हम ।
गर्मी से त्रस्त -आतप मनुज को
छाँव शीतल भी हमीं है ।
कर आचमन जल इस धरा का ,
बादलों को हम ही देते ,
लग गले फिर बादलों के ,
नेह से धरती भिगोते ।
बांधते हम इस धरा को ,
पर्वतों को रेतियों को
बलशाली सागर के तीरे
हम ही सैनिक बन खड़े है ।
तूफ़ान अर सुनामियों से -
आदम को हमने ही बचाया
उसने स्व विकास के हित
कुल्हाड़ा हमपे ही चलाया ।
हम हैं पादप !
प्राण वायु !
छाँव शीतल !
प्रेम-शांति औ अहिंसा
का संदेश लेकर उड़ चला जो -
उस शांति दूत खग का बसेरा ।
उत्सव का जब भी लो तुम संकल्प ,
रोप लो इक वृक्ष उस पल !
प्रकृति माँ हर्षाएगी अर -
संतति भी बच जायेगी ।
एक काटो हजार रोपो -
अब यही संकल्प होवे ,
वृक्ष ही से ये धरा है
वृक्ष ही है ब्रह्म जग में !
वृक्ष ही कान्हा की बंसी -
राधा-गोपियों का रास भी ये
साथ वन में सीता का दिया ,
पंचवटी ,चित्रकूट ,अशोक-वाटिका
भी वृक्षों से ।
वृक्ष ही से पूर्वज हमारे ,
संतति भी वृक्ष चाहे ,
वृक्षारोपण हो यज्ञ अपना ,
इस पीढ़ी का ये कर्म होवे ।
नील व्योम में उड़ रहा जो
सांध्य बेला में वो पक्षी
मेरे अंक में विश्राम लेगा !
मैं वृक्ष !
मैं जगत की भूख हरता ,
मैं जगत की प्यास हरता ,
मैं ही पलना हूँ तुम्हारा ,
औ अंत में मैं ज्वाल रथ हूँ ,
ओ !धरा के वासियों ,
कर आचमन तुम ये शपथ लो !
एक काटो-हजार रोपो ,
ये ही हो , संकल्प अब से ,
इस घड़ी से ,
इसी पल से ,
मैं उठूं इक वृक्ष रोपूं ,
एक खग को दूँ बसेरा
शांति का संदेश दूँ
वृष्टि को आमन्त्रण मेरा !
हो यही शुभ-संकल्प मेरा-
हो यही शुभ-संकल्प मेरा ॥आभा ॥
Manaज्ञान नचिकेता को जब ,
यम से जीवन का मिला था ,
विश्व है अश्वत्थ वृक्ष --
बस यही उसने कहा था ।
वृक्ष के मूल में ब्रह्म !
ब्रह्मा ,देव ,पितर,मनुज ,
पशु-पक्षी प्रकृति -
तने , शाख, फूल , पर्ण इसके !
वृक्ष ब्रह्म में सम्पूर्ण सृष्टि।
प्राण यूँ ही वृक्ष जगत के
वृक्ष हैं अमृत सृष्टि के
मन-प्राण - कल्याण सबके ।
मेरे अंगने का अलबेला
वृक्ष आज मुझसे ये बोला -
ये घनी छाँव मेरी -
ये अमलतास के झुमके
तारों से टिमटिम कुसुम नीम के पीपल के पातों की हवा ये --कट जायेंगे यदि वृक्ष यूँ ही ,संतति कैसे हमें पहचानेगी ?संतति के लिये- इक सेल्फी ले ले
आज मेरे साथ बिटिया -
चल तू इक सेल्फी लेले !
सृष्टि का हम ताप हरते
प्रकृति माँ के हम ही गहने
वृष्टि की भी चाह हम ही हैं
बुलबुलों का ठौर हैं हम ।
गर्मी से त्रस्त -आतप मनुज को
छाँव शीतल भी हमीं है ।
कर आचमन जल इस धरा का ,
बादलों को हम ही देते ,
लग गले फिर बादलों के ,
नेह से धरती भिगोते ।
बांधते हम इस धरा को ,
पर्वतों को रेतियों को
बलशाली सागर के तीरे
हम ही सैनिक बन खड़े है ।
तूफ़ान अर सुनामियों से -
आदम को हमने ही बचाया
उसने स्व विकास के हित
कुल्हाड़ा हमपे ही चलाया ।
हम हैं पादप !
प्राण वायु !
छाँव शीतल !
प्रेम-शांति औ अहिंसा
का संदेश लेकर उड़ चला जो -
उस शांति दूत खग का बसेरा ।
उत्सव का जब भी लो तुम संकल्प ,
रोप लो इक वृक्ष उस पल !
प्रकृति माँ हर्षाएगी अर -
संतति भी बच जायेगी ।
एक काटो हजार रोपो -
अब यही संकल्प होवे ,
वृक्ष ही से ये धरा है
वृक्ष ही है ब्रह्म जग में !
वृक्ष ही कान्हा की बंसी -
राधा-गोपियों का रास भी ये
साथ वन में सीता का दिया ,
पंचवटी ,चित्रकूट ,अशोक-वाटिका
भी वृक्षों से ।
वृक्ष ही से पूर्वज हमारे ,
संतति भी वृक्ष चाहे ,
वृक्षारोपण हो यज्ञ अपना ,
इस पीढ़ी का ये कर्म होवे ।
नील व्योम में उड़ रहा जो
सांध्य बेला में वो पक्षी
मेरे अंक में विश्राम लेगा !
मैं वृक्ष !
मैं जगत की भूख हरता ,
मैं जगत की प्यास हरता ,
मैं ही पलना हूँ तुम्हारा ,
औ अंत में मैं ज्वाल रथ हूँ ,
ओ !धरा के वासियों ,
कर आचमन तुम ये शपथ लो !
एक काटो-हजार रोपो ,
ये ही हो , संकल्प अब से ,
इस घड़ी से ,
इसी पल से ,
मैं उठूं इक वृक्ष रोपूं ,
एक खग को दूँ बसेरा
शांति का संदेश दूँ
वृष्टि को आमन्त्रण मेरा !
हो यही शुभ-संकल्प मेरा-
हो यही शुभ-संकल्प मेरा ॥आभा ॥
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