केन संकल्पिते श्राद्धं कस्मिन् काले किमात्मकम्।
श्राद्ध कब प्रचलित हुये और किसने सर्वप्रथम इसका संकल्प और प्रचार किया ?
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युधिष्ठर के पूछने पे भीष्म पितामह ने बताया -
-ब्रह्माजी से महर्षि अत्रि की उत्पत्ति हुई। वे बड़े प्रतापी ऋषि थे ,उनके वंश में दत्तात्रेय जी हुये। दत्तात्रेय के पुत्र थे राजा निमि जो बहुत बड़े तपस्वी थे ,इनके एक पुत्र था -नाम था श्रीमान। श्रीमान भी तपस्वी और सर्वगुण सम्पन्न था पर कठोर तप -स्वाध्याय प्राणायाम में लीन रहते हुए इनका जीवन से मोह भंग हो गया और मोक्ष हेतु उन्होंने प्राण त्याग दिये।
पुत्र वियोग में निमि बहुत व्याकुल और शोक-संतप्त हो गये। उन्होंने पुत्र की आत्मा की शान्ति के लिए अमावस्या को पुत्र की सभी प्रिय वस्तुयें ,शास्त्र विदित सभी श्राद्ध में देने योग्य वस्तुयें एकत्रित कीं , सात ब्राह्मणों को बुला उनकी पूजा अर्चना की ,तदन्तर कुश आसन दे पुत्र "श्रीमान" के नाम गोत्र का उच्चारण कर कुशों पे पिंड दान किया एवं ब्राह्मणों को यथायोग्य दान दिया।
मोह वश निमि ने ये श्राद्ध कर्म स्वयं ही सम्पन्न कर तो दिया पर फिर पश्चाताप करने लगे -क्यूंकि शास्त्र में तो कुलगुरु ,या विद्वान ब्राह्मण आदि द्वारा ही श्राद्ध कर्म का विधान है।
निमि ने अपने पितामह अत्रि ऋषि को अपने मन का संशय बताया। ब्राह्मण कुपित होक शाप न दें इसके लिये भी उनके मन में भय था।
अत्रि ऋषि ने निमि से कहा
निमे संकल्पितस्तेsयं पित्रियजितपोधन।
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तपोधन निमि -पुत्र तुमने यह जो पितृयज्ञ किया है इससे डरो मत ,ये ब्रह्म का ही प्रावधान है।
अपने प्रिय के लिये उत्तम ,त्रुटिरहित ,मङ्गल विधान स्वयं के सिवा कोई नहीं कर सकता। श्राद्ध कर्म प्रिय हेतु किया जाने वाला पवित्र और पुण्य कर्म है ,इसकी पवित्रता और शुद्धता को बनाये रखना प्रिय के सिवा और कौन कर सकता है। जिस श्रद्धा और स्नेह से तुम इस कर्म को करोगे कोई अन्य नहीं कर सकता चाहे वो कितना ही विद्वान क्यों न हो।
निमि के इस प्रकार पितृयज्ञ करने और ब्रह्मापुत्र अत्रि ऋषि की संस्तुति के पश्चात सभी ऋषि -महर्षि -देव -मानव नित्यप्रति पितरों की याद में पितृयज्ञ करने लगेऔर पितरों को अन्न देने लगे । भूले बिसरे सभी पितृ प्रसन्न हो कर तिल -जल के साथ स्वादिष्ट व्यंजनों का भी आनंद लेने लगे। पितृलोक से मृत्युलोक तक आवागमन नित्य ही होने लगा ,घर महालय बन गए -पर मृत्युलोक को छोड़ चुके और केवल जल-तिल से तृप्त रहने वाले पितर बहुत शीघ्र ही तृप्त हो गये अब उन्हें अजीर्ण होने लगा -
अजीर्णेस्त्वभिहन्यन्ते ते देवा पितृभिः सह।
सोम्मेवाभिपद्ध्यन्त तदा ह्यन्नाभिपीडिता --
सोम के पास जाके पितर बोले देव हम श्राद्धान्न से बहुत कष्ट पा रहे हैं -हमारा कल्याण करिये। सोम ने पितरों को ब्रह्मा और ब्रह्मा ने अग्नि के पास भेजा -तब अग्नि ने कहा अब से हम केवल श्राद्ध पक्ष में ही अन्न ग्रहण करेंगे तब मैं आपके साथ ही रहूंगा ताकि आपकी जठराग्नि प्रदीप्त रहे -तब से पहले हवि अग्नि को दी जाती है और फिर पितरों को पिंडदान होता है।
कथा विस्तृत है ,बहुत बातें बहुत सुंदर और मनोवैज्ञानिक रूप से समझाई गयी है।
यदि हम शास्त्रों को स्वयं पढ़ें तो जान पायें हमारे शास्त्रों में रूढ़ियों का कोई स्थान नहीं है ,देश काल परिस्थिति के अनुसार ,श्रद्धा ,सुविधा और पवित्रता पूर्वक जो भी विधि-विधान कर सकते हैं करें ये आदेश है ,
ब्राह्मण से करवाएं स्वयं करें ,बस श्रद्धा पूर्वक हो। कुछ नहीं कर सकें तो केवल जल-तिल से तर्पण -दक्षिण दिशा में।
एक स्थान पे तो ये भी लिखा है कि कुछ भी संभव नहीं है तो बस दक्षिण दिशा में खड़े हो पितरों को श्रद्धा पूर्वक याद करें दो आंसू ही बहा दें।
पितरों को ढोंग -ढकोसला कुछ नहीं चाहिये ,बहुत अधिक खीर पूरी कद्दू कचौरी से उन्हें अजीर्ण हो जाता है। बस शुद्ध श्रद्धा और हो गया श्राद्ध। ---
श्राद्ध कब प्रचलित हुये और किसने सर्वप्रथम इसका संकल्प और प्रचार किया ?
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युधिष्ठर के पूछने पे भीष्म पितामह ने बताया -
-ब्रह्माजी से महर्षि अत्रि की उत्पत्ति हुई। वे बड़े प्रतापी ऋषि थे ,उनके वंश में दत्तात्रेय जी हुये। दत्तात्रेय के पुत्र थे राजा निमि जो बहुत बड़े तपस्वी थे ,इनके एक पुत्र था -नाम था श्रीमान। श्रीमान भी तपस्वी और सर्वगुण सम्पन्न था पर कठोर तप -स्वाध्याय प्राणायाम में लीन रहते हुए इनका जीवन से मोह भंग हो गया और मोक्ष हेतु उन्होंने प्राण त्याग दिये।
पुत्र वियोग में निमि बहुत व्याकुल और शोक-संतप्त हो गये। उन्होंने पुत्र की आत्मा की शान्ति के लिए अमावस्या को पुत्र की सभी प्रिय वस्तुयें ,शास्त्र विदित सभी श्राद्ध में देने योग्य वस्तुयें एकत्रित कीं , सात ब्राह्मणों को बुला उनकी पूजा अर्चना की ,तदन्तर कुश आसन दे पुत्र "श्रीमान" के नाम गोत्र का उच्चारण कर कुशों पे पिंड दान किया एवं ब्राह्मणों को यथायोग्य दान दिया।
मोह वश निमि ने ये श्राद्ध कर्म स्वयं ही सम्पन्न कर तो दिया पर फिर पश्चाताप करने लगे -क्यूंकि शास्त्र में तो कुलगुरु ,या विद्वान ब्राह्मण आदि द्वारा ही श्राद्ध कर्म का विधान है।
निमि ने अपने पितामह अत्रि ऋषि को अपने मन का संशय बताया। ब्राह्मण कुपित होक शाप न दें इसके लिये भी उनके मन में भय था।
अत्रि ऋषि ने निमि से कहा
निमे संकल्पितस्तेsयं पित्रियजितपोधन।
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तपोधन निमि -पुत्र तुमने यह जो पितृयज्ञ किया है इससे डरो मत ,ये ब्रह्म का ही प्रावधान है।
अपने प्रिय के लिये उत्तम ,त्रुटिरहित ,मङ्गल विधान स्वयं के सिवा कोई नहीं कर सकता। श्राद्ध कर्म प्रिय हेतु किया जाने वाला पवित्र और पुण्य कर्म है ,इसकी पवित्रता और शुद्धता को बनाये रखना प्रिय के सिवा और कौन कर सकता है। जिस श्रद्धा और स्नेह से तुम इस कर्म को करोगे कोई अन्य नहीं कर सकता चाहे वो कितना ही विद्वान क्यों न हो।
निमि के इस प्रकार पितृयज्ञ करने और ब्रह्मापुत्र अत्रि ऋषि की संस्तुति के पश्चात सभी ऋषि -महर्षि -देव -मानव नित्यप्रति पितरों की याद में पितृयज्ञ करने लगेऔर पितरों को अन्न देने लगे । भूले बिसरे सभी पितृ प्रसन्न हो कर तिल -जल के साथ स्वादिष्ट व्यंजनों का भी आनंद लेने लगे। पितृलोक से मृत्युलोक तक आवागमन नित्य ही होने लगा ,घर महालय बन गए -पर मृत्युलोक को छोड़ चुके और केवल जल-तिल से तृप्त रहने वाले पितर बहुत शीघ्र ही तृप्त हो गये अब उन्हें अजीर्ण होने लगा -
अजीर्णेस्त्वभिहन्यन्ते ते देवा पितृभिः सह।
सोम्मेवाभिपद्ध्यन्त तदा ह्यन्नाभिपीडिता --
सोम के पास जाके पितर बोले देव हम श्राद्धान्न से बहुत कष्ट पा रहे हैं -हमारा कल्याण करिये। सोम ने पितरों को ब्रह्मा और ब्रह्मा ने अग्नि के पास भेजा -तब अग्नि ने कहा अब से हम केवल श्राद्ध पक्ष में ही अन्न ग्रहण करेंगे तब मैं आपके साथ ही रहूंगा ताकि आपकी जठराग्नि प्रदीप्त रहे -तब से पहले हवि अग्नि को दी जाती है और फिर पितरों को पिंडदान होता है।
कथा विस्तृत है ,बहुत बातें बहुत सुंदर और मनोवैज्ञानिक रूप से समझाई गयी है।
यदि हम शास्त्रों को स्वयं पढ़ें तो जान पायें हमारे शास्त्रों में रूढ़ियों का कोई स्थान नहीं है ,देश काल परिस्थिति के अनुसार ,श्रद्धा ,सुविधा और पवित्रता पूर्वक जो भी विधि-विधान कर सकते हैं करें ये आदेश है ,
ब्राह्मण से करवाएं स्वयं करें ,बस श्रद्धा पूर्वक हो। कुछ नहीं कर सकें तो केवल जल-तिल से तर्पण -दक्षिण दिशा में।
एक स्थान पे तो ये भी लिखा है कि कुछ भी संभव नहीं है तो बस दक्षिण दिशा में खड़े हो पितरों को श्रद्धा पूर्वक याद करें दो आंसू ही बहा दें।
पितरों को ढोंग -ढकोसला कुछ नहीं चाहिये ,बहुत अधिक खीर पूरी कद्दू कचौरी से उन्हें अजीर्ण हो जाता है। बस शुद्ध श्रद्धा और हो गया श्राद्ध। ---
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